– डॉ. सौरभ मालवीय
शिक्षा को लेकर समय-समय पर अनेक प्रश्न उठते रहते हैं, जैसे कि शिक्षा पद्धति कैसी होनी चाहिए? पाठ्यक्रम कैसा होना चाहिए? विद्यार्थियों को पढ़ाने का तरीका कैसा होना चाहिए? वास्तव में स्वतंत्रता से पूर्व देश में अंग्रेजी शासन था। अंग्रेजों ने अपनी सुविधा एवं आवश्यकता के अनुसार शिक्षा पद्धति लागू की। उनका उद्देश्य भारतीयों को शिक्षित करना नहीं था, अपितु उनका उद्देश्य केवल अपने लिए क्लर्क तैयार करना था। देश की स्वतंत्रता के पश्चात स्वदेशी सरकार ने इस ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। स्वतंत्रता के पश्चात देश में बहुत से कार्य करने थे। संभव है कि इस कारण इस ओर ध्यान नहीं गया हो अथवा उस समय के लोगों को अंग्रेजी शिक्षा पद्धति उचित लगी हो। कारण जो भी रहा हो, देश में अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से ही पढ़ाई होती रही। कुछ दशकों पूर्व देश में नई शिक्षा पद्धति की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी तथा इस पर विचार-विमर्श प्रारंभ हुआ।
वर्तमान शिक्षा पद्धति
वर्तमान शिक्षा पद्धति का अपना महत्व है। आज प्राथमिक विद्यालयों के बच्चे भी विभिन्न विषयों पर बात कर लेते हैं, क्योंकि उन्हें आरंभ से ही विभिन्न विषय पढ़ाए जाते हैं। कुछ दशक पूर्व तक ऐसा नहीं था। किंतु आज की शिक्षा पद्धति में कुछ कमियां भी हैं, जैसे आज परीक्षा में सर्वाधिक अंक लाने पर बल दिया जाता है। अभिभावक भी यही चाहते हैं। उनके लिए इस बात का कोई अर्थ नहीं है कि उनके बच्चे विषय को समझ कर ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं अथवा केवल रट्टे लगाकर परीक्षा में उत्तर लिख रहे हैं। उन्हें तो केवल अधिक से अधिक अंक चाहिए। परीक्षा में अधिक अंक प्राप्त करने वाले विद्यार्थी ही योग्य माने जाने लगे हैं। कम या औसत अंक पाने वाले विद्यार्थी कमजोर माने जाते हैं। इसलिए विद्यार्थियों पर परीक्षा का दबाव बना रहता है। अक्सर वे मानसिक तनाव की चपेट में भी आ जाते हैं। दबाव के कारण भी उन्हें अधिक अंक पाने की लालसा रहती है। इसलिए आज शिक्षा व्यवसायिक होती जा रही है। किंतु सुखद बात यह है कि शिक्षाविदों और सरकारों का ध्यान इस ओर गया है तथा इसमें अब परिवर्तन आने लगा है। अपनी मातृभाषा में शिक्षा दिलाना, इसका एक बड़ा उदाहरण है। अब प्राथमिक विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालयों तक में मातृभाषा में शिक्षा दिलाई जाने लगी है। आज के समय में हिंदी में चिकित्सीय एवं तकनीकी शिक्षा उपलब्ध करवाना किसी स्वप्न से कम नहीं है। कुछ वर्ष पूर्व तक इस बारे में सोचना भी सरल नहीं था। यह एक सार्थक पहल है। भविष्य में इसके अच्छे परिणाम सामने आएंगे।
भारतीय ज्ञान परम्परा
शिक्षा भारतीय ज्ञान परम्परा पर आधारित होनी चाहिए। सदैव से हमारी प्राचीन भारतीय सभ्यता विश्व की सर्वाधिक गौरवशाली एवं समृद्ध सभ्यताओं में एक रही है। विश्व के अधिकतर देशों में जब बर्बरता का युग था, उस समय भी हमारी भारतीय सभ्यता अपने शीर्ष पर थी। इसका सबसे बड़ा कारण शिक्षा ही है। हमारे पूर्वजों ने शिक्षा के क्षेत्र में अत्यंत उन्नति की। शिक्षा के कारण ही जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विकास हुआ। इस पवित्र भारत भूमि पर वेद, पुराणों एवं उपनिषदों की रचना हुई। रामायण की रचना हुई, जिसमें जीवन का सार है। महाभारत की रचना हुई, जो हमें अन्याय के विरुद्ध खड़ा होने की प्रेरणा देती है। यह सब शिक्षा के कारण ही संभव हो सका। मानव के लिए वायु, जल एवं भोजन जितना आवश्यक है, शिक्षा भी उतनी ही आवश्यक है। इसलिए शिक्षा ऐसी होनी चाहिए, जो विद्यार्थियों को अक्षर ज्ञान देने के साथ उनके व्यक्तित्व का भी विकास करे। हमारी प्राचीन शिक्षा प्रणाली ऐसी ही थी।
