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    कृषि विधेयकों पर सियासी तकरार

  • September 19, 2020

    – सियाराम पांडेय ‘शांत’

    केंद्र सरकार ने लोकसभा में मानसून सत्र के दौरान तीन कृषि विधेयक किसान उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक, मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा पर किसान (सशक्तीकरण और संरक्षण) समझौता विधेयक तथा आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020 क्या पेश किए, देश की राजनीति में भूचाल आ गया। सत्ता पक्ष जहां इसे कृषक हितकारी और परिवर्तनकारी बता रहा है, वहीं विपक्ष इसे खेत-खलिहान को बर्बाद करने वाला काला विधेयक करार दे रहा है।

    इन विधेयकों के बहाने पक्ष-विपक्ष में अपने को कृषक हितैषी बताने की होड़ लगी हुई है। केंद्र सरकार को विपक्ष ही नहीं, अपने सहयोगी दलों का भी विरोध करना पड़ रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तो यहां तक कहना पड़ गया है कि कुछ लोग किसानों को गुमराह करने में जुट गए हैं। इस मुद्दे पर कांग्रेस का कहना है कि भाजपा की सात पुश्तें भी किसानों का भला नहीं कर सकतीं। यह सबकुछ इस अंदाज में कहा गया है, जैसे कांग्रेस ने किसानों का संपूर्ण हित कर दिया हो।

    कृषि क्षेत्र में सुधारों को आगे बढ़ाने के लिहाज से मोदी सरकार ने 5 जून 2020 को तीन अध्यादेश जारी किए थे। उन्हें कानूनी जामा पहनाने के लिए उनका विधेयक रूप में संसद में पेश किया जाना जरूरी था लेकिन जिस तरीके से विपक्ष और सरकार के सहयोगी दल इन विधेयकों को मुखालफत कर रहे हैं, उससे इन विधेयकों के भविष्य पर खतरा मंडराता नजर आ रहा है। अपने पहले कार्यकाल में भी मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लेकर आई थी लेकिन लगातार तीन बार इस अध्यादेश को आगे बढ़ाने के बाद भी सरकार उसे कानून का रूप नहीं दे सकी। विरोध के समक्ष उसे घुटने टेकने पड़े।

    सरकार का मानना है कि उक्त विधेयकों के कानून बनने से किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य मिल सकेगा। उन्हें निजी निवेशक मिल सकेंगे। प्रौद्योगिकी सुलभ हो सकेगी। सरकार का तर्क है कि उक्त विधेयक किसानों को उनकी उपज के लिए लाभकारी मूल्य दिलाएंगे। कृषि उपज के बाधा मुक्त व्यापार को सक्षम बनाएंगे। किसानों को अपनी पसंद के निवेशकों के साथ जुड़ने का मौका प्रदान करेंगे लेकिन कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी का मानना है कि कानून किसानों व मजदूरों के शोषण के लिए बन रहे हैं। उन्हें यह सब जमींदारी का नया रूप लगता है। प्रधानमंत्री के कुछ मित्रों को वे जमींदार के रूप में देख रहे हैं। उनका मानना है कि कृषि मंडी हटी, देश की खाद्य सुरक्षा मिटी। पंजाब के कांग्रेस सांसदों गुरजीत सिंह औजला, डॉ. अमर सिंह, रवनीत बिट्टू और जसबीर गिल ने संसद परिसर में कृषि संबंधी तीनों विधेयकों की न केवल प्रतियां जलाईं बल्कि यह आरोप भी लगाया कि इन विधेयकों से किसान खत्म हो जाएंगे और प्रदेशों की आय का एक स्रोत खत्म हो जाएगा।

    लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी को लगता है कि मोदी सरकार बाहुबली है और वह कृषि क्षेत्र, किसानों, खेतिहर मजदूरों और मंडियों के खिलाफ काला अध्याय लिख रही है। उन्हें लगता है कि ये कानून खेती का भविष्य खत्म कर देंगे। किसान अपनी फसल को देश में कहीं भी बेच सकता है जैसे मोदी सरकार के दावे में भी उन्हें सफेद झूठ नजर आता है। मंडियां खत्म होते ही अनाज-सब्जी मंडी में काम करने वाले लाखों-करोड़ों मजदूरों, आढ़तियों, मुनीम, ढुलाईदारों, ट्रांसपोर्टरों, शेलर आदि की रोजी-रोटी और आजीविका अपने आप खत्म हो जाएगी। कृषि विशेषज्ञों के हवाले से उन्होंने कहा है कि अध्यादेश की आड़ में मोदी सरकार असल में शांता कुमार कमेटी की रिपोर्ट लागू करना चाहती है, ताकि एफसीआई के माध्यम से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद ही न करनी पड़े और सालाना 80 हजार से एक लाख करोड़ रुपये की बचत हो। इसका सीधा प्रतिकूल प्रभाव खेत-खलिहान पर पड़ेगा। इन विधेयकों के माध्यम से किसान को ठेका प्रथा में फंसाकर उसे अपनी ही जमीन में मजदूर बना दिया जाएगा।

