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    भारतीय संस्कृति के आच्छादन में सभी अपने हैं

  • March 24, 2023

    – हृदयनारायण दीक्षित

    ऋतुराज बसंत मदन गंध बिखेर कर चलते बने। होली का रस रंग अभी ताजा है। अब भारतीय नवसम्वत्सर का उल्लास। यह रस गहरा है। देवी उपासना के नवरात्र उत्सवों की धूम है। भारत का मन उत्सवधर्मा हो गया है। कालरथ के घोड़ों की पगध्वनियां सुनाई पड़ रही हैं। काल पुरुष नृत्यमगन है। यह सबको नचाता है, स्वयं भी नाचता है। यह काल सबके भीतर है और बाहर से भी सबका आच्छादन करता है। ऋग्वेद में यह तीन धूरियों वाला है। पृथ्वी अंतरिक्ष और द्युलोक तीन नामियाँ हैं। अथर्ववेद के ऋषि भृगु से लेकर महाभारत के रचनाकार व्यास तक कालबोध और कालदर्शन की प्राचीन परम्परा है। काल के प्रभाव में वायु प्रवाह है। काल से ही आयु है। काल में जीवन और काल में मृत्यु। कालरथ किसी को नहीं छोड़ता। जीवन देता है, लहकाता है। जराजीर्ण करता है। जीवन का अवसान भी करता है। काल अखण्ड सत्ता है। भूत भविष्य और वर्तमान हम सबने अपनी मन तरंग में रचे हैं। भृगु ने बताया कि ज्ञानी ही कालरथ में बैठते हैं। मन काल के भीतर है। मन ही काल का अनुभव केन्द्र है। पहला संवत्सर प्रथम काल दर्शन है। यह सृष्टि की प्रथम मंगल मुहूर्त है।

    समय का जन्म हुआ है। जब तक सृष्टि नहीं, तब तक समय भी नहीं। दिक् भी पहले नहीं थे। ऋग्वेद के ऋषि की जिज्ञासा गाढ़ी है कि सबसे पहले था क्या? सृष्टि आई तो कहां से आई? कहते हैं कि ‘न असत था और न ही सत्। दिक् और आकाश भी नहीं थे। तब न मृत्यु थी और न अमरत्व। तब न रात थी और न दिन। केवल कामनाएं थीं।” ऋषि प्रश्न करते हैं “कौन जानता है कि यह सृष्टि कहां से पैदा हुई? देवता भी नहीं। देवता भी सृष्टि के बाद पैदा हुए। अनंत में बैठा इसका अध्यक्ष भी यह रहस्य जानता है या नहीं?” स्टीफन हाकिंग्स सहित तमाम आधुनिक वैज्ञानिकों ने अब तक सृष्टि को एक बिन्दु के विस्फोट से पैदा माना है। वैज्ञानिकों के अनुसार इस बिन्दु में ब्रह्माण्ड की सारी ऊर्जा व द्रव्य एक जगह थे। गहन घनत्व से अंड फूटा, गति हुई। टुकड़े केन्द्र से दूर भागे। समय उगा। वे इसे कासमिक एग अर्थात ब्रह्म-अंड भी कहते हैं।


    भौतिक विज्ञानी सम्पूर्ण विश्व को ‘कासमोस’ कहते हैं। इसी से शब्द ‘कासमिक एग’ बना। कास्मिक एग अर्थात ब्रह्म-अंड। भारतीय परंपरा संपूर्णता को ब्रह्म कहती है। यह ब्रह्म मधुमय काव्य जैसा है। अंग्रेजी में इसे ‘यूनीवर्स’ कहा गया है। यूनी-वर्स यानी संयुक्त कविता। पाश्चात्य जगत ने विश्व को लाखों खण्ड़ों का जोड़ जाना है। यूनीवर्स का अर्थ यही है। भारत ने इसे ‘एक ही सत्य – एकं सद् बताया और कहा कि इसी एक सत्य को विद्वान अनेक नाम लेकर बताते हैं। सत् एक है। वह चेतन है। जो चेतन है वही आनंद भी है। सत् चित् आनंद की यही एकात्म अनुभूति सत्य शिव और सुन्दर में प्रकट होती है। सत्य, शिव और सुंदर के प्रकटीकरण का नाम है संस्कृति। हमारे पूर्वजों ने सचेत रूप से ही सत्य, शिव और सुंदर को प्रकट किया। प्रकृति स्वयंभू है, सदा से है। संस्कृति मनुष्य का अपना सृजन है।

    प्रत्येक प्राणी आनंदरस का प्यासा है। प्रकृति आनंद से भरीपूरी है भी। हम प्रकृति के अंश हैं। गणित में अंश पूर्ण से छोटा होता है लेकिन भारतीय अनुभूति में अंश पूर्ण है। पूर्ण में पूर्ण घटाओ तो भी पूर्ण। सभी देव आनंददाता हैं। सविता सूर्य प्रत्यक्ष देव हैं। उन सविता का वरण – तत्वविर्तुवरेण्य आनंदवर्द्धन है। आनंदमगन ऋषि “सविता को सामने, पीछे, दांए और बांए के साथ ऊपर और नीचे” भी अनुभव करते हैं। भारतीय अनुभूति का ब्रह्म संपूर्ण आनंद का पर्याय है। उपनिषद् अनुभूति में “यह ब्रह्म ऊपर, नीचे, दाएं, बांए, आगे, पीछे और भीतर बाहर भी है।” भारतीय अनुभूति एकात्मवादी है। यहां अनुभूति और अभिव्यक्ति भी एक जैसी। जैसी प्रतीति, वैसी अनुभूति और वैसी ही अभिव्यक्ति। यों एकात्म/अद्वैत अनुभूति का निर्वचन संभव नहीं। वाणी उस अनुभूति केन्द्र से लौट आती है। भाषा की सीमा है। कैसे समाए यह सागर लघुपात्र में। तुलसीदास ने भी ‘कहबु कठिन, समुझब कठिन’ की लाचारी व्यक्त की थी। पहले तो जानना ही कठिन फिर जाने हुए को बताना और भी कठिन।

