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    रामचरित मानस की बात ही निराली है

  • August 04, 2024

    – हृदयनारायण दीक्षित

    यूनेस्को की ‘मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रीजनल रजिस्टर’ में रामचरितमानस को एशिया पेसिफिक की 20 धरोहरों में शामिल किया गया है। रामचरितमानस पूरे विश्व में श्रद्धा के साथ पढ़ी जाती है। वैसे श्रीराम से जुड़ी घटनाओं पर राम कथा में अनेक ग्रंथ लिखे गए हैं। श्री वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण रामकथा का उत्कृष्ट ग्रंथ है। 20 हजार से अधिक श्लोकों में विस्तृत रामायण सारी दुनिया में चर्चित है। रामायण और महाभारत को भारत में महाकाव्य कहा जाता है। रामायण और महाभारत में दर्शन है, इतिहास है। तमाम प्रभावशाली आख्यान भी हैं। लेकिन रामचरितमानस की बात ही दूसरी है। रामचरितमानस में भक्ति है, परम सत्ता के प्रति समर्पण है। यह सीधी-सादी सरल भाषा में लिखी गई प्रतिष्ठित संरचना है। इसकी भाषा प्रवाहमान है, सरल है, बिना प्रयास के ही मस्तिष्क से हृदय में पहुंच जाती है। इसकी कथा ज्ञान और भक्ति से भरी पूरी है। तुलसीदास ने स्वयं इस कथा को लोकमंगल का दाता बताया है। मानस बालकांड 6 में तुलसीदास जी ने लिखा है, ”कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ। कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा।” यहां विनम्रता का चरम है।


    रामचरितमानस भक्ति भाव का ग्रंथ माना जाता है लेकिन तुलसीदास दार्शनिक स्तर पर वेदांती हैं। वे मानस की रचना की शुरुआत में उपनिषदों वाले ब्रह्म की चर्चा करते हैं, ”एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानंद पर धामा। ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना”-परमेश्वर एक हैं। वे इच्छारहित हैं। उनका कोई रूप और नाम नहीं है। वे अजन्मा हैं। सच्चिदानंद हैं। परमधाम हैं। वे सर्वत्र व्यापक हैं। विश्वरूप हैं। उन्हीं भगवान ने दिव्य शरीर धारण करके अनेक प्रकार की लीला की है। ब्रह्म अशरीरी हैं। रूप रहित हैं। सर्वत्र हैं। यह सर्वत्र उसके भीतर भी व्यापक है। वेदांतियों के लिए यह अजन्मा भले ही परमधाम हो लेकिन तुलसीदास इस विराट ब्रह्म को जन्म लेता हुआ देखते हैं। लिखते हैं कि वह भक्तों के हित के लिए शरीर धारण करता है। लीला करता है। तुलसी समाज के कवियों को प्रणाम निवेदन करते हैं-‘कलिके कविन करहुँ परनामा’। रामकथा गाने वाले सभी कवि तुलसीदास के लिए प्रणम्य हैं। काव्य के स्तर पर वेद पुराने हैं। तुलसीदास वेदों की प्रतिष्ठा से परिचित हैं। वे वेदों की वंदना भी करते हैं। कहते हैं, ”बंदउँ चारिउ बेद-वेद रामचरितमानस से प्राचीन हैं।”

    संसार विजयकामी है। तुलसीदास ने रामचरितमानस में युद्ध में विजय के लिए जरूरी रथ का उल्लेख किया है। तुलसी कहते हैं, ”रावनु रथी बिरथ रघुबीरा/देखि बिभीषन भयउ अधीरा-रावण रथ पर है और श्रीराम रथहीन।” विभीषण दुखी थे, उन्होंने श्रीराम से कहा, ”नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना/केहि बिधि जितब बीर बलवाना”-श्रीराम के पास न रथ है न कवच। जूते भी नहीं हैं। राम महानायक हैं। अयोध्या के राजकुमार हैं फिर भी रथ आदि का अभाव है। विभीषण के प्रश्न के उत्तर में श्रीराम कहते हैं, ”हे मित्र सुनो, जिस रथ से विजय होती है, वह रथ दूसरा ही है।” श्रीराम युद्ध के मैदान में हैं। लेकिन युद्ध में भी वे राष्ट्रजीवन के आदर्शों की ही चर्चा करते हैं। बताते हैं कि विजय रथ कैसा है, ”सौरज धीरज तेहि रथ चाका/सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका। बल बिबेक दम परहित घोरे/छमा कृपा समता रजु जोरे।” श्रीराम कहते हैं कि, ”शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील रथ के ध्वज पताका हैं। बल, विवेक, इन्द्रिय संयम व परोपकार उस रथ के घोड़े हैं। ये घोड़े क्षमा, दया और समता रुपी डोरी से रथ में जुड़े हुए हैं।” आगे कहते हैं, ”ईस भजनु सारथी सुजाना/बिरति चर्म संतोष कृपाना। दान परसु बुधि शक्ति प्रचंडा/बर बिग्यान कठिन कोदंडा-ईश्वर का भजन रथ का चालक है। वैराग्य ढाल है। संतोष तलवार है। बुद्धि प्रचंड शक्ति। विज्ञान धनुष है। यम और नियम बाण हैं।” श्रीराम कहते हैं, ”एहि सम बिजय उपाय न दूजा-इसके अलावा विजय का कोई दूसरा मार्ग नहीं है।” श्रीराम कहते हैं, ”जिसके पास ऐसा धर्ममय रथ है उसे जीतने के लिए कोई शत्रु ही नहीं है।” रामचरितमानस में राष्ट्रजीवन की सभी मर्यादा रथ प्रतीक में सम्मिलित है।

