हमारे बाद अंधेरा रहेगा महफि़ल में
बहुत चराग़ जलाओगे रौशनी के लिए।
आनंद हथवलने इंतक़ाल फऱमा गए। वो 74 बरस के थे। मीडिया या जनसंपर्क की नई जमात शायद आंनद हथवलने से वाकिफ न हो। बाकी अस्सी से लेके दो हज़ार की दहाई वाले वक्फे में आनंद के मज़ाहिया, मस्तमौला और हरदिल अज़ीज़ किरदार से उनके संगी साथी और सहाफी (पत्रकार) खूब वाकिफ थे। वो 1981 में जनसंपर्क महकमे में बतौर कैमरामैन नियुक्त हुए थे और साल 2009 में फि़ल्म अधिकारी के ओहदे से सुबुकदोष (रिटायर) हुए। वो जनसंपर्क के लिए डॉक्युमेंट्री फि़ल्म बनाते थे। जिसे उस वक्त फि़ल्म डिविजन भी दिखाता था। जनसंपर्क की नोकरी से क़ब्ल वो भोपाल दूरदर्शन के लिए कैमरावर्क करते थे। मरहूम मूवी कैमरे के माहिर थे। उनके संग काम कर चुके उप संचालक अशोक मनवानी के मुताबिक आनंद हथवलने जिस महफि़ल में होते वहां चुटकुले सुनाकर ठहाकों का दौर शुरू हो जाता। वो अपने काम को बौझ नहीं शौक समझ के करते थे। उन्हें फिल्मी गाने गाने का बड़ा शौक़ था। जब भी सरकारी दौरे पे जाते तो रास्ते मे गाने गा कर अपने साथियों को एंटरटेन करते। वो बहुत हाजिऱ जवाब थे।
उनका सेंस ऑफ ह्यूमर गज़़ब का था। निहायत खुशमिजाज़ आनंद को उनके साथी और पत्रकार भाऊ नाम से पुकारते थे। वो अपने मातहत कर्मचारियों का बहुत खयाल रखते। उनके इस बिंदास और मस्त फक्कड़ अंदाज़ के जनसंपर्क महकमे के तमाम लोग शैदाई थे। लेकिन महफिलों की जान रहे आनंद भाऊ की जि़ंदगी के आखरी तीन चार बरस बहुत तकलीफ़ और तन्हाई में गुजऱे। तीन सालों से घर के कमरे में पलंग तक ही उनकी जि़ंदगी सिमट कर रह गई थी। भयंकर गठिया और पैरालिसिस की वजह से उनका उठना बैठना तक मुश्किल था। कभी अपने संगी साथियों के बीच खूब चहकने और गप्प सड़ाके लगाने वाले भाऊ बमुश्किल कुछ बोल पाते थे। हंसी गायब हो चुकी थी और दर्द उनका साथी बन गया था। रिटायरमेंट के बाद साल 2015 तक वो इंडस एम्पायर इलाके की पुलिया पे अपने रिटायर साथियों के साथ बैठा करते। उस पुलिया पे कई दफे उनकी सालगिरह मनाई गई। उन्होंने उस पुलिया पे आने वाले रिटायर बुजुर्गों के साथ चाय नाश्ते का सिलसिला शुरु किया था। लेकिन उस पुलिया की बैठकें अब खत्म हो चुकी हैं। जुलाई 2021 में उनकी शरीके हयात सुरेखा हथवलने के इंतक़ाल के बाद उनका शव जेके अस्पताल में दान किया गया था। तभी भाऊ ने भी देहदान का फार्म भरा था। उनकी इच्छा के मुताबिक उनकी बेटी और बेटे नीलेश ने अपने पिता का देहदान किया। नीलेश के मुताबिक मां के इंतक़ाल के बाद उनके वालिद बहुत तन्हा महसूस करने लगे थे। गठिया और पैरालिसिस की वजह से वो कहीं आने जाने से भी मजबूर थे। न कोई दोस्त उन तक आ पाता था। अपने ठहाकों और महफिलों को तन्हा छोड़ के भाऊ ढेर सारी यादों के सरमाए के साथ उस सफर पे चले गए जहां से कोई लौट के नहीं आता। अलविदा भाऊ…आप को तहे दिल से खिराजे अक़ीदत।
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