– डॉ. अजय खेमरिया
भारत के दिवंगत सीडीएस जनरल विपिन रावत ने एक बार कहा था कि देश को ढाई मोर्चे पर युद्ध लड़ना पड़ रहा है।एक मोर्चा चीन, दूसरा पाकिस्तान और आधा घर के अंदर सिविल सोसाइटी के भेष में सक्रिय माओवादी, नक्सलवादी, एनजीओवादी, एकेडेमिक्स, एक्टिविस्ट, वकील, मीडिया और एक बड़ा वर्ग सेक्यूलर राजनीतिज्ञों का।असंदिग्ध रूप से भारत इस ढाई मोर्चे पर युद्धरत है। असल में भारत की संसदीय राजनीति और प्रशासन एक संविधानेत्तर आन्दोलनजीवी फौज से भी जूझ रहा है। लेफ्ट लिबरल विचारधारा ने जिस अभिजन वर्ग को अपने प्रभाव में ले रखा है उसने भारत विरोधी एजेंडे पर काम करते हुए शासन,राजनीति और समाज के एक वर्ग की अधिमान्यता भी हासिल कर रखी है। कभी कृषि विशेषज्ञ, कभी राजनीतिक विश्लेषक, कभी मानवाधिकार कार्यकर्ता, कभी फैक्ट चेकर, कभी विधिवेत्ता हर भेष में हमें यह नजर आते हैं।हर उस बदलाव का विरोध करना इनका मूल धर्म है जो भारत में सामाजिक बदलाब की बुनियाद रखता है।भारत का आत्मगौरव भाव, बहुसंख्यक चेतना, उसकी अस्मिता,संस्कृति और लोकपरंपरा, अल्पसंख्यकवाद के आगे इनके लिए नफरत और हिकारत के विषय है। झूठ और सफेद झूठ की सीमा तक नैरेटिव गढ़ना इनका एकमेव एजेंडा हैं। दुर्भाग्य से स्वाधीनता के बाद इस गिरोहबंदी को सत्ता प्राधिकार से भरपूर संरक्षण और अंध समर्थन प्राप्त रहा है। तीस्ता के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो कुछ कहा है उसे स्वयंभू राष्ट्रीय चरित्र की मीडिया में कहां और कितनी जगह मिली है?
इसका तथ्यान्वेषण करें तो गृहमंत्री अमित शाह की बात प्रमाणित होती है जिसमें वे भारत विरोधी त्रिगुट के हिस्से के तौर पर मीडिया को शामिल करते हैं। सच्चाई यह है कि तीस्ता इस गठजोड़ की प्रतिनिधि भर है। देश में ऐसे एनजीओ और उनके सरपरस्त भरे पड़े हैं। यूपीए सरकार के समय ताकतवर सामाजिक कार्यकर्ता रहे पूर्व ब्यूरोक्रेट हर्ष मन्दर इस समय देश से फरार चल रहे हैं। उनके जलवे किसी से छिपे नहीं हैं। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में बैठकर हर्ष मन्दर ने देश भर में अपना नेटवर्क खड़ा किया। बगैर अनुमति के बीसियों चिल्ड्रन होम खोलकर उनमें रहने वाले अनाथ बच्चों को नागरिकता संशोधन कानून के विरुद्ध धरनों में बिठाया गया। एनसीपीसीआर(राष्ट्रीय बाल आयोग) की जांच में अवैध धनशोधन प्रमाणित हुआ। बच्चों के कन्वर्जन से लेकर अराजकता की सीमा तक मानस बनाने के मामले सामने आ चुके हैं। फोर्ड फाउंडेशन, एमनेस्टी इंटरनेशनल, ग्रीन पीस, डॉन वास्को, मिरेकल,एक्शन एड, केन असिस्ट, उदयन केयर, वर्ल्ड विजन, बोन्दी मुक्ति संगठन, हम, जकात, सबरंग, हासमी ट्रस्ट, सद्भावना,कंपेशन इंटरनेशनल, यंग मैन्स, पीएफआई, नव सर्जन ट्रस्ट, पीपुल्स वाच,अनहद,कबीर, लायर्स कलेक्टिव जैसे सैकड़ों एनजीओ हैं जिनके विरुद्ध पिछले आठ सालों में ऐसी गंभीर शिकायतें सरकार के पास आई हैं। यह शिकायतें भारत में अराजकता निर्मित करने के मंसूबों को प्रमाणित करती हैं।