    रामचरितमानस में सबसे अच्छा वर्णन रामराज्य का है। दुनिया में राजव्यवस्था के अनेक मॉडल हैं। साम्यवाद, समाजवाद, उपयोगितावाद, लोककल्याण पर आधारित लोकतांत्रिक संसदीय पद्धति और प्लेटो का दार्शनिकवाद आदि राजव्यवस्था के कई उदाहरण हैं, लेकिन रामराज्य अनूठा है। अद्वितीय है। ऐसे राज्य दुनिया की किसी विचारधारा का सपना भी नहीं है। तुलसी इस राज्य पर मोहित हैं। तुलसी ही क्यों लगभग 500 वर्ष पहले लिखी गई रामचरितमानस का एक-एक शब्द जवान है। अजर अमर है। इसके शब्द और अर्थ चिर युवा हैं। राम रस से भरे पूरे। भारतीय अध्यात्म की अग्नि से तप्त। राम रसायन है मानस। श्रीराम लंका से लौटे, अयोध्या में स्वागत हुआ। तुलसी लिखते हैं, ”राम राज बैठे त्रैलोका। हर्षित भए गए सब सोका। बयरु न कर काहू सन कोई।” राम प्रताप बिषमता खोई-गैर बराबरी और विषमता को लेकर आधुनिक राजनीति में काफी नारेबाजी होती है, लेकिन तुलसी जैसा आत्मविश्वास अन्यत्र नहीं मिलता। तुलसीदास रामराज्य में सभी प्रकार के दुख की अनुपस्थित मानते हैं-”दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा। सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।” गांधी दुनिया के सबसे बड़े सेकुलर और सबसे बड़े धार्मिक नेता थे। डॉ. लोहिया भी ऐसे ही थे। गांधी ने रामराज्य का स्वप्न देखा, लोहिया ने रामायण मेला आयोजित किया। वे रामचरितमानस को रामायण कहते थे।

    तुलसी का राम राज्य तप मुक्त है। न दैहिक और न दैविक ताप। भौतिक ताप किसी को नहीं होता। तुलसी इसका कारण बताते हैं। सब नर करहि परस्पर प्रीती/चलहि स्वधर्म निरत श्रुति नीती। समाज के सभी सदस्य परस्पर प्रेम करते हैं। वैदिक नीति के अनुसार चलते हैं। रामराज्य में अल्प मृत्यु नहीं। कोई पीड़ा नहीं। सब सुदर्शन हैं। सब स्वस्थ शरीर वाले हैं। कम उम्र में किसी की मृत्यु नहीं होती। गरीबी का नामोनिशान नहीं, ”नहि दरिद्र कोऊ दुखी न दीना/नहि कोऊ अबुध न लक्षन हीना।” समता और संपन्नता का वर्णन बहुत सुंदर है। वृक्ष हमेशा फूलते-फलते हैं। हाथी और सिंह एक साथ रहते हैं। पक्षी मीठी बोली बोलते हैं। शीतल सुगंधित वायु चलती है। वृक्ष मांगते ही मधुरस टपका देते हैं-लता बिटप मागें मधु चवहीं। गाएं मीठा दूध देती हैं-मनभावतो धेनु पय स्रवहीं। मानस के शब्दों में सम्मोहन है। तुलसीदास ऋग्वेद से सामग्री लेते हैं और उपनिषदों से भी। यह बात वह छुपाते नहीं हैं। लिखते हैं कि यह कथा सभी पूर्ववर्ती ग्रंथों, पुराणों का अंश लेकर रची गई है। वर्षा ऋतु के वर्णन में तुलसी लिखते हैं, ”दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई”-वर्षा ऋतु में मेंढकों का गायन बोलना बड़ा अच्छा लगता है। यह वैसे ही बोलते हैं जैसे वेद पाठी बोल रहे हों। यह उदाहरण सीधे वैदिक साहित्य से लिया गया है। रामचरितमानस में प्राचीन भारतीय चिंतन की सभी धाराएं हैं। भारत के लिए प्रसन्नता की बात है कि रामचरितमानस यूनेस्को की ‘मेमोरी ऑफ द वर्ल्ड रीजनल रजिस्टर’ सूची में है।

    (लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)

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