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    पदक विजेता इन पैराएथलीटों को सौ-सौ सलाम..!

  • September 01, 2021

    अजय बोकिल

    इस साल तोक्यो समर ओलंपिक में भारतीय खिलाड़ियों ने पदकों की जो स्वर्णिम आभा बिखेरनी शुरू की थी, पैरालिम्पिक में अब वह द्विगुणित होती दिख रही है। यूं दोनों ओलिम्पिक की कोई सीधी तुलना नहीं है, लेकिन जहां भारत के लिए समर ओलंपिक का समापन सोने से हुआ था, वहीं भारतीय पैरालिम्पिक एथलीटों ने खेल के छठे दिन शूटिंग और भाला फेंक में क्रमश. दो गोल्ड जीतकर पूरे देश को गदगद कर दिया है। ये कमाल शूटिंग में अवनि लखेरा और भाला फेंक में सुमित अंतिल ने किया। यकीन मानिए कि हमारे पैराएथलीट पदकों की दौड़ में दिव्यांग होने के बाद भी समर एथलीटों से आगे निकल सकते हैं। अमूमन हाशिए पर रहने वाले इन पैराएथलीटों की अदम्य इच्छाशक्ति, जिजीविषा और क्षमता यह देश नए सिरे से सलाम कर रहा है।

    यूं तो समर ओलंपिकों में भी भारत के पदक जीतने का इतिहास बहुत उज्ज्वल नहीं रहा है। बरसों तक हम हाॅकी का एक अदद गोल्ड जीतकर खुश होते रहे। बाद में वह भी छिन गया। इस बीच एक-एक मेडल हमने भारोत्तोलन और टेनिस में जीता। बीजिंग ओलंपिक से दूसरे खेलों में भी मेडल जीतने का नया दौर शुरू हुआ। लेकिन रियो ओलंपिक में पदकों की चढ़ती गोटी को असफलता का सांप फिर निगल गया। हमारे खिलाड़ी महज दो मेडल यानी 1 सिल्वर और 1 कांस्य लेकर लौटे। उस वक्त भी रियो पैरालिम्पिक में पैराएथलीटों ने भारत को खुश होने का मौका 2 स्वर्ण, 1 रजत और 1 कांस्य पदक जीतकर दिलाया। बावजूद इसके इस कामयाबी की वैसी न तो चर्चा हुई और न ही खेल प्रेमियों में वैसी जिज्ञासा रही, जैसी कि इसबार देखने को मिल रही है।

    पैरालिम्पिक का आयोजन आजकल समर ओलिम्पिक के तत्काल बाद होता है। इसमें प्रतिस्पर्द्धा काफी कठिन होती है। तोक्यो पैरालिम्पिक में भी 163 देशों के 4 हजार 537 पैराएथलीट भाग ले रहे हैं। ये सभी कुल 22 खेलों के 539 इंवेंट्स में पदकों की दावेदारी कर रहे हैं। इस पैरालिम्पिक में भारत के 54 एथलीट भाग ले रहे हैं। जिनमें कुछ तो विश्व चैम्पियन भी हैं। पैरालिम्पिक में खिलाड़ियों का चयन उनकी दिव्यांगता की श्रेणी के हिसाब से होता है। उसके भी दस मानदंड होते हैं। जिनमें मांसपेशियों की कमजोरी, जोड़ों की गति या निष्क्रियता, आंगिक दोष, कद, मांसपेशियों में जकड़न, शरीर के मूवमेंट में कमी, दृष्टि दोष तथा सीखने की अवरुद्ध क्षमता आदि। खेल की श्रेणियां भी उससे जुड़ी दिव्यांगता के हिसाब से होती हैं। चयन के मानक अंतरराष्ट्रीय पैरालिम्पिक कमेटी तय करती है। पैरालिम्पिक के चयनित खिलाड़ी भी समर ओलिम्पिक खिलाड़ियों के समान ही कठिन तैयारी करते हैं। हालांकि इसके लिए उन्हें कुछ विशेष जरूरी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं। भारत में पिछले कुछ सालों से इसमें काफी सुधार हुआ है।

    तोक्यो पैरालिम्पिक में अबतक कुल सात मेडल भारत के खाते में आ चुके हैं। हालांकि चक्का फेंक में ब्रांज जीतने वाले विनोद कुमार से उनका मेडल पैरालिम्पिक आयोजन कमेटी ने वापस ले लिया है। उसके पीछे कुछ तकनीकी कारण हैं। क्योंकि पैराएथलीटों के श्रेणीकरण के मापदंड अलग होते हैं। पर हमें अभी और पदकों की उम्मीद है।

    यूं तो किसी भी ओलंपिक में कोई भी मेडल जीतना एक एथलीट का महान सपना होता है। जिसे साकार करने वो रात दिन जी-तोड़ मेहनत करते हैं। लेकिन पैरालिम्पिक का मामला और भी दुश्वार इसलिए है कि क्योंकि इसमें भाग लेने वाले खिलाड़ियों को पहले अपने आप से लड़ना होता है। अपने स्तर पर जीती लड़ाई को खेल में जीत के संकल्प में बदलना पड़ता है। यानी एक आंतरिक लड़ाई जीतने के बाद उन्हें ओलंपिक में मेडल की वैश्विक लड़ाई जीतनी होती है। यह लड़ाई एक सामान्य ओलंपिक एथलीट के मुकाबले ज्यादा कठिन और चुनौती भरी होती है।

