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    नया भारत और नेहरुयुगीन वैचारिकी का पिंडदान

  • August 04, 2020

    – डॉ. अजय खेमरिया

    अयोध्या में राममंदिर भूमिपूजन को लेकर जो रुदन बुद्धिजीवियों, रामद्रोही सियासी चेहरों द्वारा किया जा रहा है उसके निहितार्थ बहुत ही गहरे हैं। यह भूमिपूजन भारत के लिए केवल एक मंदिर भर का महत्व नहीं रखता है बल्कि 100 साल के आत्मगौरव से अलगाव और वाम आवरण से मुक्ति का महापर्व भी है। लगभग 500 साल तक चले एक अनथक संघर्ष की लोकतांत्रिक विजय का स्वर्णिम पर्व भी है अयोध्या में भव्य राममंदिर का भमिपूजन।

    कुतर्क खड़े किए जा रहे हैं कि मंदिर के भूमिपूजन में पीएम क्यों आ रहे हैं? कोरोनो संक्रमण में इस आयोजन का औचित्य क्या?संघ परिवार इस मंदिर निर्माण का श्रेय क्यों ले रहा है? मंदिर तो सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर बनाया जा रहा है? कभी दलित, पिछड़े प्रतिनिधित्व को लेकर मंदिर ट्रस्ट पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। हाईकोर्ट में बकायदा याचिका दाखिल कर इस कार्यक्रम को रुकवाने के प्रयास किये गए हैं। कांग्रेस प्रवक्ता की तरह लोक संभाषण करने वाले शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी ने 5 अगस्त के मुहूर्त पर भी सवाल खड़े कर इस आयोजन को विवादित करने के पुरजोर प्रयास किये।

    असल में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा भमिपूजन के साथ सेक्यूलर राजनीति को उत्पन्न सियासी खतरे को भी समझने की जरूरत है। यह निर्विवाद तथ्य है कि राममंदिर आंदोलन को बीजेपी ने अपने एजेंडे में शामिल कर एक देशव्यापी स्वीकार्यता प्रदान की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समारोह में आने पर सवाल विपक्षी असुरक्षा का भान भी कराता है। सवाल कभी यह नहीं उठाया गया कि नेहरू ने सोमनाथ मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा में भाग क्यों नहीं लिया? क्यों राजेन्द्र बाबू, केएम मुंशी, सरदार पटेल पर नेहरू ने हिन्दू पुनरुत्थानवाद के आरोप लगाये? तब जबकि सरदार पटेल ने सोमनाथ की प्राण प्रतिष्ठा की अनुमति महात्मा गांधी से प्राप्त की थी। गांधी जी ने सरकारी धन के स्थान पर जनसहयोग से इस काम को करने का आदेश दिया था, कमोबेश राममंदिर निर्माण के लिए भी मंदिर ट्रस्ट ने गांधी जी के इसी परामर्श को अपनाया है।

    असल में अयोध्या प्रकरण हिन्दू पुनरुत्थानवाद का नहीं भारत के स्वत्व का प्रकटीकरण है और यही “भारत” विचार के दुश्मनों की बुनियादी समस्या है। आज के भारत में सामाजिक जीवन का हर पक्ष इस ‘स्वत्व’ से खुद को आलोकित महसूस कर रहा है। इसके चलते वह बड़ा वर्ग अलग-थलग पड़ गया है जिसने प्राचीन भारत को आजादी के बाद लोकमानस से विलोपित कर केवल मध्यकालीन मुगलिया इतिहास को प्रतिष्ठित किया है। हमारे सनातन मान बिन्दुओं का एक सुनियोजित राजनीतिक लक्ष्य की पूर्ति के लिए मानमर्दन किया। वैसे भी मार्क्स का स्पष्ट मत रहा है कि मार्क्सवादी केवल इतिहास की व्याख्या नहीं करते हैं बल्कि उसे बदलने के लिए बने हैं। जैसा कि बिपिन चन्द्र कहते हैं- “मार्क्सवादियों के काम को विचारक और राजनीतिक काम के संगठनकर्ताओं के रूप में अलग-अलग नहीं किया जा सकता है। वर्तमान समाज और सँस्कृति को उखाड़कर भारत में क्रांति लाना ही हमारा लक्ष्य है।”