सच्चाई यह है कि देश में एनजीओवाद की जमीन पर ही सेक्यूलर राजनीति खड़ी रही है। इसका बौद्धिक दायरा मीडिया से लेकर राजनीतिक दलों के नीति निर्माण, विश्विद्यालय और प्रशासन तक स्वयंसिद्ध है।सोनिया गांधी की अध्यक्षता में यूपीए की केंद्र सरकार को गवर्न करने वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद असल में एनजीओवाद के चरम प्रभाव का उदाहरण ही था। इस परिषद में अरुणा राय, हर्ष मन्दर, ज्या द्रेज, दीप जोशी, मिराई चटर्जी, अनु आगा, फराह नकवी, एके शिवकुमार जैसे चेहरे शामिल थे जो अपने लेफ्ट लिबरल एजेंडे के लिए जाने जाते हैं। बुनियादी रूप से यह समझने की आवश्यकता है कि एनजीओ एक राजनीतिक ताकत हैं जिसका उद्देश्य भारत में उस विदेशी एजेंडे को बरकरार रखना है जिसके अंतर्गत यहां समाज में अल्पसंख्यकवाद, माओवाद, नक्सलवाद और आतंकवाद को तुष्टिकरण की आड़ में तार्किक और न्यायिक साबित किया जाता रहे। भारत के अभ्युदय या सशक्तिकरण की संभावनाओं को सिविल सोसायटी की आड़ में हमेशा कमजोर बनाया रखा जाए। झूठ और मिथ्या भय के नाम पर समाज में अराजकता की सीमा तक जाकर अपने नियोजित एजेंडे को लागू करना एनजीओवाद का मूल धर्म है। इसके लिए भारत से बाहर फंडिंग की एक पूरी आर्थिकी सत्तर साल से सक्रिय है। देश के अंदर सेक्यूलर राजनीति ने इसे अपने सीने से कंगारू के बच्चों की तरह चिपकाकर सदैव संरक्षण प्रदान किया।
इस एनजीओवाद के विरुद्ध मोदी सरकार ने बेशक बहुत सख्त कदम उठाए हैं। विदेशी फंड हांसिल करने के लिए एफसीआरए में संशोधन किए। इस कानून में संशोधन से पहले वर्ष 2010 से 2019 के बीच विदेशी चंदे की आमद दोगुनी दर से बढ़ी पाई गई। 2016 -17 और 2018-19 में विदेशों से 58 हजार करोड़ भारतीय एनजीओ के खातों में दर्ज हुआ। अकेले अमेरिका से यह आंकड़ा तीन खरब और फ्रांस से दो अरब दर्ज है।करीब 22500 एनजीओ ऐसे रहे हैं जो इस कानून में संशोधन से पहले इस्लामिक देशों, कनाडा, फ्रांस, अमेरिका, कतर, टर्की जापान, चीन जैसे देशों से चंदा हांसिल करते रहे हैं। सरकार ने करीब 21 हजार ऐसे एनजीओ के लाइसेंस निरस्त किये हैं। इसके बाबजूद देश मे पंजीकृत 33 लाख एनजीओ में से महज 10 फीसद ही अपने हिसाब किताब सरकार को साझा करते रहे हैं।समझा जा सकता है कि देश में एनजीओ का नेटवर्क किस सशक्त संरक्षण के साथ खड़ा हुआ है। प्रधानमंत्री जिन आंदोलनजीवियों की ओर इशारा करते हैं असल में वह एनजीओवाद का ही एक संस्करण भर है।
तीस्ता अकेली भर नहीं है। इस खेल की खिलाड़ी, असल में इसी एनजीओवाद से निकलकर आम आदमी पार्टी संसदीय व्यवस्था को कब्जाने का एक उदाहरण भी है जो भविष्य के खतरनाक संकेतक भी है। अरविंद केजरीवाल भी मूलतः इसी फौज के एक चतुर खिलाड़ी हैं। जिस समय अरुणा राय, सोनिया गांधी के साथ मिलकर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में काम कर रही थीं उसी दौर में अरविंद केजरीवाल अरुणा के साथ मिलकर सरकारी सेवा में रहते हुए परिवर्तन नामक एनजीओ को खड़ा कर रहे थे। 2006 में ही उन्हें फोर्ड फाउंडेशन और रॉकफेलर ब्रदर्स फंड ने रेमन मैग्सेसे पुरस्कार दिलवा दिया। उभरते नेतृत्व के नाम पर केजरीवाल को यह पुरस्कार किस काम के लिए मिला, इसे आज उनकी राजनीतिक स्थिति के साथ आसानी से समझा जा सकता है। यानी एक पूरा वैश्विक इको सिस्टम है जो एनजीओ के माध्यम से भारत में संसदीय राजनीति को न केवल प्रभावित करता है बल्कि उसमें अपने प्यादे भी फिट कर रहा है। रैमन से मिले धन से अरविंद ने पब्लिक कॉज रिसर्च फाउंडेशन एनजीओ बनाया। इसी बीच वे मनीष सिसौदिया के एनजीओ कबीर के साथ मिलकर अरविंद ने लेफ्ट लिबरल एजेंडे पर काम शुरू कर दिया। कबीर का गठन अगस्त 2005 में हुआ लेकिन फोर्ड फाउंडेशन ने उसे जुलाई 2005 से ही फंड देना शुरू कर दिया था।
