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    ‘अलेख लेखंत, अदेश देखंत, अरस परस ते दरस जाणी’

  • December 13, 2020

    – हृदयनारायण दीक्षित

    भारत अति प्राचीनकाल से ज्ञान अभिलाषी है। गुरु गोरखनाथ की वाणी है जो लिखा नहीं जा सकता, ज्ञानी उसे लिखता है, जो देखा नहीं जा सकता, ज्ञानी उसे देखता है, जो स्पर्श में भी नहीं आता, ज्ञानी उसे स्पर्श करता है। वह स्वयं के अनुभव से न लिखे जाने योग्य, न देखे जाने योग्य, न स्पर्श किये जाने योग्य को लिखता, देखता, छूता है। उनकी वाणी का यह सूत्र- “अलेख लेखंत, अदेश देखंत, अरस परस ते दरस जाणी‘ बड़ा प्यारा है। उन्होंने कहा है कि आकाश मण्डल में औंधे मुंह वाला कुआं है। इसमें अमृत है। ज्ञानी अमृत का साक्षात्कार करता है। 

    अमरत्व की प्यास प्राचीन है। उपनिषदों में भी अमृत की प्यास बार-बार दोहराई गई है। प्रश्नोपनिषद में अमरत्व प्राप्ति का साधन प्राण शक्ति का ज्ञान बताया गया है, ‘‘जो विद्वान प्राण शक्ति को जानता है, वह अमर हो जाता है। प्राण की उत्पत्ति, स्थान, व्यापकता और वाह्य व अध्यात्मिक भेद से पाँच प्रकार स्थिति जानकर मनुष्य अमरत्व प्राप्त करता है।” यहाँ प्राण के ज्ञान का महत्व है। इससे अमृत्व मिलता है। उपनिषदों में अमरत्व की प्राप्ति के लिए सम्पूर्ण अस्तित्व को जानना, उसका ज्ञान प्राप्त करना एक उपाय है।

    ईशावास्योपनिषद् में कहते हैं जो मनुष्य असंभूति और संभूति दोनों को जानता है, वह संभूति की उपासना से मृत्यु दुख पार करता है और असंभूति की उपासना से अमरत्व प्राप्त करता है।” संसार का ज्ञान बड़ा जरूरी है। कठोपनिषद् में कहते हैं कि उस अमरत्व को जानकर मनुष्य मृत्यु से छूट जाता है। छन्दोग्योपनिषद् में नारद और सनत कुमार का संवाद है। नारद ने सभी विषयों का ज्ञान प्राप्त किया था, लेकिन उनका मन दुखी था। सनत कुमार ने उनसे कहा तुम्हारा ज्ञान शब्द वाणी तक सीमित है। वाणी, जल और बल सहित सभी शक्तियों की सीमा है। संत कुमार ने बताया कि जहां कुछ और नहीं देखता, कुछ और नहीं सुनता, कुछ नहीं जनता वह भूमा है। इसी तरह जहां इससे भिन्न देखता है, कुछ और सुनता है वह अल्प है। संपूर्णता या ब्रह्म घूमा है। यहा अमृत है। इससे अल्प में दुख है। इससे भिन्न जो अल्प है वह मरणशील है। प्रश्नोपनिषद् में प्राण को भी संपूर्णता कहा गया है, ‘‘प्राण अग्नि है। प्राण सूर्य है। प्राण मेघ है। इन्द्रिय है, वायु है, पृथ्वी है, सबकुछ है। यही अमृत है।” 

    संपूर्णता विराट है। उसका एक हिस्सा रूप वाला है। बड़ा हिस्सा अदृश्य अरूप है। साथ ही अदृश्य, अव्यक्त भाग भी है। संसार जानने योग्य है। ऋग्वेद के एक मंत्र (10.71.1) में कहते हैं कि प्रारम्भिक अवस्था में प्राचीनकाल में जिज्ञासु लोगों ने प्रकृति के रूप देखे। रूपों के नाम रखे, हम सब भी रूप और नाम मिलाकर आपस में परिचय करते हैं। लेकिन नाम पर्याप्त नहीं है। यह ज्ञान यात्रा की प्रथम सीढ़ी है। ऋग्वेद के इसी मंत्र में कहते हैं, ‘‘इसका सही ज्ञान अनुभूति में होता है और अंतःप्रेरणा से प्रकट होता है।” ज्ञान भाषा या वाणी के आधार पर ही नहीं प्राप्त होता। विराट अस्तित्व का वर्णन कठिन है। उपनिषद् के ऋषियों ने सीधे ब्रह्म का रूप और आकार नहीं बताया है। कठोपनिषद् में कहते हैं कि “वह अणु से छोटा है। महत्व से बड़ा है। वह शरीर में है, लेकिन स्वयं अशरीरी है।‘‘ यहां आत्मा या ब्रह्म का अनुमान ही किया गया है।