    अमूमन दिव्यांगों अथवा विकलांगों को लेकर समाज का रवैया बहुत सकारात्मक नहीं होता। उन्हें या तो सहानुभूति का पात्र समझा जाता है या फिर उपेक्षा का। जबकि कई सामान्य लोग दुर्घटनावश दिव्यांग हो जाते हैं तो कुछ लोग जन्मत: किसी शारीरिक या मानसिक दोष से ग्रस्त होते हैं। वास्तव यह प्रकृति द्वारा उनके साथ किया गया मजाक ही होता है। जिसकी कीमत उन्हें आजीवन चुकानी पड़ती है। ऐसे में उन्हें निरंतर समाज के प्रोत्साहन और सहज स्वीकार की आवश्यकता होती है। मौका मिलते ही वो दिखा देते हैं कि ‘हम किसी से कम नहीं।‘ भारतीय पैरा एथलीटों ने पैरालिम्पिक में यह दिखा दिया है।

    वैसे पैरालिम्पिक का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। पैरालिम्पिक का आयोजन 1960 से रोम ओलिम्पिक के साथ हुआ। भारत ने 1968 में हुए तेल अवीव पैरालिम्पिक से भाग लेना शुरू किया। 1972 में मुरलीधर पेटकर ने 60 मीटर फ्री स्टाइल तैराकी में भारत को पहला स्वर्ण दिलाया था। उसके बाद भारत कई साल तक पैरालिम्पिक से दूर रहा। 2004 में देवेन्द्र झांजरिया ने भाला फेंक में भारत को सोना दिलाया। 2016 में रियो ओलम्पिक में भारतीय पैराएथलीटों ने काफी अच्छा प्रदर्शन कर दो स्वर्ण सहित कुल 4 पदक जीते। तोक्यो में हमारे खिलाड़ी पदक जीतने के साथ नए रिकाॅर्ड भी बना रहे हैं। उदाहरण के लिए भाला फेंक में सुमित अंतिल ने 68.55 मीटर भाला फेंक कर अपना ही रिकाॅर्ड तोड़ते हुए विश्व रिकाॅर्ड भी कायम किया।

    इसी प्रकार 10 मीटर एयर राइफल शूटिंग ( एस 1 स्पर्द्धा) में अवनि लखेरा ने 249.6 पाइंट हासिल कर विश्व रिकार्ड की बराबरी की और स्वर्ण पदक अपने नाम किया। 19 साल की अवनि की कहानी भी बहुत प्रेरक है। कार दुर्घटना में उनकी रीढ़ की हड्डी हमेशा के लिए खराब हो गई। लेकिन अवनि ने जीवन में पहले डिप्रेशन को हराया और कुछ कर दिखाने की जिद के साथ नई जिंदगी शुरू की। गोल्ड मेडल जीतने के बाद उसकी यह खुशी स्वाभाविक ही थी कि ‘मैं आज दुनिया के टाॅप पर हूं।‘

    गोल्ड मेडलिस्ट सुमित की कहानी भी उतनी ही प्रेरक है। सुमित पहलवान बनना चाहते थे। लेकिन एक हादसे में उन्हें अपना पैर गंवाना पड़ा। महिला टेबल टेनिस में रजत पदक जीतने वाली भाविना पटेल ने कहा कि वो खुद को दिव्यांग नहीं मानती। ऊंची कूद में देश के सिल्वर दिलाने वाले निषाद कुमार की कहानी भी ऐसी है। उन्होंने गांव में चारा काटने की मशीन में अपना हाथ गंवाया। लेकिन हौसला कायम रखा। अच्छी बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पैरा एथलीटों से भी उसी जज्बे के साथ बात कर रहे हैं, उनका उत्साहवर्द्धन कर रहे हैं, जैसा कि उन्होंने समर ओलिम्पिक खिलाड़ियों के साथ किया था।

    यकीनन जब देश का प्रधानमंत्री सीधे खिलाड़ी की हौसला अफजाई करेगा तो उसका उत्साह, संकल्प और जुनून भी कई गुना बढ़ जाएगा। सरकारें भी पदक जीतने वाले पैराएथलीटों के लिए दिल खोलकर पुरस्कारों की घोषणा कर रही हैं। ओडिशा से प्रेरणा लेकर दूसरे राज्य भी कोई न कोई खेल गोद लेने लगे हैं। हमारे एथलीट ओलिम्पिक में क्या कर रहे हैं, कितना कर रहे हैं, हमें उनके साथ खड़े होना है, यह भावना भी इसबार बड़े पैमाने पर देखने को मिल रही है। यह अच्छा लक्षण है। हम पदकों की दौड़ में चीन से मीलों पीछे हैं। वहां तक पहुंचने में हमें बरसों लगेंगे। उसके लिए बहुत कठोर और सुनियोजित प्रयास करने होंगे। लेकिन पदकों की बढ़ती ललक और जिद देश में खेलों के उज्ज्वल भविष्य की निशानी है। अच्छा यह भी है कि अब खेलों में कॅरियर को लेकर लोगों की मानसिकता भी बदल रही है। खेलना अब ‘बिगड़ने’ के बजाए कुछ ‘बनने‘ का सबब भी है।

    कुछ लोग इसमें ‘खेल राष्ट्रवाद’ भी देख सकते हैं। लेकिन अगर पदकों की चमक देश की छवि भी चमकाएगी तो उस पर गर्व किसे नहीं होगा। एक शंका इस खेल कामयाबी के राजनीतिक लाभ लेने की भी है, परंतु उसकी भी सीमा है। खेल में जीतना और वो भी अंतरराष्ट्रीय स्पर्द्धा में जीतना, कठिन साधना और अडिग संकल्प से ही संभव है। यह मनुष्य की अदम्य इच्छाशक्ति का उत्सव है। पैरालिम्पिक का ध्येय वाक्य भी यही है ‘स्पिरिट इन मोशन।‘ यानी गति में प्राण हैं। देश के लिए पदक लाने वाले इन पैराएथलीटों को सौ बार सलाम..!

    (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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