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    काश! यूएन चीन के मुसलमानों के साथ मुस्लिम देशों के अल्पसंख्यकों की भी चिंता करता

  • September 04, 2022

    – डॉ. मयंक चतुर्वेदी

    संयुक्त राष्ट्र की जारी एक रिपोर्ट इस समय पूरी दुनिया में मानवाधिकारों के समर्थकों के बीच चर्चा का विषय बनी हुई है। संयुक्त राष्ट्र ने रिपोर्ट में चीन पर मानवाधिकारों के गंभीर उल्लंघन के आरोप लगाए हैं। जिसमें तथ्यों के साथ यह बताने का प्रयास हुआ है कि कैसे उइगर मुसलमानों पर चीन अत्याचार कर रहा है। रिपोर्ट के अनुसार यहां शिनजियांग प्रांत में रह रहे मुसलमानों पर चीन का अत्याचार इतना कि 10 लाख से ज्यादा लोग ‘रि-एजुकेशन कैम्प’ में बंधक हैं। उइगर मुसलमानों से कहा गया है कि यदि उन्होंने कैम्प के बारे में कुछ भी कहा तो लंबे समय के लिए जेल में बंद कर दिया जाएगा।

    यूएन की यह रिपोर्ट कहती है कि अनेक अवसरों पर यहां के मुसलमानों को उनकी भाषा बोलने, मजहबी नियमों का पालन करने से भी मना कर दिया जाता है, महिलाओं के हिजाब पहनने पर पाबंदी है। पुरुषों को दाढ़ी बढ़ाने और बच्चों को मुस्लिम नाम देने पर रोक है। रमजान के दिनों में रेस्टोरेंट बंद रखने के लिए मना किया हुआ है। साथ ही चीन ने उइगर भाषा के इस्तेमाल पर भी रोक है। चीन ने इन लोगों को देशभक्ति गीत गाने के लिए मजबूर किया जाता है।

    रिपोर्ट चीन की मुस्लिम महिलाओं के हवाले से यौन हिंसा के बड़े दावे प्रस्तुत करती है। यूएन का कहना है कि उसे कुछ महिलाओं ने बताया है कि कैसे उनके साथ जबरन बलात्कार किया गया। उन्हें ओरल सेक्स करने और अपने कपड़े उतारने के लिए भी मजबूर किया जाता है और कैसे फैमिली प्लानिंग के नाम पर मुस्लिम पुरुषों की जबरन नसबंदी की जाती है। कुल मिलाकर संयुक्त राष्ट्र की यह नई रिपोर्ट चीन पर मानवाधिकारों के गंभीर उल्लंघन का आरोप लगाती है। जबकि दूसरी ओर खड़ा चीन इस रिपोर्ट में किए गए सभी दावों को खारिज कर रहा है।

    थोड़ा हम यहां चीन का मत भी उसके मुस्लिम नागरिकों को लेकर जान लेते हैं। चीन का कहना है कि ये रिपोर्ट पूरी तरह से झूठ के आधार पर खड़ी हुई है। चीन द्वारा अपने शिनजियांग प्रांत में मुसलमानों पर अत्याचार करने के आरोपों का कोई ठोस आधार नहीं, सभी ये समझ लें कि यहां जो चीन की सरकार कर रही है उसका उद्देश्य पूर्वी तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआईएम) को रोकना है, जोकि अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठन से जुड़ा हुआ है।

    वस्तुत: यूएन की रिपोर्ट और बदले में चीन के पक्ष को जानने के बाद आज स्वत: कुछ प्रश्न जीवंत हो उठे हैं। संयुक्त राष्ट्र को जिस तरह से चीन के अल्पसंख्यक उइगर मुसलमानों की चिंता है, क्या ऐसे ही उसे पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान या अन्य बहुसंख्यक मुस्लिम देशों में रह रहे अल्पसंख्यक हिन्दू, सिखों और अन्य धर्मों को मामने वालों की भी चिंता है? उनके लिए यूएन कब अपनी रिपोर्ट जारी करेगा? पाकिस्तान से अभी एक खबर आई है, यहां सिंध प्रांत में एक 8 वर्षीय हिंदू बच्ची के साथ सामूहिक दुष्कर्म की घटना घटी है। 28 अगस्त को यह बच्ची परिजनों को बेहद गंभीर अवस्था में मिली थी। उसकी ऑंखें फोड़ दी गईं और पूरा शरीर नोंच लिया गया था। राशन दिलाने के नाम पर इस लड़की के साथ दो दिनों तक खालिद और दिलशेख ने बलात्कार किया।

    वस्तुत: पाकिस्तान में ऐसी घटनाएं अल्पसंख्यक समुदाय के साथ भरी पड़ी हैं। अत्याचार का आलम ये है कि पिछले साल ईशनिंदा का आरोप लगाकर 585 लोगों को गिरफ्तार किया गया। अब तक अनेकों को फांसी की सजा सुना दी गई है। जबरन धर्मांतरण और अल्पसंख्यकों की हत्या की घटनाएं यहां आम बात है। दुखद यह है कि अत्याचार में मुस्लिम भीड़ के साथ पाकिस्तान सरकार भी शामिल है। जबरन धर्मांतरण के मामले अकेले पंजाब प्रांत में ही पिछले एक वर्ष में तीन गुना बढ़े हैं। इसके अतिरिक्त सिंध के विभिन्न इलाकों में भी सबसे अधिक धर्मांतरण की खबरें आई हैं, जिनमें हिन्दू सबसे ज्यादा शिकार बनाए गए। खुलेआम हिन्दू लड़कियों का अपहरण कर उनका मुस्लिमों के साथ विवाह कराया जा रहा है।