    1962 बिपिन चन्द्र जब यह घोषणा कर रहे थे तब वे नेहरू के मानस पुत्र बनकर ही बोल रहे थे। जाहिर है इन 70 सालों में वामपंथ और कांग्रेस में सक्रिय इन चेहरों ने नेहरू के एजेंडे को, शिक्षक, इतिहासकार या दार्शनिक के तौर पर नहीं बल्कि सियासी कार्यकर्ता बनकर आगे बढ़ाया है। आज की पूरी कांग्रेस इसी नेहरूवादी मार्क्सवादी परम्पराओं का बिंब है। अयोध्या और राम के सवाल इन संगठित उदारवादियों और बहुलतावादी ब्रिगेड के लिए शूल की तरह चुभते रहे हैं। यही कारण है कि भारत की सरकार अपने अधिकृत हलफनामे में राम के अस्तित्व को नकार देती है। “राम” और “अयोध्या” के सवाल असल में सेक्युलरिज्म के उस विद्रूप चेहरे से उपजे विवाद हैं जिसने धर्म को रिलीजियन बनाकर भारत की हजारों साल की सनातन जीवन पद्धति को स्थानापन्न करने में लंबे समय तक सफलता हांसिल की। नेहरू इस पाप के अधिष्ठाता थे और गांधी, सरदार पटेल, राजेंद्र बाबू, केएम मुंशी, तिलक, अरविन्द जैसे राष्ट्रवादी लोगों के अवसान के बाद साम्यवादी रंग में रंगे नेहरू ने भारत के सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक विमर्श में “राष्ट्र” की अवधारणा के तत्व को ही तिरोहित करा दिया। भारत के जिस स्वत्व यानी आत्मगौरव को पीढ़ीगत रूप से प्रतिष्ठित किया जाना चाहिए था उसके स्थान पर सेक्युलरिज्म के नकली और आत्म विलग तत्व को राजकीय सरंक्षण में सुस्थापित करने के लिए नेहरूवाद को आगे किया गया। वामपंथी लिबरल गैंग ने 70 साल तक बेताज बादशाह की तरह इस क्षेत्र में काम किया। जेएनयू, एएमयू, जामिया, जाधवपुर से लेकर लगभग सभी सरकारी शिक्षण संस्थानों में इस वर्ग का एकाधिकार रहा।

    यह सर्वविदित तथ्य है कि इतिहास और संस्कृति की मौलिकता को राजकीय संरक्षण में जमींदोज करने के सुगठित प्रयास एक समय के बाद खुद बेमानी और प्रभावहीन हो जाते हैं। सेक्युलरिज्म की नेहरू वैचारकी भी आज इसी दौर से गुजर रही है। वैसे भारत ने भी रूसी मॉडल के उलट 1991 में ही उदारीकरण की राह पकड़कर सैद्धान्तिक रूप से साम्यवादी समाजवाद को छोड़ दिया था। लेकिन राजव्यवस्था के सभी स्तरों खासकर न्यायपालिका, साहित्य, कला, इतिहास, सँस्कृति, समाजकर्म, विश्विद्यालय, अभिनय और पत्रकारिता के क्षेत्रों में साम्यवादी जमात की पकड़ बनी रही है।

    राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र से वामपंथ के उखड़ने का असल सिलसिला 2014 में नरेंद्र मोदी के उद्भव के साथ आरम्भ हुआ है। 2014 से 2020 का सफर भारत के स्वत्व के लोकतांत्रिक प्रकटीकरण का दौर भी है लेकिन उलटबांसी यह है कि देश में संवैधानिक प्रक्रिया से दो बार चुनकर आए एक प्रधानमंत्री को उनके विरोधी अपनी अधिमान्यता देना नहीं चाहते हैं। वे आज के भारत को एक खतरे के रूप में प्रचारित कर रहे हैं जो अपने आत्मगौरव पर सीना चौड़ा कर रहा है। मुगलिया और औपनिवेशिक इतिहास के स्थान पर नया भारत राम को अपनी पहचान के साथ संयुक्त करना चाहता है। सेक्युलरिज्म की कोख से निकली अल्पसंख्यकवाद की राजनीति भी अब 2014 के बाद मुँह के बल गिर गई है। यूपी के चुनावी नतीजे इसकी बानगी है।

    बुनियादी रूप से अगर देखा जाए तो राममंदिर का विवाद मूलतः सेक्युलरिज्म का खड़ा किया संकट ही था। 1989 तक आते-आते यह आंदोलन दो पक्षों के बीच था और वे आपसी सुलह से भी इसे निराकृत करने के करीब आ सकते थे। लेकिन राम और भारतीय संस्कृति के दुश्मन वामपंथी वर्ग ने इस मुद्दे को राजनीतिक रूप से अल्पसंख्यकवाद के हथियार के रूप में लिया। अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने और मुस्लिम वर्ग को सद्भभाव से अलग करते हुए कट्टरता की आग में झोंक दिया। पूरी दुनिया में किसी विश्वविद्यालय का ऐसा कलुषित इतिहास नहीं है जैसा जेएनयू का इस मामले में प्रमाणित है। 1989 में रोमिला थापर, हरबंस मुखिया, विपिन चंद जैसे 25 इतिहासकार और शिक्षकों ने जेएनयू के “सेन्टर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज” से बकायदा एक पत्रिका प्रकाशित की। “द पॉलिटिकल एब्यूज ऑफ हिस्ट्री” नामक इस प्रकाशन में उस समय के तथाकथित बड़े बुद्धिजीवियों ने अयोध्या प्रकरण को फर्जी और साम्प्रदायिक बताकर राम एवं अयोध्या के अस्तित्व को ही खारिज कर दिया। यूपीए सरकार में राम को काल्पनिक बताने वाला हलफनामा इसी प्रकाशन का हिस्सा था।

