• img-fluid

    आचार्य विनोबा भावेः मानवीय चेतना के अभ्यासी संत

  • September 11, 2020

    विनोबा जी की 125 वीं जयंती

    – गिरीश्वर मिश्र

    एक ओर दुःस्वप्न जैसा कठोर यथार्थ और दूसरी ओर कोमल आत्म-विचार। दोनों को साथ लेकर दृढ़तापूर्वक चलते हुए अनासक्त भाव से जीवन के यथार्थ से जूझने को कोई सदा तत्पर रहे, यह आज के जमाने में कल्पनातीत लगता है। परंतु ‘संत’ और ‘बाबा’ के नाम से प्रसिद्ध भारतीय स्वतंत्रता की गांधी-यात्रा के अनोखे सहभागी, शांति के अग्रदूत बिनोवा भावे की यही व्याख्या हो सकती है। वे मूलतः देशज चिंतक थे जिन्होंने स्वाध्याय और स्वानुभव के आधार पर अपने विचारों का निर्माण किया था।

    विनोबा जी का गहरा सरोकार अध्यात्म से था पर उनका अध्यात्म जीवंत और लोक-जीवन से जुड़ा था। वे अपनी अध्ययन-यात्रा के दौरान विभिन्न धर्म-परम्पराओं के सिद्धांतों और अभ्यासों से परिचित होते रहे। अनेक भाषाएँ सीखीं और साधारण जीवन का अभ्यास किया। उनकी अविचल निष्ठा लौकिक धर्मों और उनके अनुष्ठानों से ऊपर उठ कर निखालिस मानुष सत्य के प्रति थी, जिसकी उन्होंने न केवल पहचान की बल्कि बहुत हद तक खुद जीवन में उतार भी सके थे। वे आजीवन भारत के शाश्वत और सार्वभौम महत्व के विचारों को सहज रूप में सबसे साझा करते रहे। ‘जय जगत’ ही उनका नारा था। भूदान के लिए पूरे देश में पदयात्रा की और गरीबों के लिए व्यापक स्तर पर भूमि का प्रबंध किया। और तो और यह सब करने का आधार भी हृदय-परिवर्तन था, न कोई जोर-जबर्दस्ती।

    सोचना और सोच के अनुसार कार्य कर पाना जीवन की बड़ी चुनौती है, इस महापुरुष ने बड़ी सहजता से ऐसा कर दिखाया था। विनोबा जी अपनी सीमा पहचानते थे। बड़ी सादगी से गहरे सच को आत्मसात कर व्यवहार में लाने की हिम्मत और साहस के लिए प्रलोभनों के आकर्षण से बचना बेहद जरूरी है। विनोबा जी ने इसे अपने जीवन में बखूबी साधा था। उनका स्वानुभूत विचार था कि सत्य का ज्ञान सदा अपर्याप्त होगा। जाना जा रहा सत्य सदा अधूरा यानी अनंतिम ही होगा। यहीं वह अध्यात्म और विज्ञान को एक धरातल पर देखते हैं। वह एक विरक्त संन्यासी की दृष्टि से व्यक्तिगत आध्यात्मवाद को स्वार्थ का ही एक रूप पाते हैं और सामूहिक साधना की बात को आगे बढ़ाते हैं। स्वावलंबन और सहकार के वे पक्षधर थे। वे बार-बार चेताते रहते हैं कि व्यक्ति का निजी मन बांधता है और सामूहिक साधना में विघ्न-बाधायें आती हैं।

    विनोबा जी सभी प्रचलित धर्मों के आधार की ईमानदारी से तलाश करते हुए सबमें व्याप्त मौलिक एकता पाते हैं। वे सभी धर्मों की ओर तटस्थ बुद्धि से देखते थे। उनके प्रिय विचार हैं- साम्य योग, समन्वय, सर्वोदय और सत्याग्रह। ये सब मिलकर उनके प्रिय जीवन-सूत्र को आकार देते हैं। वे आध्यात्मिक पंच निष्ठा की बात करते हैं। ये निष्ठाएँ हैं- निरपेक्ष नैतिक मूल्यों में श्रद्धा, सभी प्राणियों में एकता और पवित्रता, मृत्यु के उपरांत जीवन की अखंडता, कर्म विपाक और समस्त विश्व में व्यवस्था की उपस्थिति की अवधारणा। वे खुले शब्दों में घोषणा करते हैं कि मनुष्य के आचरण की कसौटी है कि समष्टि के लिए वह किस हद तक उपयोगी साबित हो पाता है। वे अर्थ-शुचित्व (धन-संपत्ति कि पवित्रता) पर बहुत बल देते थे। यानी व्यवहार में अस्तेय (चोरी न करना) और अपरिग्रह (अपने लिए आवश्यकता से अधिक चीजों को न इकट्ठा करना) पर बल देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि इनकी उपलब्धि सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलने पर ही मिल सकती है। उनके विचार में अर्थ-शुचित्व की पद्धति या मार्ग अस्तेय के पालन में है और उसकी मात्रा अपरिग्रह द्वारा निर्धारित होती है। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि संपत्ति मनुष्य के नैतिक-आध्यात्मिक विकास के मार्ग में रोड़ा है। वे उत्पादन की प्रक्रिया को महत्वपूर्ण मानते हैं क्योंकि वह सभी की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति, रोजगार और आत्मिक विकास में सहायक होती है।

