– प्रभात झा
देश के जन-जन के मन में अपनी ओज और तेजपूर्ण वाणी से एक अप्रतिम स्थान बनाने वाले भारत रत्न और 3 बार भारत के प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी की कल पुण्यतिथि है। सारा देश उन्हें नमन कर रहा है। नीति सिद्धांत, विचार एवं व्यवहार की सर्वोच्च चोटी पर रहते हुए सदैव जमीन से जुड़े रहने वाले अटल जी से जिनका भी संबंध आया, वह राजनीति में कभी छोटे मन से काम नहीं करेगा।विपक्ष में रहते हुए देश के हर दल के राजनेताओं और कार्यकर्ताओं के मन में विशिष्ट स्थान बना लेना, साथ ही उन दलों के कार्यकर्ताओं में यह भाव पैदा कर देना कि काश अटलजी हमारे दल के नेता होते! -यह सामर्थ्य अटलजी में ही था। विरोध में रहते हुए भी वे सदैव सत्ता पक्ष के नेताओं से भी देश में अधिक लोकप्रिय रहे। अपने अखंड प्रवास, वक्तव्य कला और राजनैतिक संघर्ष के साथ-साथ सड़कों से लेकर संसद में सिंह गर्जना कर तत्कालीन भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और उनके समकक्ष नेताओं के मन में भी अपना विशिष्ट स्थान बनाने वाले अटलजी सर्वदलीय मान्यता के एकदलीय नेता थे।
हम सभी का सौभाग्य है कि अन्य लोगों से अधिक राजनैतिक, सामाजिक और पत्रकार के नाते और इससे भी अधिक ग्वालियर के नाते हमारा उनपर सर्वाधिकार था। ग्वालियर अटलजी की जन्मस्थली और प्रारंभ में कर्मस्थली रही। वे महाराज बाड़े स्थित गोरखी स्कूल और तत्कालीन विक्टोरिया कॉलेज, (आज का महारानी लक्ष्मीबाई कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय) अटल जी की यादों से जुड़ा हुआ है। महारानी लक्ष्मीबाई महाविद्यालय में पढ़ चुके और पढ़ रहे छात्र गर्व से कहते हैं कि हम उस कॉलेज से ‘पासआऊट’ हैं, जहां अटल जी पढ़ा करते थे।
एक समय पर अटल जी स्वदेश के में संपादक भी रहे। उनका स्वदेश से वैचारिक लगाव रहा। हम सभी स्वदेश में रहे, अतः हमलोगों से उन्हें और भी स्नेह था। ग्वालियर की गलियों को अटल जी ने साईकिल से नापा हुआ था। ग्वालियर की हर गली-हर चौराहे और हर मोहल्ले के नाम उनकी जुबां पर होते थे। हमलोगों से लगाव होने का कारण एक और था कि अटलजी के भांजे अनूप मिश्रा और उनके भतीजे दीपक वाजपेयी भी साथ-साथ एक ही कॉलेज में पढ़ते थे।
अटल जी एक तो बहुत सहज सरल थे। साथ ही सुरक्षा के नाम पर आज जिस तरह का वातावरण है, वैसा उस समय नेताओं के साथ नहीं था। अटल जी ‘शताब्दी’ में दिल्ली से बैठकर ग्वालियर आते थे। सुरक्षा के नाम पर श्री शिवकुमार पारेख उनके साथ ही रहा करते थे। शिवकुमारजी अटल जी के अनुज भांति ही थे।
अटल जी की पुण्यतिथि पर हम भारत के जन-जन को यह बताना आवश्यक समझते हैं कि उनका जन्म ग्वालियर के जिस शिन्दे की छावनी स्थित कमल सिंह के बाग की पाटौर मे हुआ था. वह पाटौर उनके प्रधानमंत्री बनने तक यथावत रही। भारत की राजनीति में ईमानदारी का ऐसा अनुपम उदाहरण कभी देखने को नहीं मिला। वे प्रतिपक्ष के नेता रहते हुए ग्वालियर के ट्रेड फेयर (मेला) में हरिद्वार वालों के गाजर का हलुआ और मंगोड़ी खाने मोटर साईकिल पर बैठकर चले जाते थे।
