– अशोक मधुप
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन कृषि कानून वापस लेने की घोषणा ही नहीं की अपितु अपनी चतुरता से बड़ा खेल खेल दिया। उन्होंने विपक्षी दलों के साथ से जहां बड़ा मुद्दा छीन लिया, वहीं ये बताने में कामयाब हो रहे हैं कि ये आंदोलन कृषि कानून के खिलाफ नहीं था। कृषि कानून वापसी तो एक बहाना है, एजेंडा तो वास्तव में कुछ और ही है। इसके पीछे खेल कुछ और ही है। केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक साल से चले आंदोलन में सब कुछ झेला। प्रदर्शन के नाम पर 26 जनवरी को लालकिले पर हंगामा बर्दाश्त किया। पुलिस वालों के साथ मारपीट, उन पर हमला झेला पर किसानों पर गोली नहीं चलाई। कृषि कानून की वापसी पर देश से माफी भी मांगी। आंदोलनकारी किसान नेता शुरू से चाहते ही हैं कि सरकार उन पर सख्ती करे। लाठी चलवाए, गोली चलवाए। वह सरकार को किसान विरोधी सिद्ध करना चाहते थे, किंतु सरकार ने हद दर्जे की सहनशीलता का परिचय दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आचरण इस मामले में सबकी आशा के विपरीत था। उन्होंने आंदोलनकारियों पर सख्ती नहीं की।
दिल्ली बॉर्डर पर आंदोलन करने वाले किसानों और किसान संगठनों की अब तक एक ही मांग थी कि सरकार तीनों कृषि कानून वापस ले। सरकार ने उन्हें वार्ता के लिए बुलाया। इसके लाभ भी बताने चाहे पर किसान नेता इसे मानने को तैयार नहीं थे। उनसे आपत्ति मांगी। उन्होंने वह भी नहीं बताईं। सिर्फ एक ही रट लगाए रखी। तीनों कृषि कानून वापिस हों। विपक्षी दल को कुछ और मुद्दा नहीं मिल रहा था, सो उन्होंने इसी को उभारने में भलाई समझी। उन्होंने कृषि कानून वापस लेने के आंदोलन को हवा देनी शुरू कर दी। कोई न उनसे ये पूछ रहा है कि जब ये बिल संसद में पास हो रहे थे, तब विरोध क्यों नहीं किया? वहां चुप्पी क्यों साधे रखी? तब आप कहां थे, वे भी इसका जवाब देने को तैयार नहीं हैं। सिर्फ अच्छा हो या बुरा उनका काम बस विरोध करना ही है। सो विरोध कर रहे हैं।
किसान कानून वापस हो गए। सरकार पीछे हट गई। सर्वोच्च न्यायालय ने हालांकि इन तीनों कृषि कानून पर रोक लगा रखी थी। उसने कहा भी कि जब हमने तीनों कृषि कानून पर रोक लगा रखी है, तो फिर दिल्ली के रास्ते जाम क्यों कर रखे हैं? उस समय किसान नेताओं ने कहा था कि रास्ते उन्होंने नहीं, सरकार ने रोक रखे हैं। अब कृषि कानून वापस हो गए तब भी आंदोलन वहीं का वहीं है। रास्ते पहले भी बंद थे। अब भी बंद हैं।
अब नई मांग निकल आई कि फसलों का न्यूनतम मूल्य निर्धारित हो। आंदोलन के दौरान मरने वाले 700 किसानों के परिवार को मुआवजा दो। विपक्ष ही नहीं भाजपा ने कुछ लोग भी इसे हवा दे रहे हैं। खुद भाजपा सांसद वरूण गांधी ने मांग की कि आंदोलन के दौरान मरने वाले 700 किसानों में से प्रत्येक के परिवार को एक करोड़ रुपया मुआवजा दिया जाए। प्रत्येक मरने वाले परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी मिले। वे यह नहीं जानते कि नौकरी तो किसी ने उनके परिवार के सदस्यों को भी नहीं दी जो देश की आजादी के लिए कुरबान हो गए।
