– डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
18 वीं लोकसभा के लिए पहले चरण का 21 राज्यों की 102 लोकसभा सीटों के लिए मतदान संपन्न हो चुका है। दूसरे चरण का मतदान 26 अप्रैल को देश के 13 राज्यों की 89 लोकसभा सीटों के लिए होने जा रहा है। पहले चरण का मतदान 2019 की तुलना में कम हुआ है। यह अपने आप में चिंतनीय हो जाता है। मतदान कम होने के कारणों का विश्लेषण करने का ना तो यह सही समय है और ना ही यह विश्लेषण का समय है कि मतदान कम होने से किसे लाभ होगा या किसे हानि होगी। लाभ-हानि का आकलन करना राजनीतिक दलों का विषय हो सकता है। पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नागरिकों द्वारा मताधिकार का उपयोग नहीं करना अपने आप में गंभीर हो जाता है।
एक ओर हम निर्वाचित सरकार से अपेक्षाएं रखते हैं और रखनी भी चाहिए, वहीं हम अपनी सरकार चुनने के लिए घर से मतदान करने के लिए भी निकलना अपनी तौहीन समझने लगते हैं। आखिर इतने गैर जिम्मेदार नागरिक हम कैसे हो सकते हैं? यहां बरबस देश की सर्वोच्च अदालत की टिप्पणी पर ध्यान चला जाता है कि जब हम मतदान के दायित्व को पूरा नहीं कर सकते तो फिर चुनी हुई सरकार से सवाल करने या उससे किसी तरह की अपेक्षा रखने का हक भी हमें नहीं होना चाहिए। एक एनजीओ द्वारा दायर पीएल को इसी भावार्थ के साथ खारिज कर दिया गया था। वैसे भी हमारा दायित्व हो जाता है कि लोकतंत्र के इस महापर्व में हम समय निकाल कर अपने मताधिकार का प्रयोग करें। पांच साल में एक बार मिलने वाले अवसर को नकारात्मक सोच या गैर जिम्मेदारी से खो देना किसी भी हालात में उचित नहीं माना जा सकता।
लोकतंत्र के महायज्ञ में प्रत्येक मतदाता को अपने मताधिकार का उपयोग कर मतदान करके अपनी आहुति देने का अवसर मिलता है। ऐसे में मतदान का बहिष्कार या फिर लापरवाही के कारण मतदान नहीं करना किसी अक्षम्य अपराध से कम नहीं कहा जा सकता है। वर्तमान परिदृश्य में नोटा प्रयोग भी मंथन का विषय होना चाहिए। नोटा के प्रावधान को लेकर पक्ष-विपक्ष में अनेक तर्क दिए जा सकते हैं पर समय आ गया है कि उस पर बड़ी बहस हो और उसको अधिक प्रभावी या कारगर बनाने के प्रावधान किये जाये। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मतदान को लेकर की गई टिप्पणी भी इस मायने में महत्वपूर्ण हो जाती है कि यदि हम मताधिकार का प्रयोग नहीं करते हैं तो फिर सरकार के खिलाफ किसी तरह की ग्रिवेंस करना उचित नहीं ठहराया जा सकता। सजग व जिम्मेदार नागरिक के रूप में प्रत्येक मतदाता का दायित्व हो जाता है कि वह अपने मताधिकार का प्रयोग करे। अब तो निर्वाचन आयोग ने मतदान सुविधाजनक भी बना दिया है। बुजुर्ग व दिव्यांग मतदाताओं को घर बैठे मतदान का अवसर प्रदान कर दिया हैं वहीं, मतदाताओं के लिए जागरुकता अभियान से लेकर निष्पक्ष चुनाव के लिए कारगर कदम उठाये जाने लगे हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने चुनाव तिथियों की घोषणा करते समय साफ कर दिया कि आयोग चार एम पर प्रभावी कार्यवाही करने को प्रतिबद्ध है और उसकी सूक्ष्म निगरानी की जा रही है।
भले ही सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद ईवीएम में नोटा यानी कि नन ऑफ द अवोव का प्रावधान कर दिया गया हो पर एक जागरूक व जिम्मेदार मतदाता के लिए नोटा के प्रयोग को समझदारी भरा निर्णय नही माना जा सकता। कारण साफ है नोटा का बटन दबाकर अपनी भावना तो व्यक्त कर सकते हैं पर उसका इस मायने में कोई अर्थ नहीं रहता कि किसी की जीत-हार में उसका असर नहीं पड़ता। नोटा के प्रयोग के स्थान पर उपलब्ध विकल्पों में से ही किसी एक को चुनना ज्यादा बेहतर माना जा सकता है। हालांकि एक समय था जब कई बूथों पर विरोध स्वरूप मतदान का बहिष्कार करने का निर्णय कर लिया जाता था या फिर लोगों द्वारा उपलब्ध उम्मीदवारों में किसी को भी मत देने योग्य नहीं समझने के कारण विरोध का मत यानी नोटा के प्रयोग की मांग की जाती रही। नोटा का परिणाम प्रभावी तरीके से राइट टू रिजेक्ट होता तो अधिक कारगर होता।