ग्वालियर में अपने आप ही उनका मन वहां बीते बचपन की ओर लौट आता था। अटल जी मूल में इतने बड़े नेता होते हुए भी पार्टी के भीतर एक कार्यकर्ता के रूप में ही थे। सन 1996 की बात है। मध्य प्रदेश में भाजपा सांसदों, विधायकों और पार्टी पदाधिकारियों का प्रशिक्षण वर्ग लगा था। बतौर प्रतिपक्ष के नेता के रूप में वे भोपाल स्थित भाजपा के प्रांतीय कार्यालय दीनदयाल परिसर के हॉल मे आए। प्रशिक्षण वर्ग में उनका उद्बोधन हुआ। उस उद्बोधन का दो पैरा मैं यहां उद्धत कर रहा हूं।
अटल जी ने उद्बोधन के प्रारम्भ में कहा था कि “कार्यकर्ता मित्रों”, मेरे इस संबोधन पर आश्चर्य न करें। मैं जानता हूं कि इस प्रशिक्षण वर्ग में पार्टी के प्रमुख नेता उपस्थित हैं। सांसदगण भी विराजमान हैं। सभी विधायक भाई तथा बहनें भी वर्ग में भाग ले रही हैं। मैंने जानबूझकर कार्यकर्ता के नाते सबको संबोधित किया। हम यह दावा करते हैं कि हमारी पार्टी कार्यकर्ताओं की पार्टी है। जो नेता है वह भी कार्यकर्ता है। विशेष जिम्मेदारी दिए जाने के कारण वह नेता के रूप में जाने जाते हैं लेकिन उनका आधार है, उनका कार्यकर्ता होना।
जो आज विधायक हैं, वह कल शायद विधायक नहीं रहें। सांसद भी सदैव नहीं रहेंगे। कुछ लोगों को पार्टी बदल देती है, कुछ को लोग बदल देते हैं, लेकिन कार्यकर्ता का पद ऐसा है, जो बदला नहीं जा सकता। कार्यकर्ता होने का हमारा अधिकार छीना नहीं जा सकता। कारण यह है कि हमारा यह अधिकार अर्जित किया हुआ अधिकार है, निष्ठा और परिश्रम से हम उसे प्राप्त कर सकते हैं, वह ऊपर से दिया गया सम्मान नहीं है कि उसे वापस लिया जा सके। उन्होंने वर्ग में आगे कहा पार्टी के संगठन को सुचारू रूप से चलाने के लिये कार्य का विभाजन होता है, तदानुरूप पदों का सृजन होता है। अलग-अलग दायित्व होते हैं। पदों के अनुसार कार्यकर्ता पहचाने जाते हैं, लेकिन यह पहचान सीमित समय तक ही रहती है। संगठन का कोई पदाधिकारी 4 साल से अधिक अपने पद पर नहीं रहता। ऐसा किसी विशेष नियम के अन्तर्गत नहीं होता, यह एक परम्परा है, हम जिसका दृढ़ता से पालन करते हैं। देश में अनेक राजनीतिक दल हैं। उनमें न नियमित रूप से सदस्यता होती है और न चुनाव। जो एक बार पदाधिकारी बन गया, वह हटने का नाम नहीं लेता। अनेक दलों के अध्यक्ष स्थायी अध्यक्ष बन जाते हैं। उन्हें हटाने के लिये अभियान चलाना पड़ता है, लेकिन उनके कान पर जूं नहीं रेंगती, वे टस से मस नहीं होते। हमारे यहां ऐसा नहीं है।
अटल जी कहा करते थे कि हमारा लोकतंत्र में विश्वास है। जीवन के सभी क्षेत्रों में हम लोकतांत्रिक पद्धति का अवलंबन करने के समर्थक हैं। अपने राजनीतिक दल को भी हम लोकतंत्रात्मक तरीके से चलाते हैं। निश्चित समय पर सदस्यता होती है। पुराने सदस्यों की सदस्यता का नवीकरण होता है, नये सदस्य बनाये जाते हैं। संगठन के विस्तार के लिए नये लोगों का आना जरूरी है। समाज के सभी वर्गों से और देश के सभी क्षेत्रों सें सभी पार्टी में अधिकाधिक शामिल हों, यह हमारा प्रयास होता है। किसी व्यक्ति या इकाई द्वारा अधिक से अधिक सदस्य बनाये जाते हैं, इस प्रतियोगिता में कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन प्रतियोगिता पार्टी के अनुशासन और मर्यादा के अन्तर्गत होनी चाहिए।