अब फसलों के न्यूनतम मूल्य के लिए कानून बनाने, आंदोलन में मरने वाले किसानों के परिवार को मुआवजा देने, मरने वाले प्रत्येक किसान के परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने, आंदोलन के दौरान मरने वाले किसानों का स्मारक बनाने, किसानों के बिजली के बिल माफ करने के साथ, पराली जलाने पर सजा का कानून खत्म करने के साथ और भी बहुत सारी मांग निकल आईं। इनमें एक मांग यह भी है कि सरकार उनकी मागों पर उनके साथ बैठकर वार्ता करे। इस समय जितने आंदोलनकारी हैं, उनसे ज्यादा मांग उठ खड़ी हुई है।
विपक्ष के हाथ से कृषि कानून वापसी का मुद्दा निकल गया। पर आंदोलन अभी खड़ा है। आंदोलन खड़ा है तो विपक्ष उसे हवा दे रहा है। बसपा सुप्रीमो मायावती आंदोलन में मृतक किसानों को मुआवजा देने की मांग कर ही चुकी हैं, अन्य नेता भी इसी सुर में सुर मिला रहे हैं। दिल्ली विधानसभा में तो केजरीवाल सरकार ने आंदोलन के दौरान मृतक किसानों के परिवार को मुआवजा देने, एमएसपी पर कानून बनाने और किसानों पर दर्ज मुकदमे वापस लेने का प्रस्ताव भी पारित कर दिया। दिल्ली विधानसभा में पारित प्रस्ताव में आंदोलन के दौरान मरने वालों की संख्या 750 बताई गई है।
अभी ये संख्या 700 थी। अब ये 750 हो गई। जल्दी ही बढ़कर एक हजार या इससे ज्यादा हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। मजेदार बात यह है कि इस आंदोलन में अब तक सरकार ने जैसा संयम बरता, ऐसा कभी नहीं बरता गया। 26 जनवरी को लालाकिले पर हुए हंगामे और तिंरगे के साथ एक धार्मिक ध्वज लहराने की घटना के बाद भी सरकार ने संयम बरता। कहीं लाठी नहीं चली। कहीं गोली नहीं चली। फिर आंदोलन में 750 किसान मर गए। स्वयं भाजपा सांसद वरूण गांधी इनकी संख्या 700 बता चुके हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम संबोधन में की गयी अपनी घोषणा के अनुरूप केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक बुलाकर ये प्रस्ताव पारित करा दिया कि सरकार 29 नवंबर से शुरू होने वाले सत्र में ये तीनों कृषि कानून वापस ले लेगी। सत्र के एजेंडे में ये प्रस्ताव भी आ गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा देश को बताना चाहते हैं कि वे अपनी घोषणा के प्रति ईमानदार हैं। वे किसान हितैषी हैं। ये चाहते तो आंदोलनकारी पर लाठी, गोली चलवा सकते थे। किंतु उन्होंने सब कुछ बर्दाश्त किया, पर ऐसा कुछ नहीं किया।
अब तक के हालात से लगता है कि कृषि कानून संसद में वापस ले लिये जाने के बावजूद आंदोलन खत्म नहीं होगा, ये ऐसे ही चलेगा। किसान नेता घोषणा कर चुके हैं कि मांगें पूरी होने तक आंदोलन ऐसे ही चलेगा। अब तक की मांग तीनों कृषि कानून वापस करना थी, वह पूरी हो गयी है। फिर भी आंदोलन चल रहा है। पराली जलाने पर सजा का कानून खत्म करने की घोषणा स्वयं कृषि मंत्री कर चुके हैं, फिर भी आंदोलन जारी है। अब क्या गारंटी है कि किसान नेताओं की बकाया मांग पूरी होने पर भी आंदोलन खत्म हो जाएगा? दरअसल इन आंदोलनकारियों का एजेंडा कुछ और ही है। कृषि कानून वापसी की मांग तो बहाना थी। उनका एजेंडा दूसरा ही है। आंदोलन करने वाले ये नेता तो सिर्फ टूल हैं। इनको चलाने वाली शक्ति कोई और ही है। कहीं और ही बैठी शक्ति इन्हें चला रही है और फंडिंग कर रही है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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