    केनोपनिषद् में कहते हैं कि “आँख उसे नहीं देखती है, लेकिन उसी के कारण देखती है। कान उसे नहीं सुनते हैं। लेकिन उसी के कारण सुनते है। माण्डूक्य-उपनिषद् में कहते हैं कि “वहाँ न सूर्य है, न चन्द्र। न तारे हैं न अग्नि और न विद्युत। उसी की आभा से यह सब प्रकाशमान है।” उपनिषद् में कहते हैं कि “वह गतिशील है और स्थिर भी है।” गीता लोकप्रिय ग्रंथ है। श्रीकृष्ण आत्मा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि “आत्मा को शस्त्र मार नहीं सकते। आग जला नहीं सकती है। पानी उसे भिगो नहीं सकता। हवा उसे सुखा नहीं सकती है। यहाँ सारी बातें नहीं लगाकर कही गयी हैं। ज्ञान निश्चित ही प्राप्त किए जाने योग्य है। वह मुक्तिदाता, आनन्ददाता है। लोककल्याण का उपकरण भी है। संसार के ज्ञान के साथ स्वयं के भीतर का भी ज्ञान जरूरी है। अन्तर यात्रा में दूरी बताने वाले साइन बोर्ड या मील के पत्थर नहीं होते। केवल बैचेनी और आनन्द का घनत्व साथ-साथ चलता है।

    आकाश ऋग्वेद से लेकर अबतक भारतीय चिन्तकों का महत्वपूर्ण आकर्षण रहा है। गुरु गोरखनाथ ने आकाश मण्डल में औंधे मुह का कुआं अनुभूत किया था कि आकाश में अमृत रहता है। ऋग्वेद के ऋषियों ने भी आकाश में ज्ञान तत्व के दर्शन किये थे । एक मंत्र में ऋषि कहते हैं ऋचे अक्षरे परम व्योमन। आकाश परम व्योम में ऋचा मंत्र निवास करते हैं। वहीं देव निवास है। ऋचा मंत्र जागृत लोगों के हृदय में उतरते हैं। जागृत लोगों को सामगान प्राप्त होते हैं। आकाश का मूल गुण शब्द है। आकाश प्रथमा है उसका गुण शब्द है। वायु दूसरा तत्व है। वायु दिखायी नहीं पड़ती। इनका अपना गुण स्पर्श है। इसे आकाश से शब्द गुण मिला है। इसमें दो गुण है। अग्नि तीसरे तत्व हैं। उन्हें आकाश व वायु से शब्द व स्पर्श गुण मिले हैं। उनका गुण भी ताप है। इसी तरह चौथा महाभूत जल है। इसे ऊपर के तीन तत्वों से शब्द, स्पर्श और ताप तीन गुण मिले हैं। उनका अपना गुण रस है। पृथ्वी में पाँच गुण हैं। चार ऊपर के तत्वों से मिले हैं। पाँचवा गुण गंध है। सृष्टि इसी क्रम में विकसित होती है।

    मुक्ति और मोक्ष की साधना के साथ राष्ट्र जीवन को भी हर तरह से सक्षम समृद्ध बनाने की आवश्यकता रहती है। सामाजिक विकास क्रम में शुभ और अशुभ एक साथ आते हैं। आज का भारत पूर्वजों ऋषियों, योगियों, संतों के सचेत कर्म का परिणाम है। सामाजिक विकास के क्रम में समाज में छुआछूत, जाति-पाति जैसी कुरीतियाँ भी होती हैं। महापुरुष समाज में हस्तक्षेप करते हैं। ऐसी कुरीतियों को दूर करने के लिए अनेक महानुभाव लगातार काम करते रहे हैं। यूरोप के देशों में भारतीय दर्शन पर भाववादी होने का आरोप लगाया था। लेकिन यहाँ भौतिक और अध्यात्म साथ-साथ है। जीवन में भौतिक और अध्यात्मिक दोनों की भूमिका है। भौतिक प्रत्यक्ष है इस प्रत्यक्ष के भीतर अध्यात्म है। गीता में कृष्ण ने स्वभाव को अध्यात्म बताया है। भारतीय चिन्तन में दोनों पर जोर है। ईशावास्योपनिषद यजुर्वेद का 40वाॅं अध्याय है। यहाँ विद्या और अविद्या साथ-साथ हैं। दोनों का बोध जरूरी है। अविद्या के उपासक को सांसारिक कष्ट नहीं होता है और विद्या के उपासक को ज्ञान मिलता है। दोनों की साधना जरूरी है। ईश्वर और संसार दोनों की साधना दुख विनाशक है।

    (लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं।)

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