नई दिल्ली । देश की राजनीति (Politics) में कास्ट पॉलिटिक्स (Caste Politics) का दबदबा बढ़ने लगा है, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (Rashtriya Swayamsevak Sangh) को कतई पसंद नहीं है. लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Elections) के दौरान संघ ने सबक सिखाने के लिए भले ही कुछ देर के लिए अपना हाथ पीछे खींच लिया हो, लेकिन अब फिर से मोर्चे पर आ डटा है.
जैसे बीजेपी को केंद्र की सत्ता तक पहुंचाने के लिए संघ ने वीएचपी यानी विश्व हिंदू परिषद के जरिये अयोध्या के लिए राम मंदिर आंदोलन चलाया था, वैसा ही उपाय एक बार फिर हो रहा है. इस बार भी संघ ने बीजेपी की मदद के लिए वीएचपी को ही आगे किया है – और जल्दी वीएचपी की तरफ से धर्म सम्मेलन कराने की तैयारी चल रही है.
कहने को भले ही नाम धर्म सम्मेलन दिया गया है, लेकिन अभियान के दौरान एकमात्र कोशिश दलित परिवारों तक पहुंच बनाने की है, ताकि चुनावों में रूठे हुए दलितों को फिर से मनाया जा सके.
देखा जाये तो ये लोकसभा चुनाव में विपक्षी गठबंधन INDIA ब्लॉक से राजनीतिक रूप से निबटने की नयी कोशिश है. असल में चुनावों के दौरान विपक्ष ने एक नैरेटिव चलाया था कि बीजेपी सत्ता में आई तो संविधान बदल कर आरक्षण खत्म कर देगी, और ये बात चुनावी मुद्दा बन गई. चुनाव नतीजे तो यही बताते हैं.
और अब भी लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी लगातार दोहरा रहे हैं कि संविधान और आरक्षण व्यवस्था की वो हर कीमत पर रक्षा करेंगे. ये बात राहुल गांधी ने लेटरल एंट्री पर केंद्र सरकार के कदम पीछे खींचने के बाद कही है – मतलब, ये मामला और भी आगे ले जाया जाने वाला है.
वीएचपी का धर्म सम्मेलन सहित केंद्र सरकार के हाल के कई फैसले भी यही संकेत दे रहे हैं कि संघ और बीजेपी विपक्षी दलों की जातीय राजनीति से भयाक्रांत हैं. लोकसभा चुनाव के नतीजे भी तो यही बताते हैं कि जातीय राजनीति के हावी होने के कारण ही ‘अबकी बार 400 पार’ का नारा देने वाली बीजेपी बहुमत के आंकड़े से भी काफी पीछे रह गई. जिस चुनावी साल में उत्तर प्रदेश में राम मंदिर बना हो, उसमें तो बीजेपी को 80 में से ज्यादातर सीटें जीत लेनी चाहिये. लेकिन वो तो 2019 के 62 सीटों से घट कर सीधे 33 पर पहुंच गई, जबकि पहली बार समाजवादी पार्टी 37 सीटों पर पहुंच गई.
बीजेपी के लिए सबसे बड़ा नुकसान ये भी रहा कि अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित 131 सीटों में से उसे सिर्फ 54 सीटें ही मिल पाईं, जबकि 2019 में ये संख्या 77 थी. पिछली बार तो बीएसपी ने भी 10 लोकसभा सीटें जीती थी, लेकिन इस बार तो वो जीरो बैलेंस पर पहु्ंच चुकी है. बीएसपी नेता मायावती पर तो बीजेपी को मदद पहुंचाने के भी आरोप लगते रहे हैं.
लगता है दलित समुदाय को भी मायावती पर बीजेपी के मददगार होने के आरोपों पर यकीन हो गया, और वे समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन का रुख कर लिये. यूपी में भी और उन जगहों पर ही जहां वे निर्णायक भूमिका में थे.