उन्होने आगे कहा कि पार्टी के विस्तार के लिए नये सदस्य बनाना एक बात है और पार्टी पर कब्जा करने के लिये सदस्यता बढ़ाना दूसरी बात है। जब पार्टी का विस्तार करने के बजाय पार्टी पर अधिकार जमाने की विकृत मानसिकता पैदा होती है तब फिर जाली सदस्य भी बनाये जाते हैं। सदस्यता का शुल्क भी गलत तरीके से जमा किया जाता है। इससे पार्टी का स्वास्थ्य बिगड़ता है और दलों में प्रचलित इस बुराई को हमें अपने यहां बढ़ने से रोकना होगा। वर्षों से पार्टी में काम करने वाले लोग ऐसी बुराइयों के प्रति उदासीन नहीं हो सकते। पार्टी का जन-समर्थन बढ़ाना होगा, किन्तु उसे पद-लोलुपता से बचाना होगा। गुटबन्दी का पार्टी में कोई स्थान नहीं हो सकता।
इस ऐतिहासिक प्रशिक्षण वर्ग में भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघ चालक और भाजपा के पालक सुदर्शन जी साथ ही भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय संगठन महामंत्री कुशाभाऊ ठाकरे भी मौजूद थे। भाजपा के अब तब हो रहे विस्तार में मूलप्राण ’कार्यकर्ता’ है। यही बात संगठनात्मक बैठकों में आज भी देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहा करते हैं। उनका भी कहना है कि हम चाहे जितने बड़े नेता हों पर हमें मूल में कार्यकर्ता भाव से सदैव जुड़े रहना चाहिए। कार्यकर्ता भाव ही नए कार्यकर्ता को अपने दल से जोड़ता है।
इस प्रशिक्षण वर्ग में अटल जी ने कहा कि भारतीय जनता पार्टी पिछले कुछ वर्षों में अपना प्रभाव और शक्ति बढ़ाने में सफल हुई है। इसके पीछे एक चिन्तन है, एक विचारधारा है। मैं अभी-अभी परिसर में पं. दीन दयाल उपाध्याय की मूर्ति का अनावरण करके आया हूं। वह महान चिंतक और कुशल संगठनकर्ता थे। उनकी विशेषता पुराने चिन्तन को देश और काल के परिप्रेक्ष्य में उपस्थित करने में थी। समय के साथ समस्याओं का रूप बदलता है, नयी समस्याएं खड़ी होती हैं, कुछ पुरानी समस्याएं नये स्वरूप मे आती हैं। उन समस्याओं को अलग करने के लिये मूलभूत चिन्तन के आधार पर नयी व्याख्याएं और नयी व्यवस्थाएं बनानी पड़ती हैं।
वर्ग में उन्होने आगे कहा कि हम एक आदर्श राज्य की स्थापना चाहते हैं इसलिये प्रारंभ में धर्म राज्य की बात कही, बाद में अयोध्या आन्दोलन के प्रकाश में हमने रामराज्य की स्थापना को अपने लक्ष्य के रूप में लोगों के सामने रखा। धर्म राज्य और रामराज्य में कोई अन्तर नहीं है। दोनों में लक्षण समान हैं किन्तु कभी-कभी समय में परिवर्तन के साथ कोई शब्दावली अधिक आकृष्ट हो जाती है।