    इस घटनाक्रम से मुस्लिमों को बल मिला और उन्हें लगा कि भारत के प्रमुख नीति निर्धारक लोग उनके साथ हैं। जबकि जेएनयू का यह कृत्य बगैर ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित केवल उसी नेहरुवादी मानसिकता का प्रलाप था जो भारत की मौलिक सांस्कृतिक निधि से दुश्मनी पर अबलंबित रहा है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के रिटायर्ड निदेशक के मोहम्मद ने अपनी आत्मकथा में स्पष्ट लिखा है कि मार्क्सवादी इतिहासकारों और कुछ अंग्रेजी अखबारों ने राममंदिर को लेकर मुस्लिम समाज में झूठ और मनगढ़ंत धारणाओं को स्थापित किया, नहीं तो 1989 से 1991 के दौरान ही इस विवाद का पटाक्षेप हो गया होता। उनका दावा है कि मुस्लिम समाज शांतिपूर्ण तरीके से ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर अयोध्या से अपना दावा छोड़ने को राजी हो सकता था। लेकिन जेएनयू के इस तरह सामने आने से मामला बिगड़ गया। जिन 25 इतिहासकारों ने इस कुचक्र को रचा उनमें सव्यसाची भट्टाचार्य, सुबीरा जायसवाल, के एन पन्निककर, सतीश अग्रवाल, के मीनाक्षी, मुजफ्फर अलीबाग, केके त्रिवेदी, हिमांशु रे जैसे लोग भी शामिल थे जो सरकारी सिस्टम का हिस्सा रहे हैं।

    अयोध्या को लेकर इन बुद्धिजीवियों ने दावा किया कि अयोध्या राम की जन्मभूमि है ही नहीं। इसका कोई प्रमाण नहीं है कि राम अयोध्या में हुए। अयोध्या का कोई ऐतिहासिक उल्लेख नहीं है। ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि अयोध्या में मीर बांकी ने किसी मंदिर को तोड़कर मस्जिद खड़ी की। बाबर बहुत ही सहिष्णु था और वह अन्य धर्मों का बहुत आदर करता था। ऐतिहासिक अध्ययन से यह भी कभी साबित नहीं हुआ है कि मुगल शासकों ने कभी हिन्दू मंदिर तोड़े। ऐसे ही तमाम दावे इस प्रकाशन में किये गए। खास बात यह कि इन दावों के पीछे कोई तथ्य पेश नहीं किये गए। उल्टे देश की राजनीति को संबोधित करते हुए सीधा कहा गया कि “हम कम्यूनल राजनीति को देश में सफल नहीं होने देंगे।”

    अब जबकि देश के सुप्रीम कोर्ट ने इस वाम थ्योरी को नकारकर राम और अयोध्या दोनों के ऐतिहासिक अस्तित्व को स्वीकृति दे दी है तब इस लिबरल गैंग को अदालत पर भी भरोसा नहीं रहा। रोजाना सुनवाई के कोर्ट के निर्णय पर सवाल खड़े किए गए, जस्टिस मिश्रा के विरुद्ध महाभियोग तक की पहल की गई, फिर जब निर्णय राम के पक्ष में आया तो चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की निष्पक्षता को भी नहीं बख्शा गया। निर्णय के बाद मोदी सरकार ने जिस सख्ती से देश की कानून व्यवस्था को संभाला उसने भी नए सशक्त भारत का अहसास कराने का काम किया।

    वस्तुतः अयोध्या में भव्य राममंदिर का भूमिपूजन भारत के उस नए और मौलिक स्वरूप का उद्भव भी है जो पूरी दुनिया में अपनी मजबूत पहचान स्थापित कर रहा है। नए भारत में अब लोग अपनी संस्कृति पर हीनता नहीं बल्कि गर्व महसूस कर रहे हैं, वे नेहरुयुगीन संसदीय राजनीति के बोझ को नहीं ढोना चाहते।

    (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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