– डॉ. अजय खेमरिया
मोदी सरकार द्वारा घोषित नई शिक्षा नीति को लेकर आलोचक ऐसे पहलू गढ़ रहे है जो केवल कल्पनाओं पर आधारित है। आरएसएस के प्रति अपनी घृणा और दुश्मनी को अभिव्यक्त करने के मोर्चे पर वे आज भी कायम है। नई शिक्षा नीति व्यापकता और समावेशी फलक पर अबलंबित है इसलिए इस वर्ग का विरोध तार्किक नहीं है। वाम विमर्श अपने इर्द-गिर्द कुछ ऐसे शब्दों का जाल भी खड़ा करके चलता है जो तथाकथित बौद्धिक वर्ग में बहुत भारी भरकम प्रतीत होते हैं। मसलन ‘कार्पोरेटाइजेशन’ एक ऐसा ही शब्द है नई शिक्षा नीति की आलोचनाओं का लिए। आरोप लगाया जा रहा है कि भारत का शिक्षा जगत निजी हाथों में सौंप दिया जाएगा। जबकि सरकार सम्मिलित रूप से शिक्षा क्षेत्र में जीडीपी का 6 फीसदी खर्च करने की बात कर रही है। शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल ने नई नीति का नवनीत “भारत को वैश्विक ज्ञान महाशक्ति” बनाना निरूपित किया है।
शिक्षाविद् के चोले में वामपंथी प्रचारक अनिल सदगोपन ने नई नीति को आरएसएस के हाथों शिक्षा के केन्द्रीयकरण का आरोप लगाया है। इसके लिए इंडियन एजुकेशन सर्विस, नेशनल रिसर्च फाउंडेशन, एनएचईसीए, एनटीए जैसी संस्थाओं के प्रस्ताव को आधार बनाकर वे दावा कर रहे है कि इन संस्थाओं के जरिये केजी से पीजी तक केंद्रीय सरकार का कब्जा होगा और यह काम संघ के स्वयंसेवकों के हाथों में होगा। इस तर्क का एक पक्ष यह तो स्पष्ट ही है कि आगामी 15 सालों तक केंद्र में मोदी या बीजेपी सरकार ही रहने वाली है क्योंकि नई नीति को पूर्णता के साथ अमल में आने में इतना समय तो लगेगा ही। दूसरा आरोप 12 वीं के बाद हुनरमन्द बच्चों के स्थानीय स्तर पर नियोजन को लेकर है। दावा किया जा रहा है कि गरीब और वंचित तबके के बच्चे दिहाड़ी मजदूरी में झोंक दिये जायेंगे। जबकि अनुभव बताते हैं कि कोविड संकट में आर्थिक परेशानियों से हमारा गरीब और वंचित वर्ग इसी स्किल न्यूनता से जूझता रहा है। नई नीति स्किल इंडिया मिशन को परिणामोन्मुखी बनाती है। नीति में आरक्षण को लेकर सवाल खड़े किया जाना भी अप्रसांगिक है क्योंकि स्कूली सिस्टम में आरक्षण का कोई अर्थ ही नहीं। दूसरे, हायर एजुकेशन सिस्टम में आरक्षण पहले से ही विद्यमान है। नई नीति जब उच्च शिक्षा नामांकन को 50 फीसदी का लक्ष्य घोषित करती है तब इन आरोपों की मंशा को समझा जा सकता है।
सवाल यह है कि शिक्षा का कार्पोरेटाइजेशन किया किसने है? क्या 60 साल तक बीजेपी व संघ ने इस देश की शैक्षणिक नीतियाँ निर्मित की हैं? चार साल के यूजी प्रस्ताव को संघ के एजेंडे का हिस्सा बताया जा रहा है जबकि यह कोर्स विदेशों में सफलतापूर्वक चल रहा है। क्या यह प्रयोग भारत को वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्धी नहीं बनाता है। एक तरफ संघ को रिग्रेसिव कहा जाता है, दूसरी तरफ इस निर्णय को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। विदेशी विश्वविद्यालयों के कैंपस की अनुमति सामाजिक विज्ञान के लिए नहीं होंगी, केवल तकनीकी, प्रौद्योगिकी, प्रबंधन, साइंस स्ट्रीम में ही विदेशी कैंपस खोले जाने का प्रस्ताव है। यानी भारतीय समाज विज्ञान की मौलिकता को कायम रखने की प्रतिबद्धता स्पष्ट है।