यह संयोग ही है कि 5 अगस्त के अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ ट्रस्ट के द्वारा भगवान रामलला के भव्य राममंदिर के भूमिपूजन के समय अपने उद्बोधन में वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंन्द्र मोदी ने साफ शब्दों में कहा कि हजारों वर्षों से चली आ रही हमारी संस्कृति का संदेश और रामराज्य की ओर बढ़ने का एक नया युग प्रारंभ हुआ है। अटल जी ने आगे कहा कि जब जनसंघ का निर्माण हुआ तो विश्व साम्यवाद और पूंजीवाद में बंटा हुआ था। भारतीय चिन्तन ने दोनों को अस्वीकार किया था। अटल जी ने कहा था कि हम राज्य शक्ति और आर्थिक शक्ति का एकत्रीकरण नहीं चाहते, न कुछ व्यक्तियों के हाथों में और न राज्य के ही हाथों में, हम विकेन्द्रित व्यवस्था के हामी हैं। साम्यवाद शोषण से मुक्ति और राज्य के तिरोहित होने की बात करता है किन्तु व्यवहार में वह केन्द्रीकरण का पुरस्कर्ता बनकर खड़ा हो जाता है। पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों की विफलता सुनिश्चित जानकर उपाध्याय जी ने एकात्म मानववाद का प्रतिपादन किया, जिसमें पूंजीवाद की तरह न तो समस्याओं को टुकड़ों मे देखा जाता है और न व्यक्ति की स्वतंत्रता तथा उसके पुरुषार्थ पर पानी फेर कर एक अधिनायकवादी व्यवस्था का ही प्रतिपादन किया जाता है।
अटल जी कहा करते थे कि पश्चिमी सभ्यता एक नये संकट में फंस रही है। नये आर्थिक सुधारों के बाद हम भी उसी गलत दिशा में जा रहे हैं। बाजारी अर्थ-व्यवस्था के मूल में कोई गहरा जीवन-दर्शन नहीं हो सकता। प्रगति के लिये प्रतियोगिता होनी चाहिए। प्रतियोगिता से प्रगति होती है। दौड़ होने पर सबसे आगे निकलने का आकर्षण होता है। तेज दौड़ने की प्रेरणा होती है, जिसमें प्रतियोगिता किस हद तक हो, इसका विचार जरूरी है। कला घटाने वाली प्रतिस्पर्धा सबका निमार्ण नहीं कर सकती। साथ-साथ दौड़ने के बजाय यदि एक-दूसरे को टंगड़ी लगाकर गिराने का खेल शुरू हो जाये तो न दौड़ होगी और न प्रगति। अटल जी कहा करते थे कि केवल धन कमाना ही जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकता। जीवन के लिये अर्थ जरूरी है, किन्तु अर्थ के संबंध में और भी बातें आवश्यक हैं। पं. दीनदयाल उपाध्याय जी कहा करते थे कि पेट भरने मात्र से समस्याएं समाप्त नहीं होतीं। सचमुच में कुछ समस्याओं का जन्म पेट भरने के बाद ही होता है।
अटल जी का कहना था कि हम शरीर की रचना देखें तो उसमें पेट के ऊपर मस्तिष्क और फिर सबका संचालन करने वाली आत्मा का स्थान दिखाई देता है। मनुष्य मात्र मुनाफा कमाने का साधन नहीं बन सकता। आहार, निद्रा और भय मनुष्य और पशु में समान है। बुद्धि और भावना मनुष्य और पशु को अलग करती है। पेट के साथ मनुष्य के मस्तिष्क को भी भोजन चाहिए। बौद्धिक दृष्टि से उसका विकसित होना जरूरी है। उसके मन में करुणा, संवेदना और संतोष होना चाहिए। उनका मानना था कि आज प्रायः सभी देशों में जड़ों की तलाश का सिलसिला चल रहा है, यहां तक कि जातियां और उपजातियां भी अपनी जड़ों की खोज करना चाहती है। इस्लामी देशों में यह खोज फंडामेंटलिज्म