    कराची में हिंदू मंदिर में तोड़फोड़, सिंध नदी के किनारे कोटरी में ऐतिहासिक मंदिर को मुस्लिमों द्वारा अपवित्र करना, भोंग शहर में भीड़ का हिंदू मंदिर को शिकार बनाना, खैबर पख्तूनख्वा के कारक में एक सदी पुराने मंदिर को मुस्लिम भीड़ द्वारा तोड़ देना जैसी घटनाएं घटना यहां आम बात है। आपको ध्यान होगा कि साल 2020 में सैंकड़ों लोगों की भीड़ ने सिखों के सबसे पवित्र स्थलों में से एक ननकाना साहिब गुरुद्वारा पर पत्थरबाजी की थी। उस समय एक सिख लड़की का अपहरण भी किया गया था और सिखों को ननकाना साहिब से भगाने और इस पवित्र शहर का नाम बदलकर गुलाम अली मुस्तफा करने की बात कही जा रही थी। यहां स्थिति अल्पसंख्यकों के लिए इतनी बेकार है कि उन्हें सरकारी योजनाओं के लाभ से भी वंचित रखा जाता है ऐसा नहीं है कि इन सभी अत्याचारों के विरुद्ध यहां के अल्पसंख्यक प्रदर्शन नहीं करते, वह अपने वे सभी प्रयास कर रहे हैं जिससे कि उन पर होनेवाले अत्याचारों को रोका जा सके किन्तु उनकी आवाज शायद! वैश्विक एजेंसियों और विश्व समुदाय तक नहीं पहुंच पा रही है।

    यही हाल बांग्लादेश, अफगानिस्तान में रह रहे हिन्दू, सिख एवं अन्य अल्पसंख्यकों का है। बांग्लादेश में लगातार हो रहे हमलों के कारण हिंदुओं की जनसंख्या घट रही है। 1974 में पहली बार बांग्लादेश में जनगणना हुई थी। उस दौरान वहां 13.5 फीसदी हिंदू थे परंतु वर्ष 2011 में जनगणना में बांग्लादेश में केवल 8.5 प्रतिशत हिंदू ही रह गए। वर्ष 2011 से 2021 के बीच इसमें तीन फीसदी के करीब की और गिरावट आ गई है। तमाम रिपोर्ट्स बताती है कि वर्ष 2013 से अब तक बांग्लादेश में हिंदुओं को निशाना बनाते हुए 4 हजार से अधिक बड़े हमले हुए हैं । यह तो सिर्फ पिछले 9 सालों का आंकड़ा है, यदि 1947 से तब तक हिन्दुओं पर हुए हमलों की गणना की जाएगी तो यह आंकड़ा 40 हजार भी पार कर जाए तो कोई बड़ी बात नहीं होगी।

    इस सब के बीच बांग्लादेश की राजधानी ढाका में एक विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. अबुल बरकत के किए गए सामाजिक शोध पर भी आज ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है, जो यह बता रहा है कि कैसे हर रोज 616 हिंदू परिवार बांग्लादेश से पलायन करने को मजबूर हैं। इस अनुमान के मुताबिक वर्ष 2050 तक बांग्लादेश में एक भी हिंदू अल्पसंख्यक परिवार नहीं बचेगा। पाकिस्तान, बांग्लादेश की तरह ही अफगानिस्तान से भी इसी प्रकार की सूचनाएं आए दिन आ रही हैं कि सिख, हिन्दू अल्पसंख्यकों का वहां रहना मश्किल है। अब तक उनका हुआ पलायन, हत्याएं, महिलाओं के साथ किए जानेवाले अत्याचार यह साफ बता रहे हैं कि मुसलमानों के बीच जैसे हिन्दू या अन्य अल्पसंख्यक होना यहां पाप है।

    वस्तुत: ऐसे में अच्छा हो कि यूएन चीन की तरह ही इन देशों में हो रहे हिन्दू एवं अन्य अल्पसंख्यकों के अत्याचार को लेकर भी शीघ्र अपनी रिपोर्ट प्रकाशित करे। विश्व के तमाम देशों को पता होना चाहिए कि पाकिस्तान, बांग्लादेश या अफगानिस्तान जैसे मुस्लिम देश अपने यहां के अल्पसंख्यकों के साथ कैसा दुर्व्यवहार कर रहे हैं। वास्तव में आज जितना भी अंतरराष्ट्रीय आर्थिक सहयोग इन देशों को मिलता है वह तत्काल बंद होना चाहिए। यह बंदी तब तक प्रभावी रहे जब तक कि यह अपने अल्पसंख्यक नागरिकों के साथ मानवाधिकारों के नियमानुसार व्यवहार करने के लिए तैयार नहीं हो जाते हैं।

    (लेखक फिल्म सेंसर बोर्ड एडवाइजरी कमेटी के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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