सियाराम पांडेय ‘शांत’
संवाद की अपनी ताकत है। संवाद हमेशा सफल हो, जरूरी नहीं लेकिन उसकी विफलता भी संभावनाओं का संसार तो रचती ही है। जेनेवा के लेकसाइड विला में चार घंटे में अमेरिका और रूस के राष्ट्रपतियों के बीच दो चरणों में हुई वार्ता का लब्बोलुआब भी यही है। इस शिखर वार्ता में दोनों देशों के बीच की कड़वाहट जहां घाटी है, वहीं दोनों देश अपने-अपने राजदूत एक-दूसरे की राजधानियों में भेजने को सहमत हो गए हैं, इसे किसी उपलब्धि से कमतर नहीं आंका जा सकता। इस साल के प्राम्भ में दोनों देशों ने अपने राजदूत बुला लिए थे।
इस शिखर बैठक में अगर मानवाधिकार के मुद्दे उठे तो परमाणु हथियारों की तरह साइबर हमलों पर भी चर्चा हुई। खुद पुतिन भी मानते हैं कि इस बैठक से दोनों देशों के रिश्तों में जितना सुधार हो लेकिन परस्पर विश्वास की उम्मीद तो बनी ही है। दो महाशक्तियां अगर एक-दूसरे पर विश्वास करें तो भी अन्य छोटे और मंझोले देशों का फायदा ही होता है। उनकी जंग में वे अनावश्यक पिसने से बच जाते हैं। एक दशक बाद ही सही, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमिर पुतिन का जेनेवा में वार्ता की मेज पर होना अपने आप में बड़ी घटना है। उससे भी बड़ी बात कि इसमें पहले जैसा पूर्वाग्रह नहीं, गर्मजोशी भर उदार रवैया देखने को मिला। दोनों देश जानते हैं कि दोनों के अपने व्यापारिक और सामरिक हित हैं। दुनिया के बाजारों में दोनों को अपने हथियार बेचने हैं। इसके लिए उन्हें किसी देश का साथ देना और किसी की मुखालफत भी करनी है। ऐसा करते हुए अमेरिका और रूस में कड़वाहट बढ़ सकती है लेकिन उनमें प्रबल टकराव न हो, इस बात की गुंजाइश और पारस्परिक समझ तो संवाद से ही विकसित होगी।
10 मार्च 2011 को मास्को में जब दोनों मिले थे तो उस समय उनमें कोई भी राष्ट्रपति नहीं था। तब बाइडेन अमेरिका के उपराष्ट्रपति और पुतिन रूस के प्रधानमंत्री हुआ करते थे। यह और बात है कि इस मुलाकात से पूर्व पुतिन 1999 से 2008 तक रूस के राष्ट्रपति रह चुके थे। जिस दौर में बाइडेन की उनसे मुलाकात हुई थी, उस समय वे रूस के प्रधानमंत्री थे। 20 जनवरी 2021 को अमेरिका के राष्ट्रपति बनने के बाद बाइडेन की पुतिन के साथ यह पहली मुलाकात थी। कहना न होगा कि इस मुलाकात की पहल भी बाइडेन की ओर से ही की गई थी। दस साल में जाहिर है, बहुत कुछ बदल गया है लेकिन यह मुलाकात इस बात का संदेश तो है कि विश्व की दोनों महाशक्तियों के बीच तनातनी का खेल बहुत हो चुका, अब तो इस पर बस अर्थात विराम की ही जरूरत है। वैसे जिस तरह बाइडेन ने पुतिन को काबिल विरोधी कहा है और पुतिन ने चीन और डोनाल्ड ट्रंप की सराहना की है, उससे दोनों वैश्विक नेताओं की तल्खी का तो पता चलता ही है। यह और बात है कि विगत कुछ वर्षों में अमेरिका और रूस के बीच बढ़ी खटास की एक वजह अमेरिकी चुनाव भी रहा है।
इस बैठक से एक दिन पहले बाइडन ने पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रशासन में शामिल रहे अधिकारियों समेत रूसी विशेषज्ञों के एक समूह से बैठक की थी। बैठक में पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के कार्यकाल के दो पूर्व रूसी राजदूत माइकल मैकफॉल और जॉन टेफ्ट समेत करीब 12 विशेषज्ञ शामिल हुए थे। 14 जून को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा था कि वह रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से कहेंगे कि वाशिंगटन मास्को के साथ संघर्ष की तलाश नहीं कर रहा है लेकिन उसकी हानिकारक गतिविधियों का जवाब अवश्य देगा। इस बैठक की एक वजह चीन और रूस के बीच बढ़ते सहयोग पर अमेरिका की चिंता भी है। यह और बात है कि वे पुतिन के साथ वार्ता करते हुए बहुत तल्ख नहीं रह पाए। चीन और रूस की नजदीकियों पर भी वे ब्रेक लगा पाए हैं, ऐसे कोई संकेत नहीं मिले।
हाल के एक दशक में जिस तरह चीन और रूस की नजदीकियां बढ़ी है और उनके रिश्ते अर्ध-गठबंधन जैसी शक्ल अख्तियार कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र में महत्वपूर्ण मुद्दों पर रूस और चीन की परस्पर जुगलबंदी नजर आती है। दोनों देश व्यापार, सैन्य और तकनीकी क्षेत्र में आपसी सहयोग बढ़ा रहे हैं, उससे अमेरिका की पेशानियों पर बल तो पड़े ही हैं। अमेरिकी एजेंसियों और निजी कंपनियों पर किए गए साइबर हमले के लिए भी रूसी राष्ट्रपति को ही जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है। पुतिन के घोर विरोधी नेता एलेक्सी नवलनी के साथ जो कुछ हुआ, उसको लेकर अमेरिका समेत कई देश रूस के खिलाफ रहा है लेकिन पुतिन ने साफ कह दिया है कि नवलनी की जगह जेल ही है। पुतिन ने तो यहां तक कह दिया की सियासी विरोधियों से निपटने के लिए क्या अमेरिका में कानून नहीं है।