    विनोबा जी ने जीवन शैली और अर्थ नीति के बीच गहरा रिश्ता पहचाना था। उनका विचार है कि स्वस्थ जीवन के लिए जरूरी वस्तुएं तो प्रचुर मात्र में होनी चाहिए परन्तु निरर्थक वस्तुओं का उत्पादन और संग्रह कदापि नहीं होना चाहिए। लोभ और संग्रह सुख-शांति के सबसे बड़े शत्रु हैं। वह अनावश्यक वस्तुओं को जीवन में एकत्र करने के सख्त खिलाफ हैं। उनकी दृष्टि में कृत्रिम जरूरतों के लिए उत्पादन करते रहने से मात्र पर्यावरण-प्रदूषण और पारिस्थितिकीय असंतुलन ही पैदा होता है। उनकी सोच आज का एक कटु यथार्थ है। आज देश के छोटे-बड़े सभी शहर अनियंत्रित मात्रा में पैदा हो रहे कूड़े-कचरे के निस्तारण की विकट समस्या से जूझ रहे हैं।

    विनोबा जी मानते थे कि ऐसे अपरिग्रही उत्पादन से मनुष्य की स्वाभाविक क्षमताएं भी घटती जाती हैं। ऐसे में वर्तमान में चालू व्यवस्था के उद्देश्यों और प्रक्रियाओं के सामने गंभीर सवाल खड़े होते हैं जिनपर विचार करना जरूरी हो जाता है। यदि स्थानीय उत्पादन हो और वह अहिंसक प्रकृति का हो तो वह पूंजी का शोषणपरक केन्द्रीकरण नहीं होने देता है। साथ ही होने वाले लाभ के समान वितरण से समाज में आर्थिक साम्य आता है। योग, उद्योग और सहयोग साथ-साथ चलते हैं। विनोबा जी कांचन-मुक्ति की कामना कर रहे थे और समाज में श्रम की प्रतिष्ठा पर बल दे रहे थे। वह श्रम-मुद्रा की प्रतिष्ठा चाहते थे। शरीर का पोषण शरीर के कार्य से जुड़ा हुआ है और उसके आगे शरीर को सजाना निरर्थक ही है। इस दृष्टि से समाज में सबके साथ एकरूपता होनी चाहिए। अतः शिक्षा को एकांगी न हो कर वाणी, मन, देह, बुद्धि, ज्ञानेन्द्रियों आदि सबके विकास का माध्यम होना चाहिए। सत्य, प्रेम और करुणा ही वे मूल्य हैं जिनकी स्थापना से समाज की उन्नति संभव हो सकेगी।

    आदर्श और मूल्यों के लिए समर्पित विनोबा जी कहते हैं सम्यक आचरण, सम्यक वाणी और सम्यक विचार से समझाना ही सत्याग्रह है। वे किसी भी तरह के दबाव के पक्ष में नहीं थे। वे सोच रहे थे कि परिपक्वता आने के साथ आत्मज्ञान और विज्ञान के तत्व धर्म और राजनीति का स्थान ले लेंगे। सत्य ग्राही होने से ही व्यक्ति सत्याग्रही बनाता है। वे ‘एकं सत’ को मानते हुए समन्वय द्वारा विविधता में एकता यानी साम्य लाने कि कोशिश में लगे थे। तभी उनके लिए सभी धर्मों की ओर तटस्थ भाव से देख पाना भी संभव हो सका था। उनके विचारों में बहुत कुछ है जो हमें आलोकित करता चलता है।

    (लेखक महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

    Share:

    मुरैना और सुमावली में भी लग सकता है भाजपा को झटका

    Fri Sep 11 , 2020
    2018 के प्रत्याशी आ सकते हैं आमने-सामने भोपाल। ग्वालियर के भाजपा नेता सतीश सिकरवार के कांग्रेस में जाने के बाद ग्वालियर पूर्व विधानसभा में लग रहा है कि प्रत्याशी 2018 की तरह ही आमने सामने होंगे। अंतर यह होगा कि जो पिछले चुनाव में भाजपा से चुनाव लड़ा था वह कांग्रेस से मैदान में आए […]
    सम्बंधित ख़बरें
  • खरी-खरी
    रविवार का राशिफल
    मनोरंजन
    अभी-अभी
    Archives
  • ©2024 Agnibaan , All Rights Reserved