– डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आजकल भारत और अमेरिका के बीच जैसा प्रेमालाप चल रहा है, मेरी याददाश्त में कभी किसी देश के साथ भारत का नहीं चला। शीतयुद्ध के घनेरे बादलों के दौरान जवाहरलाल नेहरू और सोवियत नेता ख्रुश्चोफ और बुल्गानिन के बीच भी नहीं। इसका कारण शायद यही समझा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी ने डोनाल्ड ट्रंप को सम्मोहित कर लिया है। यह समझ नहीं, भ्रम है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में व्यक्तिगत संबंधों की भूमिका बहुत सीमित होती है। उसका संचालन राष्ट्रहितों के आधार पर होता है। इस समय ट्रंप प्रशासन चीन के घुटने टिकवाने के लिए कमर कसे हुआ है। इसीलिए वह भारत के प्रति जरूरत से ज्यादा नरम दिखाई पड़ रहा है।
उसने कोविड-19 के लिए चीन को सारी दुनिया में सबसे ज्यादा बदनाम किया। उसने चीन के विरुद्ध यूरोपीय संघ और आग्नेय एशिया के राष्ट्रों को लामबंद किया। अमेरिकी कांग्रेस (संसद) में चीन को धमकाने के लिए एक प्रस्ताव भी लाया गया। उसमें अमेरिकी सांसदों ने चीन से कहा है कि वह भारत के साथ तमीज से पेश आए। डंडे के जोर से वह भारत की जमीन हड़पने की कोशिश न करे। अमेरिका ने ताइवान को लेकर पहले चीन से अपनी भिट्टियां भिड़ा रखी थीं, अब हांगकांग के सवाल पर उसने पूरा कूटनीतिक मोर्चा ही खोल दिया है। दक्षिण चाइना-सी के मामले में वह चीन के पड़ौसी और तटवर्ती राष्ट्रों का खुलकर समर्थन कर रहा है।
गलवान घाटी में हुई भारत-चीन मुठभेड़ तो ऐसी है, जैसे ट्रंप के हाथों बटेर लग गई। पहले उन्होंने दोनों देशों के बीच मध्यस्थता की पहल की और फिर चीन के विरुद्ध छर्रे छोड़ने शुरू कर दिए। हमारे अंडमान-निकोबार द्वीप के आस-पास अमेरिकी नौ सैनिक जहाज ‘निमिट्ज’ के साथ भारतीय जहाज सैन्य-अभ्यास भी कर रहे हैं। अमेरिका चाहता है कि यदि उसे चीन के खिलाफ एक विश्व-मोर्चा खोलना पड़े तो एशिया में भारत उसका सिपहसालार बने। भारत को अमेरिका का यह अप्रत्याशित टेका भी खूब सुहा रहा है, क्योंकि भारत के लगभग सभी पड़ोसियों पर चीन ने डोरे डाल रखे हैं लेकिन भारतीय विदेश-नीति निर्माता यह भयंकर भूल कतई न करें कि वे अमेरिका के मोहरे बन जाएं। इस अमेरिकी मजबूरी का फायदा जरूर उठाएं लेकिन यह जानते हुए कि ज्यों ही अमेरिकी स्वार्थ पूरे हुए कि वह भारत को भूल जाएगा और फिर ट्रंप का कुछ पता नहीं कि वे दुबारा राष्ट्रपति बनेंगे या नहीं?
(लेखक सुप्रसिद्ध पत्रकार और स्तंभकार हैं।)
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