अपनों के इंतजार में पथरा गईं आंखें.. बेगानों के साथ पिता का दिन
इंदौर। गीत गाते हैं (sing songs) …गुनगुनाते हैं (gunagunaate hain) …नाचते हैं (Dances) …कभी भजन (bhajan) तो कभी खुशी में प्रभु की सेवा में लीन हो जाते हैं…लेकिन अपनों के इंतजार में इनकी आंखें पथरा गई।
वृद्धाश्रम में रह रहे बुजुर्गों की फादर्स-डे पर आंखेंं छलक उठीं। बेगाने मिठाई खिलाने, कपड़े देने और दर्द बांटने पहुंचे, लेकिन अपनों ने ही सुध नहीं ली। लगभग 40 से अधिक बुजुर्ग पिता अपने बच्चों के इंतजार में दरवाजों पर टकटकी लगाए बैठे रहे। यह एक वृद्धाश्रम का नहीं, बल्कि हर उस वृद्धाश्रम का नजारा और कहानी है, जहां बच्चों ने माता-पिता को बोझ समझकर छोड़ दिया है। अग्निबाण ने फादर्स-डे पर शहर की दो संस्थाओं का दौरा किया तो बुजुर्गों ने अपना दर्द मानों उंड़ेलकर रख दिया। पितृ पर्वत परिसर में निराश्रित सेवाश्रम में निवास कर रहे भट्टाचार्यजी ने अपना दर्द बयां करते हुए बताया कि बड़ी कंपनी से जीएम पद से रिटायर होने के बाद सोचा था कि बच्चे मेरा आसरा बनेंगे, लेकिन उनके लिए मैं ही बोझ बन गया। शरीर को बीमारियों ने घेर लिया। लकवा लगा तो अपंग हो गया और बच्चों ने वृद्धाश्रम में भर्ती करा दिया। रीवा से इंदौर आकर रह रहे भट्टाचार्य का बेटा रेलवे में सीनियर टीसी पद पर कार्यरत है, लेकिन बस जल्दी आऊंगा की तसल्ली ही देता रहता है। पिता का दिल इतना बड़ा है कि वे इसमें अपने बेटे को नहीं, समय को दोष देते हैं।