तस्वीर का दूसरा पक्ष यह भी है कि अमेरिका सहित दुनिया के कई देशों में नोटा के प्रावधान को हटाया जा चुका है। यों कहें कि कई देशों में नोटा के प्रावधानों को कारगर नहीं पाने के कारण हटा दिया गया है। अमेरिका की ही बात करें तो वहां नोटा का प्रावधान रहा है पर 2000 आते-आते उसे हटा दिया गया। इसी तरह से रूस ने 2006 और पाकिस्तान में 2013 में नोटा प्रावधान को हटाया जा चुका है। देश के प्रबुद्ध नागरिकों, बुद्धिजीवियों, राजनीतिक विश्लेषकों, कानूनविद् को नोटा को लेकर गंभीर बहस छेड़नी होगी जिससे नोटा को वास्तव में चुनावों में हथियार के रूप में उपयोग किया जा सके। आज की तारीख में बात करें तो नोटा केवल और केवल आपके विरोध को दर्ज कराने तक ही सीमित माना जा सकता है।
पहले चरण के मतदान के दौरान देश के कई हिस्सों में कई मतदान केन्द्रों पर मतदान का बहिष्कार के समाचार भी देखने सुनने को मिले। यह भी अपने आप में सही विकल्प नहीं कहा जा सकता। आखिर मतदान का बहिष्कार कर हम अपना ही नुकसान कर रहे हैं। बहिष्कार से कुछ हासिल होना नहीं है। बल्कि आप जिस किसी से भी नाराज है तो उसके खिलाफ मतदान कर अपनी बात को रख सकते हैं। ऐसे में मतदान का बहिष्कार या नोटा का प्रयोग के स्थान पर मतदान अवश्य करना चाहिए। पहले चरण के कम मतदान को लेकर यह कहा जा रहा है कि गर्मी तेज थी, जागरुकता का अभाव, शादी विवाह होना या मुद्दों का ना होना जैसी बात की जा रही है पर यह सब बहाने हैं। मतदान केन्द्र कुछ ही दूरी पर है तो जागरुकता की जिम्मेदारी हमारी है। चुनाव आयोग लगातार जागरूक करने के साथ ही अब तो राजनीतिक दलों पर निर्भरता भी पूरी तरह से समाप्त कर दी है। शादी विवाह होने के बावजूद हमें समय निकाल कर मतदान तो करना ही चाहिए।
एक दूसरी बात और जिस पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है। आजादी के 75 साल बाद और दुनिया की सबसे बेहतरीन चुनाव व्यवस्था के बावजूद मतदान प्रतिशत 90 से 100 प्रतिशत के आंकड़े को नहीं छूना चिंता का विषय है। आज हालात बदल चुके हैं। कोई भी किसी को मतदान के अधिकार से जोर जबरदस्ती या अन्य कारण से रोक नहीं सकता। भारतीय चुनाव आयोग की निष्पक्ष चुनाव व्यवस्था को सारी दुनिया द्वारा सराहा जाता है और लोहा मानते हैं। इस सबके बावजूद मतदान का प्रतिशत कम होना गंभीर है। ऐसे में मतदान का बहिष्कार या मतदान नहीं करना जिम्मेदार मतदाता का काम नहीं हो सकता। पांच साल में एक बार आने वाले इस अवसर का उपयोग सकारात्मक सोच व उपलब्ध विकल्पों के आधार पर ही बेहतर तरीके से किया जा सकता है। इसलिए मतदान को अपना कर्तव्य समझ कर घर से बाहर निकलें और मताधिकार का उपयोग अवश्य करें यह सभी मतदाताओं के दिलोदिमाग में होना चाहिए। गैरसरकारी संगठनों व मीडिया को भी इसके लिए आगे आना चाहिए ताकि हम कह सके कि यह सरकार कम मतदान प्रतिशत के आधार पर चुनी हुई नहीं हैं। जिस तरह से रोजमर्रा के काम जरूरी हैं, उसी तरह से हमें मतदान को समझना होगा और बाकी 26 अप्रैल और इसके बाद के चरणों के मतदान पर्व को पर्व की तरह ही मनाना होगा।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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