ये बात बीजेपी के साथ साथ अब संघ को भी डराने लगी है, और यही वजह है कि धर्म सम्मेलन के जरिये दलितों के घरों तक पहुंचने और उनकी नाराजगी दूर करने की मुहिम शुरू होने जा रही है.
धर्म क्यों, दलित सम्मेलन क्यों नहीं?
ये भी अपनेआप में दिलचस्प है कि दलितों के लिए चलाई जा रही मुहिम को धर्म सम्मेलन बताया जा रहा है. आखिर क्यों? साफ है संघ को जाति की राजनीति भी धर्म के सहारे ही करनी है. अगर इस अभियान का नाम दलित सम्मेलन रखा गया होता तो मुद्दा जातीय राजनीति से जुड़ जाता.
बहरहाल, ये धर्म सम्मेलन 15 दिनों तक चलेगा, और इस दौरान विश्व हिंदू परिषद देश भर में एससी-एसटी मोहल्लों, और गांवों की झुग्गी बस्तियों में खाना खाने और धार्मिक प्रवचन का आयोजन किया जाना है. दिवाली से पहले होने वाले इस अभियान के दौरान हिंदू समुदाय से जुड़े जरूरी मुद्दों चर्चा की जाएगी.
अभियान के दौरान वीएचपी के आयोजन में संद समुदाय के साथ भोजन और धार्मिक प्रवचन होंगे. इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में वीएचपी अध्यक्ष आलोक कुमार ने बताया है कि ये समाज में धार्मिक जागरुकता फैलाने के मकसद से किया जा रहा है. उनका कहना है, हमारा विचार ये है कि सत्संग लोगों के आने की प्रतीक्षा करने के बजाय, सत्संग लोगों के पास जाये.
विहिप अध्यक्ष आलोक कुमार का कहना है, लोकसभा चुनाव के दौरान कुछ जगहों पर जाति, हिंदुत्व पर हावी रही जो चिंता का विषय है… ये कार्यक्रम जिसमें संत समाज क्षेत्रों का दौरा करेगा और पदयात्रा भी करेगा, लोगों को उनके दर्शन करने का मौका देगा.
जातीय जनगणना के मुद्दे पर बीजेपी बचाव की मुद्रा में क्यों?
बिहार में हुई जातिगत गणना को बीजेपी ने पहले सिरे से खारिज कर दिया था, लेकिन बाद में सफाई भी दिया जाने लगा था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली प्रतिक्रिया के बाद, 2023 के विधानसभा चुनावों के आखिरी दौर आते आते अमित शाह ने भी जातीय जनगणना पर बीजेपी की स्टैंड साफ करने की कोशिश की थी.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना रहा है कि देश में सिर्फ चार जातियां हैं – गरीब, किसान, महिलाएं और युवा. बीजेपी के कार्यक्रमों से लेकर बजट तक इन चार जातियों का जिक्र सुनने को मिलता रहा है.
2023 में छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के जातीय जनगणना कराने के मुद्दे पर अमित शाह का कहना था, ‘हम राष्ट्रीय राजनीतिक दल हैं… वोटों की राजनीति नहीं करते हैं… सभी से चर्चा करके… जो उचित निर्णय होगा उसे हम जरूर करेंगे.’
जातीय जनगणना को लेकर अमित शाह ने तब अपनी तरफ से सफाई भी दे डाली थी, ‘भारतीय जनता पार्टी ने कभी इसका विरोध नहीं किया… लेकिन ऐसे मुद्दों पर सोच-समझकर निर्णय करना पड़ता है… उचित समय आने पर हम बताएंगे.’