    प्रकृति का अन्तस् मधुरसा है और मनुष्य का भी। सत् चित् और आनंद है यह अन्तस्। सत् प्रत्यक्ष भौतिक और इहलौकिक है। चेतन अप्रत्यक्ष है लेकिन सर्वव्यापी है और विज्ञान सिद्ध भी। सत् अखण्ड सत्ता है। यहां अनेक रूप हैं। वनस्पति, पशु, कीट, पतिंग, नदी, पर्वत, वन उपवन, मनुष्य और विविध पदार्थ या प्राणी। सारे रूप, सारी ध्वनियां और सभी रस।इनका अस्तित्व अलग-अलग दिखाई पड़ता है लेकिन अन्तःकरण में सब एक हैं। ऋग्वेद में इन्द्र की सर्वाधिक स्ततियां हैं। ऋषि गाते हैं – यह इन्द्र सभी रूपों के भीतर प्रविष्ट होकर “रूपं रूपं प्रति रूपो वभूवः” है – एक इन्द्र या चेतन ही हरेक रूप में रूप रूप प्रतिरूप है। कठोपनिषद में यही बात अग्नि के लिए कही गई है। ऋग्वेद की पूरी काव्य पंक्ति ज्यों की त्यों है। केवल इन्द्र की जगह अग्नि शब्द रख दिया गया है।

    प्रत्यक्ष विभाजित दिखाई पड़ता है। इसे अविभाजित अखण्ड देखना भारतीय दर्शन की आत्यंतिक अनुभूति है। उस एक का नाम ऋग्वेद में ‘एकं सद्’ है। इन्द्र भी है और अदिति भी। इसी का नाम उपनिषदों में ब्रह्म है। यही राम, कृष्ण और शिव या देवी है। नाम महत्वपूर्ण नहीं है। भारतीय चिन्तन में सृष्टि और प्रलय बार-बार आते हैं। प्रलय में सब कुछ नष्ट नहीं होता। सृष्टि का विकास शून्य से नहीं हो सकता। ऋग्वेद में सृष्टि की पूर्व स्थिति का वर्णन है। गहन अंधकार। न दिखाई पड़ने वाली जलराशि अप्रकेत सलिल। न दिन न रात। केवल ‘एक वह’ था, दूसरा कोई नहीं। वायु भी नहीं थी, ‘वह एक’ अपनी क्षमता के बल पर सांस ले रहा था- अनादीवातं स्वस्ध्या तदेकं। फिर वह प्रकट हो गया। गति आई और गति के साथ समय। संवत्सर उगा। भारतीय अनुभूति का संवत्सर बड़ा प्यारा है। संवत्सर सृष्टि उगने की प्रथम मंगल मुहूर्त है। यह संवत्सर ही अंतर्राष्ट्रीय नवसंवत्सर है। यह कालगणना का परिणाम नहीं, कालबोध की अनुभूति है और सृष्टि उगने की प्रथम ऊषा। कालगणना इसकी अनुवर्ती है।

    डाॅ. अम्बेडकर ने लिखा कि – “हम भारतवासी आपस में बहुत लड़ते-झगड़ते हैं लेकिन एक संस्कृति सबको बांधे रखती है।” यह संस्कृति आखिरकार क्या है? क्या राजनैतिक शब्दावली वाली ‘सामासिक संस्कृति’ – कम्पोजिट कल्चर है। क्या विभिन्न विश्वासी समूहों को जोड़ गांठकर कल्पित की गई अप्राकृतिक संरचना है? वस्तुतः यह विभिन्न विचारों, तमाम आस्थाओं के प्रति सम्मान भाव रखने वाली प्राचीन वैदिक संस्कृति ही है। अथर्वा ने पृथ्वी सूक्त – अथर्ववेद में गाया है “यह पृथ्वी विभिन्न भाषाएं और विभिन्न जीवनशैली वालों को पोषण देने वाली है।” यहां अनेक बोलियां, अनेक विश्वास और अनेक रीति- रिवाज हैं। सबके प्रति प्रीतिभाव और अपनत्व ममत्व इस भूखण्ड की संस्कृति है। इसी संस्कृति के कारण हम भारत के लोग एक राष्ट्र हैं। भारतीय संस्कृति के आच्छादन में सब अपने हैं। भिन्न आस्था और विश्वास के बावजूद अपने ही। नवसंवत्सर जगत् के अस्तित्वोदय का आनंदवर्द्धन स्मरण है। सृष्टि सृजन के ऊषा काल का पुरुश्चरण- स्मरण।

    (लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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