दोनों देशों के बीच हथियार एक बड़ा मुद्दा है। अमेरिका नहीं चाहता है कि रूस की प्रणाली एस 400 को कोई देश खरीदे। इसे लेकर वह अन्य देशों पर दबाव भी डालता रहा है। तुर्की और भारत भी इसके अपवाद नहीं हैं। यह और बात है कि रूस से पुराने संबंधों और अपनी रक्षा जरूरतों का वास्ता देकर दोनों ही देश अमेरिकी दबाव मानने से इनकार कर चुके हैं। सीरिया में पुतिन का सरकार को समर्थन और वहां ताबड़तोड़ हमले, सीरियाई फौज को मदद करना कभी भी अमेरिका को रास नहीं आया। यू्क्रेन और लीबिया में भी कुछ ऐसा ही है। बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद से दोनों देशों के कूटनीतिक संबंध बहुत हद तक खराब हुए हैं। बाइडेन के पास अगर आरोपों का अंबार तो था लेकिन पुतिन से वे कितने मुद्दों पर चर्चा कर पाए, यह अभी स्पष्ट नहीं है। इतना तो पुतिन भी जानते हैं कि अमेरिका महामारी के दौर में रूस और चीन की चुनौतियों का एक साथ मुकाबला करने की हालत में नहीं है।
वर्ष 2014 में जब रूस ने ताकत के बल पर क्रीमिया पर कब्जे की कोशिश की थी तभी से अमेरिका और रूस के बीच रिश्ते खराब होने शुरू हो गए थे। 2016 में अमेरिका में हुए राष्ट्रपति चुनाव में तो यह तनातनी चरम पर पहुंच गई। अमेरिकी खुफिया एजेंसियों ने आरोप लगाया कि रूस डोनाल्ड ट्रम्प और रिपब्लिकन पार्टी की मदद कर रहा है। यही नहीं, रूस की गुप्तचर एजेंसियों पर चीन के साथ मिलकर अमेरिका की अहम कंपनियों का डेटा चुराने की कोशिश करने का आरोप भी लगा। यह और बात है कि रूस ने इन तमाम आरोपों को न तो कभी स्वीकार किया और न ही अमेरिका ने कभी अपने आरोपों के पक्ष में कोई सबूत प्रस्तुत किए।
बाइडेन ने मार्च में अपने एक साक्षात्कार में पुतिन को हत्यारा कहा था। इस पर पुतिन ने बाइडेन को खुली बहस की चुनौती दी थी। साथ ही अमेरिका को ‘अनफ्रेंडली कंट्री’ लिस्ट में डाल दिया था। रूस ने वॉशिंगटन से अपने राजदूत को वापस बुला लिया। कुछ दिन बाद मॉस्को ने अमेरिकी एम्बेसडर जॉन सुलिवान को देश छोड़ने के आदेश दिए। कई और अफसरों को दोनों देशों ने निकाला। अब इस तनातनी की जद में बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी आ गई हैं। यह और बात है कि बाइडेन ने अप्रैल में पुतिन को फोन किया और बातचीत का न्योता दिया। इसके बाद यह मुलाकात हुई।
अमेरिका चाहता है कि रूस अब चीन पर यह दबाव डाले कि वह कोरोना ओरिजिन पर सबूत और मेडिकल डॉक्यूमेंट्स साझा करे। इसके अलावा हॉन्गकॉन्ग, ताइवान और दक्षिण चीन सागर में चीन की हरकतों को रोके। रूस ने अबतक कोरोना ओरिजिन पर चीन के पक्ष में ही दलीलें दी हैं। अमेरिका यह भी चाहता है कि ईरान के एटमी प्रोग्राम को रोकने के लिए रूस उसकी पहल का हिस्सा बने लेकिन लगता नहीं कि बाइडेन को इस मामले पर कामयाबी मिली है क्योंकि रूस अपने हित देख रहा है। अमेरिका की तरफ से 32 रूसी संस्थाओं पर लगाए गए बैन, 2020 के चुनाव में रूस का शामिल होना और यूएस नेटवर्क की सप्लाई चेन सॉफ्टवेयर हैंकिंग जैसे मुद्दे हैं। जबकि रूस इन आरोपों को नकारता रहा है।
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने हाल ही में स्टेट डिपार्टमेंट में क्लाइमेट चेंज सपोर्ट ऑफिस शुरू करने के आदेश दिए हैं। इसका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन को लेकर उठाए जा रहे प्रयासों का समर्थन करना है। दोनों देशों के बीच वार्ता का जो सिलसिला आरम्भ हुआ है, वह आगे भी चलेगा। दोनों देशों ने जिस तरह वार्ता के लिए अपने अधिकारियों को भेजने पर सहमति जताई है, वह एक अच्छा संकेत है। यद्यपि कि दोनों देशों के अपने हित हैं और हितों से समझौता कोई नहीं करना चाहेगा। पैंतरे पर रहकर वार्ता वैसे भी नहीं होती लेकिन वार्ता हुई है तो दूर तक जाएगी।अमेरिका और रूस अगर दोस्ती का हाथ बढ़ते हैं और रिश्तों को मजबूती देते हैं तो इससे भारत को भी फायदा होगा क्योंकि दोनों ही से उसके अपने संबंध हैं।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से सम्बद्ध हैं।)