तब पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हो रहे थे, और राहुल गांधी तकरीबन हर रैली में सत्ता में आने पर जातीय जनगणना कराने का वादा कर रहे थे. उससे पहले कांग्रेस कार्यकारिणी में भी जातीय जनगणना कराने को लेकर प्रस्ताव पारित हुआ था – लेकिन विधानसभा के नतीजों से मालूम हुआ कि चुनावों में कांग्रेस के जातीय जनगणना कराने के वादे से कोई फर्क नहीं पड़ा – और 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी करीब करीब इस मसले को लेकर निश्चिंत हो गई. लेकन तभी तक जब तक नतीजे नहीं आये थे, नतीजों ने तो अब तक बीजेपी की नींद हराम कर रखी है.
हाल फिलहाल केंद्र की बीजेपी सरकार के कम से कम दो ऐसे फैसले हैं, जो साफ साफ बता रहे हैं कि संघ और बीजेपी विपक्ष की जातीय राजनीति से बुरी तरह डरे हुए हैं – एक लेटेरल एंट्री का मामला, और दूसरा, एससी-एसटी आरक्षण में कोटे के अंदर कोटे को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला.
विपक्ष एजेंडा सेट करने लगा, और बीजेपी बचाव के रास्ते खोज रही है?
संघ लोक सेवा आयोग की तरफ से 45 पदों पर लेटरल एंट्री पर विवाद होने के बाद केंद्र सरकार ने अब विज्ञापन वापस ले लिया है. केंद्रीय कार्मिक और प्रशिक्षण मंत्रालय की तरफ से यूपीएससी की चेयरपर्सन प्रीति सूदन को भेजी गये पत्र में लिखा है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नजर में लेटरल एंट्री की प्रक्रिया हमारे संविधान में निहित समानता और न्याय के आदर्शों पर आधारित होनी चाहिये. विशेष रूप से आरक्षण के प्रावधानों को लेकर.
केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने इस मुद्दे पर सरकार का पक्ष रखते हुए बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हमेशा सामाजिक न्याय में भरोसा रखते आये हैं. और दावा किया कि प्रधानमंत्री मोदी की योजनाओं से हमारे समाज के कमजोर वर्गों के कल्याण में तेजा आई है… लेटरल एंट्री को आरक्षण के सिद्धांतों के अधीन लाने का फैसला समाजिक न्याय के प्रति प्रधानमंत्री मोदी का समर्पण भाव दिखाता है.
सरकार के कदम पीछे खींच लेने के बाद कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सोशल साइट X पर लिखा है, संविधान और आरक्षण व्यवस्था की हम हर कीमत पर रक्षा करेंगे… बीजेपी की लेटरल एंट्री जैसी साजिशों को हम हर हाल में नाकाम करके दिखाएंगे… मैं एक बार फिर कह रहा हूं कि 50 फीसदी आरक्षण सीमा को तोड़कर हम जातिगत गिनती के आधार पर सामाजिक न्याय सुनिश्चित करेंगे.
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति के आरक्षण में सब-कोटा लागू करने का फैसला सुनाया था. अदालत के आदेश को लागू करने के संबंध में बीजेपी के एससी-एसटी वर्ग के सांसदों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मुलाकात की थी. बाद में बताया गया कि प्रधानमंत्री ने सांसदों को आश्वासन दिया है कि केन्द्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर फिलहाल कोई विचार नहीं कर रही है, और बीजेपी के शासन वाले राज्यों की सरकारों का भी इसे लागू करने का कोई विचार नहीं है – कुल मिला कर लोगों को यही संदेश देने की कोशिश रही कि आरक्षण के संबंध में बीजेपी की सरकारें कोई भी बदलाव नहीं करेंगी – और राहुल गांधी तो उसके आगे की बात कर रहे हैं, 50 फीसदी आरक्षण की सीमा ही खत्म कराकर मानेंगे।
सवाल ये है कि क्या केंद्र सरकार ये सब फैसले राहुल गांधी के दबाव में लेने लगी है? राहुल गांधी ने लेटरल एंट्री को एंटी-नेशनल और सोशल जस्टिस की भावना के खिलाफ बताया था.
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