का रूप लेकर सामने आ रही है। मजहब समान होते हुए भी इस्लामी देश संंस्कृति की दृष्टि से अलग-अलग हैं, कुछ उदारवादी हैं। कुछ दिन पहले कुछ अमरीकियों से चर्चा करने का मौका मिला। उनका कहना था कि वे हमारे हिन्दुत्व के आंदोलन को समझते हैं, अपनी जड़ों से नाता रखने का प्रयास स्वाभाविक है। किन्तु जड़ों की तलाश भी एक सीमा तक होनी चाहिए। बार-बार जड़ों को उखाड़ कर देखने से पौधा नहीं पनपता। जड़ पेड़ को आधार प्रदान करता है। किन्तु पेड़ के लिए जरूरी है, उसका तना हो, उसकी शाखायें हो, शाखाओं में पत्ते हो, पत्तों में फूल खिले और फल लगें। मूल और फल के संबंध को समझना होगा। गरीब देशों की तरह से हमें पश्चिम की चकाचौंध में आने की आवश्यकता नहीं है। हमारे साथ इन देशों की आंखें भी खुलेंगी। हम उसमें उनकी सहायता कर सकते हैं। हमारे पास एक चिन्तन है, एक विचारधारा है, प्रगति के साधन हैं, इतना बड़ा भूखंड है, पांच-छः हजार साल की संस्कृति है, 90 करोड़ का जनबल है, पुरुषार्थ और पराक्रम की परम्परा है। हमें दृढ़ता से खड़े रहना है। सत्ता का उपयोग हमें इस कार्य के लिए करना है।
अटल जी की मान्यता रही कि भारतीय जनता पार्टी एक राष्ट्रीय विकल्प के रूप में उभरी है। हमारी बढ़ती हुई शक्ति और प्रभाव से आतंकित होकर भिन्न-भिन्न विचारों वाले हमारे इर्द-गिर्द जमघट बना रहे हैं। पहले कांग्रेस के विरुद्ध गैर कांग्रेसी हवा चलती थी। अब भाजपा के विरुद्ध एकत्रीकरण हो रहा है। यह एकत्रीकरण टिकेगा नहीं। हमें यह समझ लेना चाहिए कि यदि हमारी प्रगति में रुकावट आयेगी, जो हमारी अपनी ही कमियों और खामियों के कारण आयेगी, हमारे विरोधियों के कारण नहीं। भारतीय जनता पार्टी के साथ आज देश का भविष्य जुड़ गया है हमें बहुमत प्राप्त हो या न हो, हमारे विरोधी चाहें या न चाहें, भारतीय जनता पार्टी का भविष्य और देश का भविष्य एक-दूसरे से सम्बद्ध हो गये हैं। इस ऐतिहासिक अवसर पर हम पिछड़ जायें, हार मान जायें, छोटे-छोटे विवादों में फंस जायें तो आने वाली पीढ़ी हमें कभी क्षमा नहीं करेगी। देश की स्थिति पर और संगठन की आवश्यकता पर हम कार्यकर्ता के नाते विचार करें, कार्यकर्ता के नाते ही व्यवहार करें। हम चाहे जितनी बड़ी सत्ता हासिल कर लें या हम चाहे जितनी ऊंचाई पर चले जाएं, पर हमें और हमारे संगठन को इतनी ऊंचाई पर जिन कार्यकर्ताओं और जनता जनार्दन ने पहुंचाया, उन्हें हमें अपनी आंखों से कभी ओझल नहीं करना चाहिए। हमारी सफलता सुनिश्चित है। और आवश्यकता है चिन्तन के अनुरूप सही व्यवहार करने की।
अटल जी का प्रशिक्षण वर्ग में दिया गया उद्बोधन और उनका एक-एक वाक्य हमारे लिये आज भी प्रेरणादायक है। उनकी पुण्यतिथि पर उनके दिये गए विचारों पर यदि हम सदैव चिंतन करते रहे और सदैव चलते रहे तो न हम भटकेंगे और न ही हम देश को भटकने देंगे।
(लेखक बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं पूर्व सांसद हैं।)
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