कबीर को 2005 में 1 लाख 72 हजार डॉलर एवं 2008 में 1लाख 97 हजार अमेरिकी डॉलर की सहायता मिली।कबीर और परिवर्तन को नीदरलैंड के एनजीओ हिवोस से भी 2008 और 2012 के मध्य 13 लाख यूरो की सहायता मिली। अमेरिका का एक और एनजीओ है ‘आवाज’। इस एमजीओ ने जनलोकपाल आंदोलन समेत दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए भी केजरीवाल कम्पनी को फंड उपलब्ध कराया। ‘आवाज’ ने सीरिया, मिश्र, लीबिया में भी वहां की सरकारों को अस्थिर करने के लिए स्थानीय एनजीओ, एकेडेमिक्स, पत्रकारों को बड़ी आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई थी। यूपीए सरकार के कार्यकाल में 2004 से 2008 तक भारत में 40 हजार करोड़ की रकम लेफ्ट लिबरल प्रभाव वाले एनजीओ को हासिल हुई थी।
एनजीओवाद के स्टेक होल्डर्स के रूप में मीडिया के बड़े वर्ग को भी भारत में इसी तर्ज पर फंडिंग की जाती रही है। बदले में इन एनजीओ के गढ़े जाने वाले नैरेटिव को मीडिया समाज मे स्थापित करने का काम करता है। अमेरिका और यूरोपीय देशों द्वारा गठित एक संस्था ‘पनोस’ सामुदायिक विकास की आड़ में फोर्ड फाउंडेशन से मिलने वाले धन को भारत समेत अन्य देशों में मीडिया पर खर्च करता है। राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकारों के संबंध ‘पॉपुलेशन काउंसिल’ जैसी संस्थाओं से जगजाहिर हैं जिसे अमेरिकी संस्था ‘रॉकफेलर ब्रदर्स’ फंडिंग करती है। यह संस्था ‘फोर्ड फाउंडेशन’के साथ मिलकर मैग्सेसे अवार्ड मैनेज करती है। रवीश कुमार जैसे पत्रकार अगर इसके लिए चयनित होते हैं तो इस पूरे एनजीओ सिस्टम को आसानी से समझा जा सकता है। राणा अयूब को जिस तरह न्यूयार्क टाइम्स आगे रखकर भारत विरोधी एजेंडे पर काम करता है उसे शाहीन बाग और कोविड की दुष्प्रेरित रिपोर्ट से समझना कठिन नहीं है।
किसान आंदोलन, नागरिकता संशोधन बिल, अग्निपथ योजना से लेकर हिजाब और अनुच्छेद 370 पर मीडिया के चिह्नित बड़े वर्ग का भड़ाकाऊ रुख इसी एनजीओ इको सिस्टम से परिचालित है। वस्तुतः भारत में राजनीति और प्रशासन से लेकर न्यायालय तक एनजीओवाद की गहरी जकड़ में फंसे हुए हैं।अमेरिकी, यूरोपियन और अरब एजेंडे पर काम करने वाला एक सशक्त बौद्धिक तंत्र आज भी हर मोर्चे पर सक्रिय है।राजनीति में आम आदमी पार्टी से लेकर जातिवादी और पारिवारिक क्षेत्रीय दलों को इस इको सिस्टम ने अपना स्थानीय टूल बना रखा है। वैश्विक रूप से इसके वित्तपोषण पर जैसे ही मोदी सरकार ने चोट की तो यह वर्ग देश में सरकारी नीतियों के विरुद्ध आम आदमी को अराजकता की ओर उकसाने में लगा हुआ है। सरकार ने एनजीओवाद की बुनियाद पर कानूनी प्रहार करके इस गिरोहबंदी को तोड़ने का काफी कुछ प्रयास किया है लेकिन सच्चाई यह है कि एनजीओवाद भारत मे यत्र-तत्र सर्वत्र अपनी जड़ें आज भी जमाए हुए है।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
©2024 Agnibaan , All Rights Reserved