शिक्षा का प्रथम उद्देश्य ही विद्यार्थी के चरित्र का निर्माण करना है। हमारी भारतीय संस्कृति में चरित्र निर्माण पर सर्वाधिक बल दिया गया है, क्योंकि चरित्र के बिना किसी भी गुण का कोई महत्व नहीं है। मनुस्मृति में कहा गया है कि सभी वेदों का ज्ञाता विद्वान भी सच्चरित्रता के अभाव में श्रेष्ठ नहीं है, किंतु केवल गायित्री मंत्र का ज्ञाता पंडित यदि चरित्रवान है, तो वह श्रेष्ठ है। इससे चरित्र की महत्ता का पता चल जाता है। वास्तव में शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान प्राप्त करना नहीं होना चाहिए, अपितु शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थी का सर्वांगीण विकास होना चाहिए, ताकि वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विकास कर सके।
शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थी को उसके अधिकारों के साथ-साथ उसके कर्त्तव्यों के बारे में जानकारी देना भी होना चाहिए, ताकि वह अपने अधिकारों को प्राप्त कर सके तथा परिवार एवं समाज के प्रति अपने कर्त्तव्यों का भी निर्वहन कर सके। शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थी के जीवन स्तर को उन्नत एवं समृद्ध बनाना भी है। शिक्षा के माध्यम से वह अपने जीवन को सुगम, उन्नत एवं समृद्ध बना सके। प्राचीन काल में विद्यार्थियों को अक्षर ज्ञान के साथ-साथ व्यवसायिक कार्यों का भी प्रशिक्षण दिया जाता था, ताकि वे अपने-अपने कार्यों में भी निपुणता प्राप्त कर सकें। एक नैतिकता से परिपूर्ण चरित्रवान व्यक्ति ही अपने कुल, समाज एवं राष्ट्र का नाम ऊंचा कर सकता है। इसके अतिरिक्त शिक्षा विज्ञान पद्धति पर भी आधारित होनी चाहिए तथा इसमें नवाचार भी होना चाहिए।
नैतिक शिक्षा की आवश्यकता
आज के समय में जिस प्रकार समाज में वैमनस्यता तीव्र गति से बढ़ रही है, वह दुख एवं चिंता का विषय है। वर्तमान समय में मनुष्य का जीवन- मूल्यों से विश्वास उठता जा रहा है। वह चरित्र की अपेक्षा धन-संपत्ति को महत्व दे रहा है। इससे उसका नैतिक पतन हो रहा है तथा समाज में अपराध दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे हैं। आज के युवाओं को नित-नई चीजें चाहिए। इसके लिए कुछ युवा अनैतिक कार्यों का सहारा भी लेते हैं। आपराधिक तत्व उनकी महत्वाकांक्षा का अनुचित लाभ उठाते हुए उन्हें अपराध की दलदल में फंसा देते हैं। इस प्रकार उनका जीवन नष्ट हो जाता है। इसलिए पाठ्यक्रम में ऐसे परिवर्तन की आवश्यकता है, जिससे मनुष्य का नैतिक विकास हो तथा वह एक सुसभ्य समाज का निर्माण करने में सहायक सिद्ध हो सके।
नई शिक्षा पद्धति में इस बात पर ध्यान दिया जा रहा है। नई शिक्षा पद्धति का उद्देश्य ऐसे सदाचारी मनुष्यों का विकास करना है, जिनमें दया, करुणा एवं सहानुभूति आदि गुण हों। जो नैतिक मूल्यों से संपन्न हों, जिनके लिए मानवीय मूल्य सर्वोपरि हों। जो केवल अपने बारे में न सोचकर संपूर्ण समाज के बारे में सोचें। इसलिए उत्तम शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम में चारित्रिक विकास एवं मानवीय गुणों को विकसित करने के विषयों को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए, जिससे नागरिक सामाजिक, नैतिकता तथा आध्यात्मिक मूल्यों को प्राप्त कर सकें। हमारे पूर्वजों ने हमें ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का मंत्र प्रदान किया है, जिसका अर्थ है कि धरती ही परिवार है। यही हमारे सनातन धर्म का मूल संस्कार एवं विचारधारा है। हमें इस मंत्र को जीवन में आत्मसात करना होगा। इसका प्रारंभ बाल्यकाल से ही होना चाहिए। यह संस्कार बालकों को घुट्टी में मिलना चाहिए। इसके लिए मूल्य आधारित एवं नैतिक शिक्षा की नितांत आवश्यकता है। बच्चों को देश के तीज-त्यौहारों के बारे में विस्तार से जानकारी देनी चाहिए। उन्हें इन त्यौहारों से संबंधित देवी-देवताओं की कथाएं सुनानी चाहिए। उन्हें इनसे संबंधी घटनाओं की जानकारी देनी चाहिए। मर्यादा पुरुषोत्तम राम का चरित्र प्रेरणा का स्रोत है। वे एक आदर्श पुत्र, आदर्श भ्राता एवं आदर्श मित्र आदि थे। इसके अतिरिक्त देश के महापुरुषों से संबंधित जीवनियां भी बच्चों को पढ़ाई जानी चाहिए, ताकि वे इनसे प्रेरणा प्राप्त कर सकें। इस बात में संदेह नहीं कि यदि शिक्षा भारतीय ज्ञान परम्परा पर आधारित होगी, तो इससे शिक्षकों एवं छात्रों के संबंध और अधिक मधुर होंगे।
(लेखक, लखनऊ विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं।)
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