नई नीति शालेय शिक्षा को मातृभाषा और प्रादेशिक भाषाओं में देने की वकालत करती है साथ ही उच्च शिक्षा को व्यवहारिक बनाने पर जोर देती है। मौजूदा नीति केवल रट्टा लगाकर विहित परीक्षा पास करने का अनुशरण करती है। कोई निपुणता नही देती है न ही कौशल उन्नयन को छूती। नई नीति जिज्ञासा केंद्रित है, सबकुछ किताबी लिखा पढ़ने की जगह जीवन भर सीखने की बात करती है। अनेक अध्ययन प्रमाणित कर चुके हैं कि विश्व में सीखने के लिहाज से भारतीय बच्चे किसी भी विकसित देश से जन्मना बेहतर हैं। अमेरिका में सर्वाधिक कुशाग्र “भारतीय अमेरिकियों” को गिना जाता है। क्या भारत के इस डीएनए का हम 70 साल में बेहतरी के लिए उपयोग कर पाए हैं? पीसा जो यूरोपियन मानक है उसके द्वारा किये गए एक अध्ययन में भारतीय स्कूलों की गुणवत्ता को 110 देशों में नीचे से दूसरे स्थान पर रैंकिंग दी गई है।
जाहिर है हमारी शालेय शिक्षा व्यवस्था बुरी तरह चौपट है। नई नीति में इसके शमन की सोच नजर आती है।यह लर्निग आउटपुट के साथ सम्पूर्ण विकास की बात करती है। अरली चाइल्डहुड केयर एजुकेशन को लेकर सरकार की प्राथमिकता शिक्षा के बुनियादी बदलाव को सशक्त बनाने की है। छठी कक्षा से ही वोकेशनल स्किल को पकड़ने का प्रावधान असल में उस बड़े लक्ष्य को पकड़ने के लिए ही है जिसके जरिये चीन और साउथ कोरिया जैसे मुल्कों ने दुनिया में अपनी आर्थिक हैसियत को कम समय में हासिल किया है। भारत की नई नीति चीन और कोरियाई मॉडल की तरह ही कौशल उन्नयन को सुनिश्चित करती है। दोनों देशों में “स्टीम” सिस्टम (यानी साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग, आर्ट्स और मैथ्स) के तहत शालेय शिक्षा दी जाती है।
उच्च शिक्षा को शोध एवं विकास (आर एंड डी) उन्मुख बनाने के लिए नई नीति में जो बुनियादी प्रावधान है वह भारत की जन्मना प्रतिभा को निखारने का संकल्प ही है। चार वर्षीय डिग्री कोर्स उन प्रतिभासंपन्न बच्चों को इस राष्ट्रीय योगदान के लिए चिन्हित करेगा। वैसे भी भारत विश्व की तीसरी बड़ी वैज्ञानिक एवं तकनीकी जनशक्ति वाला देश है। सुपर कम्प्यूटर से लेकर नैनो तकनीकी और सॉफ्टवेयर क्षेत्र में भारत की प्रतिभा को दुनिया ने अधिमान्यता दी है। सीएसआई, डीआरडीओ, आईसीएआर, इसरो, आईसीएमआर, सी डेक, एनडीआरआई, आईआईएस, आईआईटीज जैसे संस्थानों ने शोध और नवोन्मेष में बहुत ही बेहतरीन काम किया है लेकिन यह भी तथ्य है कि इन संस्थानों तक आम भारतीय की पहुँच बहुत मुश्किल है। इन संस्थानों का स्वरूप आज भी एलीट क्लास का प्रतिनिधित्व अधिक करता है।
देश के शेष विश्वविद्यालय आर एंड डी के मामले में शून्यवत हैं क्योंकि वे उसी डिग्रीमूलक ढर्रे पर चल रहे हैं। यही कारण है कि 1930 में सीवी रमन के बाद कोई शोध हमें नोबेल की लाइन में नजर नहीं आया है। नई नीति भारत के बिखरे हुए शोधार्थियों को समेकित करने का काम कर सकती है। जिस कोरियाई सफल एजुकेशन मॉडल की हम बात करते हैं, वहां आर एन्ड डी पर जीडीपी का 4.2 फीसदी खर्च होता है, चीन में यह आंकड़ा 2.01, इजरायल में 4.2 और अमेरिका में 2.8 है। भारत मे यह केवल 0.6 फीसदी ही है। नई नीति अमेरिका की तर्ज पर नेशनल रिसर्च फाउंडेशन की स्थापना का प्रावधान करती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान के संग जय अनुसन्धान की बात भी शोधकर्ताओं से कही थी। यह आह्वान जमीन पर उतारने की ईमानदार कोशिश इस नीति में नजर आती है। उच्च शिक्षा के ढांचे से प्रशासनिक उलझाव खत्म कर एकीकृत स्वरूप देने का प्रावधान बहुत लंबे समय से प्रतीक्षित था।
कुल मिलाकर शिक्षा के जरिये भारत को सांगोपांग महाशक्ति बनाने की प्रबल इच्छा को उद्घाटित करती इस नीति को लेकर देशभर में स्वागत का माहौल है। आवश्यकता इस बात की है कि इसे राजनीतिक मोहपाश से बचाकर ईमानदारी से जमीन पर उतारने के लिए भी उसी उदारता और समावेशी सोच से काम किया जाए जैसा इसे बनाने में किया गया है।
(लेखक बाल कल्याण समिति शिवपुरी के अध्यक्ष हैं।)
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