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    तालिबानी नहीं, अफगानियों की चिंता

  • October 20, 2021

    – डॉ. प्रभात ओझा

    अफगानिस्तान पर एक अंतरराष्ट्रीय स्तर की बातचीत बुधवार 20 अक्टूबर को होने जा रही है। बैठक रूस ने बुलाई है और उसमें अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज तालिबान भी रहेगा। रूस ने भारत के साथ इस बातचीत में अमेरिका, पाकिस्तान और चीन को भी बुलाया है। दरअसल, अफगानिस्तान में इस साल 15 अगस्त को तालिबान के कब्जे के बाद उसके पड़ोसी अथवा उसके साथ अपने हित जोड़े रखने वाले देशों की चिंता बढ़ गई है। अफगानिस्तान में मानव अधिकार, महिला सुरक्षा और लोकतंत्र तो सबसे बड़ा मसला है ही।

    ज्ञातव्य है कि इसी बीच भारत ने भी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार स्तर की एक बैठक बुलाने की योजना को अंतिम रूप दिया है। इसके लिए पाकिस्तान को भी न्योता भेजा गया है। बैठक हमारे एनएसए अजीत डोभाल की अध्यक्षता में होगी और इसमें रूस, चीन, ईरान, ताजिकिस्तान और उजबेकिस्तान भी शामिल होंगे। अफगानिस्तान के सवाल पर विभिन्न स्तर की बातचीत का यह सिलसिला नया नहीं है। इस पर भारत की चिंता भी समझी जा सकती है। सत्ता पर तालिबान के आने के साथ ही 16 अगस्त को एक हफ्ते के अंदर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने दूसरी बार बैठक की। उस बैठक में भी भारत ने कहा था कि वहां हिंसा रोकने और शांति स्थापना के लिए सभी देश मिलजुलकर हर संभव कदम उठाएं। भारत की चिंता यह भी रही कि अफगानिस्तान फिर से आतंकवादियों के लिए पनाहगार न बन जाय।

    अफगानिस्तान पर भारत की चिंता को समझा जा सकता है। भारत ने तब से हाल में सम्पन्न जी-20 की बैठक तक अपनी गंभीरता दिखाई है। उसे क्रमशः इस तरह देखा जा सकता है- नंबर एक कि भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देने में शामिल पाकिस्तान जैसा पड़ोसी दुनिया में आतंकवाद के खूंखार चेहरे तालिबान के करीब है। दो- कि भारत की सीमाओं पर अशांति का कारण बने चीन की कई परियोजनाएं अफगानिस्तान में शुरू और पूरी हो सकती हैं। वहां चीन का बहुत अधिक प्रभाव भारतीय हितों और वहां हमारे निवेश की प्रगति में बाधक ही होगा।

    तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण बिंदु यह कि अफगानिस्तान में शांति स्थापना ही वहां के नवनिर्माण में पहले से ही लगी हमारी अपार धनराशि के सुरक्षित रहने और उससे हमें भी लाभ की गारंटी होगी। पाकिस्तान को छोड़ भारत सहित अन्य देश भी यही चाहेंगे। पाकिस्तान को इस कदर दरकिनार करने का कारण हमारे देश भारत से उसकी परंपरागत खुंदक भर नहीं है। सच यह है कि भारत में अशांति के लिए वह अपने देश में संरक्षित आतंकी ठिकानों के साथ अब अफगानिस्तान की तरफ भी उम्मीद की नजरों से देखने लगा है।

    हालांकि फिलहाल के अफगानी हुक्मरानों में से कई ने बार-बार कहा है कि भारत के साथ हमारे रिश्ते पाकिस्तान के हिसाब से तय नहीं होंगे। हक्कानी नेटवर्क जैसे खुंखार संगठन के प्रमुख अनस हक्कानी ने तो यह कहकर पाकिस्तान को झटका ही दे दिया कि कश्मीर हमारे अधिकार क्षेत्र का हिस्सा नहीं है। हक्कानी ने साफ तौर पर कहा कि हम इस मामले से दूर ही रहेंगे।

    आतंकी संगठन तालिबान अब अफगानिस्तान की सच्चाई बन चुका है। इसके साथ यह भी सच्चाई है कि अब वह विद्रोही नहीं, शासक भी है। उसे आटे-दाल के भाव की चिंता भी करनी होगी। अफगानिस्तान की संरचनात्मक ही नहीं, आर्थिक ढांचा भी चरमरा गया है। लोगों की रोज की जरूरतों को भी तालिबान को पूरा करना होगा। स्वाभाविक है कि तालिबान भी 20 अक्टूबर की बातचीत को खासा महत्व देगा। वह दुनिया के देशों के साथ बेहतर रिश्ता और उनकी मान्यता की कोशिश कर रहा है। ऐसे में तालिबान की नस दबी हुई है। उम्मीद है कि वह समझदारी से काम लेगा।

    बैठक के आयोजक रूस ने भी अफगानिस्तान के सहयोग की इच्छा जताई है। इसके बावजूद वह तालिबान सरकार को मान्यता देने की जल्दी में नहीं है। अभी तक उसने तालिबान के आतंकवादी संगठन होने से अपनी राय में कोई परिवर्तन नहीं किया है। इस मुद्दे पर भारत ही नहीं, अन्य कई देशों का रुख भी रूस की ही तरह है। उधर, अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने भी पिछले दिनों कहा था कि अफगानिस्तान में पाकिस्तान की सक्रिय भूमिका रही है। ऐसे में अमेरिका ने भारत के साथ मजबूत साझेदारी की बात कही है। एकीकृत सोवियत संघ के दौर में रूस भी अफगानिस्तान के अंदर सबसे खराब दौर से गुजर चुका है। अमेरिका तो अभी हाल ही में वहां से बाहर आया है।

    इसका मतलब यह नहीं कि रूस और अमेरिका अपने खराब अनुभव से अफगानिस्तान से किनारा कर लेंगे। कम से कम अफगानिस्तान की चिंता करती बैठकों से तो यह पता चलता है। निश्चित ही भारत जैसे देश का हित भी इसी में है कि अफगानिस्तान के लिए इन दोनों की कोशिशों के साथ रहे। यहां चिंता तालिबान की नहीं, अफगानी अवाम की करनी है। अलग बात है कि बैठकों के जरिए तालिबान को भी शांति से सरकार चलाने के गुर सीखने के मौके मिलेंगे। अपने लोगों के लिए उसे दुनिया की बात सुननी होगी, फिलहाल ऐसी उम्मीद करने में कोई हर्ज भी नहीं है।

    (लेखक, हिन्दुस्थान समाचार के न्यूज एडिटर हैं।)

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