    शिरोमणि अकाली दल की नेता और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने संसद में पेश किये गये कृषि से संबंधित दो विधेयकों के विरोध में बृहस्पतिवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया और किसानों की बेटी-बहन के तौर पर उनके साथ खड़े होने पर गर्व जताया है। अच्छा होता कि वे अपना इस्तीफा 5 जून, 2020 को ही देतीं तो पंजाब के किसानों के बीच उनका मान और बढ़ जाता।

    शिरोमणि अकाली दल नेता सुखबीर सिंह बादल ने कहा है कि सरकार ने इन विधेयकों को पेश करते वक्त सहयोगी दलों को विश्वास में नहीं लिया। अगर यह विधेयक कानून बन जाएंगे तो उनकी 50 साल की तपस्या बर्बाद हो जाएगी। उन्होंने आरोप लगाया कि कांग्रेस का इस मुद्दे पर दोहरा मानदंड है और 2019 के लोकसभा चुनाव तथा 2017 के पंजाब विधानसभा चुनाव में उसके घोषणापत्र में एपीएमसी अधिनियम को खत्म करने का उल्लेख था। इन विधेयकों का पंजाब के 20 लाख किसानों और कृषि क्षेत्र के 15-20 लाख मजदूरों पर प्रभाव पड़ेगा। कांग्रेस के आरोपों को खारिज करते हुए उन्होंने कहा है कि शिरोमणि अकाली दल ने कभी भी यू-टर्न नहीं लिया। पंजाब में लगातार सरकारों ने कृषि आधारभूत ढांचा तैयार करने के लिए कठिन काम किया लेकिन यह अध्यादेश उनकी 50 साल की तपस्या को बर्बाद कर देगा।

    केंद्रीय खाद्य प्रसंस्करण मंत्री हरसिमरत कौर बादल मोदी सरकार में अकाली दल की एकमात्र प्रतिनिधि हैं। अकाली दल, भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी है। कांग्रेस ने कृषि संबंधी विधेयकों के विरोध में हरसिमरत कौर बादल के केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने को नाटक करार देते हुए सवाल किया है कि शिअद ने मोदी सरकार से समर्थन वापस क्यों नहीं लिया? उन्हें चटनी-अचार मंत्री तक कहा जा रहा है। इस तरह की टिप्पणी किसी महिला मंत्री के लिए न तो ठीक है और न ही इस देश का संविधान किसी को भी ऐसा करने की इजाजत देता है। कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने यह भी कहा कि हरियाणा के उप मुख्यमंत्री और जननायक जनता पार्टी के नेता दुष्यंत चौटाला को भी कम से कम मनोहर लाल खट्टर सरकार से इस्तीफा देना चाहिए। मतलब वह एक तीर से कई निशाने करना चाहते हैं। हरियाणा विधानसभा चुनाव में हारी बाजी को अपने पक्ष में करना चाहते हैं।

    सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव को लगता है कि अगर किसान और जवान भाजपा से नाराज हो गई तो इस सरकार के दिन केवल चार हो जाएंगे। यानी उसकी उम्र घट जाएगी। किसानों, नौजवानों को भड़काने के हरसंभव प्रयास हो रहे हैं। अरविंद केजरीवाल भी इन विधेयकों पर ऐतराज जता चुके हैं लेकिन सच्चाई तो यही है कि इन विधेयकों में किसान के खिलाफ कुछ भी नहीं है। नुकसान होगा तो मंडियों का, राज्य की कर व्यवस्था का, किसान को तो पूरा देश एक बाजार बनकर उभरेगा और वह अपने उत्पादों का सही दाम पा सकेंगे। इससे उनकी आमदनी बढ़ेगी। अगर उक्त विधेयक कानून बनते हैं और उनका सही ढंग से क्रियान्वयन होता है तो इससे इस देश के किसानों को लाभ ही होना है लेकिन विपक्ष केवल उत्तर भारत के किसानों की बात कर रहा है, वह किसानों के बीच भी विभाजन रेखा खींच रहा है। मंडी व्यवस्था का लाभ कितने लघु एवं मध्यम किसानों को मिलता है, यह भी किसी से छिपा नहीं है। छोटी जोत के किसान अपने परिवार के भरण-पोषण भर अनाज उपजा लें, इतना ही बहुत है।

    कांग्रेस को यह नहीं भूलना चाहिए कि इस तरह के प्रस्ताव मोरारजी देसाई सरकार में भी आ चुके हैं। सवाल यह है कि कृषि को उद्योग का दर्जा देने में किसी भी राजनीतिक दल और सरकार को क्यों आपत्ति होना चाहिए? विपक्षी दलों को भी इस बाबत सोचना चाहिए। किसान पहले से ही परेशान हैं। उन्हें और परेशान किया जाना कहां तक न्यायसंगत है। किसानों को उत्तर, दक्षिण, पूरब-पश्चिम में बांटना तो ठीक नहीं है। इससे बचने में ही अन्नदाताओं का कल्याण है।

    (लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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