या तो दीवाना हँसे या तुम जिसे तौफ़ीक़ दो
वर्ना इस दुनिया में रह कर मुस्कुराता कौन है।
आज आपको अस्सी की दहाई में सहाफत में आये चंदा बारगल की अज़मत से वाकिफ कराते हैं। चंदा बारगल उर्फ चंदा भैया शिफा देहलवी के इस शेर के फ़लसफ़े से भी ऊपर की चीज़ थे। सहाफत (पत्रकारों) की नई नस्ल को बता दूं के चंदा भैया हमारे सूबे के बड़े नामवर सहाफी थे। निहायत ही मस्त फक्कड़ और यारबाज़ चंदा भैया को जितना उनकी ईमानदाराना सहाफत और नायाब क़लम के लिए जाना जाता था उतना ही उनके उन्मुक्त ठहाकों और मज़ाहिया अख़लाक़ के लिए भी वो मशहूर थे। चंदा भैया हंसते या मुस्कुराते नहीं थे। वो तो जमके ठहाके लगाते थे। घर, दफ़्तर,बाज़ार, पिरेस काम्पलेक्स में जब वो डिड्डिया-डिड्डिया के ठहाका लगाते तो आसपास वाले भेरा-भेरा के उने देखते। चंदा भैया को उनके साथी दादा भी कहते। ताजि़न्दगी कमिटेड जर्नलिज़्म करने वाले इस सहाफी की माली हालत हमेशा टाइट रही। बाकी उन्ने तंगदस्ती का रोना कबी नई रोया। वो जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया के फंडे पे जि़न्दगी गुज़ारते रहे। उन्ने पैदल, सायकिल और स्कूटर पे रिपोर्टिग करी।
उनकी सहाफत की इब्तिदा 1980 में इंदौर में नईदुनिया से हुई। उने अभय छजलानी,राजेन्द्र माथुर, राहुल बारपुते, शाहिद मिजऱ्ा जैसे सहाफियों का साथ मिला।लिहाज़ा उनकी लेखनी लाजवाब थी। चंदा भैया अपनी बेहद साफ शफ्फ़़ाफ़ कॉपी के लिए मशहूर थे। मोतियों जैसे हुरूफ़ थे उनके। भाई दोनो हाथों से एक जैसी लिखावट उकेरता था। कम लफ्ज़़ों में ज़्यादा कह जाने का उनका हुनर कमाल का था। उनके लिखे में कॉमा, फुल स्टॉप तक चेंज करने की गुंजाइश नहीं होती थी। नईदुनिया के बाद वो दैनिक भास्कर में भी रहे। इंदौर से भोपाल शिफ्ट हुए तो यहां भी उनके चाहने वाले खूब बन गए। यहां उन्ने सातवीं दुनिया, राज एक्सप्रेस, पत्रिका, दैनिक जागरण में भी काम किया। 1993 में चंदा भैया मुल्क के मायानाज़ रिसाले माया के स्टेट ब्यूरोचीफ हो गए। उन्होंने खबरों से कभी समझौता नईं करा। वो पूरी दबंगता से सहाफत करते थे। चंदा भैया खाने और पीने के बहुत शौकीन थे। इंदौर में अपनी सहाफत के दौरान वो रात दो बजे काम निपटा के राजबाड़ा पे पोहे-जलेबी खाने जाते और सुबा होते होते घर पहुंचते। 8 जुलाई 2019 को भोपाल में उनका इंतेक़ाल हुआ। उनके हम प्याला-हम निवाला दोस्त उनकी यारबाज़ जि़न्दगी को आज भी याद करते हैं।
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