– डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
देश में होने जा रहे लोकसभा चुनाव में फरवरी में आई अमेरिकी थिंकटैंक प्यू रिसर्च सेंटर की लोकतांत्रिक देशों को लेकर जारी सर्वेक्षण रिपोर्ट समीचीन हो गई है। यह रिपोर्ट कुछ लोगों के लिए चौंकाने वाली हो सकती है। वह इसलिए कि देशवासियों को डेमोक्रेसी का ऑटोक्रेसी मॉडल अधिक लुभा रहा है। सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार देश की लोकतांत्रिक सरकार की कार्य व्यवस्था को लेकर स्वीडन के बाद दूसरे नंबर पर भारत के लोग संतुष्ट है। स्वीडन में जहां 75 फीसदी लोग वहां लोकतांत्रिक सरकार के काम करने के तौर तरीके से संतुष्ट हैं वहीं भारत में 72 प्रतिशत लोग लोकतांत्रिक सरकार के काम करने के तौर-तरीकों को पसंद करते हैं। इस साल भारत समेत दुनिया के करीब 50 देशों में चुनाव होने जा रहे हैं। इस मायने में 24 देशों में किया गया यह सर्वेक्षण लोकतांत्रिक व्यवस्था को लेकर खास महत्व रखता है। मजे की बात यह है कि सर्वेक्षण में शामिल देशों में केवल 33 फीसदी अमेरिकी ही अपने यहां की लोकतांत्रिक सरकार के कार्य करने की व्यवस्था को लेकर संतुष्ट है। खैर यह तो अलग बात हुई। मगर सबसे चौंकाने वाला तथ्य यह है कि दुनिया के अधिकांश देशों की आम जनता बोल्ड निर्णय करने वाले नेता को अधिक पसंद करने लगी है। भारत के संदर्भ में यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। 2017 में 55 प्रतिशत देशवासी ऑटोक्रेसी को पसंद करते थे। अब उसका ग्राफ तेजी से बढ़ा है। आज 67 प्रतिशत लोगों को ऑटोक्रेसी (अधिनायकवादी नेता) पर अधिक विश्वास है। ऑटोक्रेसी पर विश्वास बढ़ने वाले देशों में भारत के अलावा केन्या, दक्षिण कोरिया, जर्मनी, पोलैंड सहित कई देश हैं। सर्वेक्षण में शामिल 24 में से आठ देशों में ऑटोक्रेसी के प्रति रुझान बढ़ा है।
दरअसल लोग निर्णय करने वाले नेता को पसंद करते हैं। कुछ करने का जज्बा ही देशवासी नेता में खोजते हैं। विपक्ष के लाख आरोप-प्रत्यारोपों के बीच नरेन्द्र मोदी पिछले दो चुनाव में लगातार जनता की पसंद बने रहे और 2024 का चुनाव भी लगभग उसी दिशा में बढ़ रहा है। विपक्षी दल मुद्दे बनाने के प्रयास करते हैं पर वहीं मुद्दे सेल्फ गोल में परिवर्तित होने लगते हैं। हालिया इलेक्शन बॉन्ड को लेकर जिस तरह से भाजपा को घेरने का प्रयास किया गया वह अभी तक तो सिरे नहीं चढ़ता नहीं नजर आ रहा है। समझने वाली एक महत्वपूर्ण बात यह हो जाती है कि चंदा देने वाले कौन हैं? साफ है पैसे वाले अमीर लोग। इलेक्शन बॉण्ड में पैसा तो अमीर लोगों से आ रहा है और उनका प्रतिशत इतना नहीं है कि वह चुनाव परिणाम को प्रभावित कर सके। इसके विपरीत सत्तारूढ़ दल को गरीब आम मतदाताओं का समर्थन प्राप्त है। यानी कि इसे मुद्दा बनाने के बावजूद नरेन्द्र मोदी या भाजपा आम मतदाता को अपने पक्ष में साधने में पूरी तरह सफल है। दूसरा यह कि कोई भी पार्टी हो उसके अधिकांश टिकट पैसे वाले लोगों को ही मिलते हैं।
जहां तक लोकतंत्र के ऑटोक्रेसी मॉडल की बात है आज नरेन्द्र मोदी पर यह आरोप खुले आम विपक्ष लगाता आ रहा है पर विगत के पन्ने खोलें तो नरेन्द्र मोदी का गुजरात मॉडल ही उन्हें केन्द्र की सत्ता दिलाने में सहायक रहा है। दरअसल देश को हमेशा सख्त मिजाज मजबूत नेता की आवश्यकता महसूस होती रही है। किसी भी दल से सख्त मिजाज नेता सामने आया है तो आमजन ने उसे हाथों हाथ लिया है। नेहरू को उस समय के संदर्भ में लोगों द्वारा महत्व दिया गया तो नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री को ईमानदार और दबंग नेता के रूप में आज भी याद किया जाता है। जय जवान-जय किसान जो आज एक कदम आगे बढ़कर जय जवान-जय किसान-जय विज्ञान हो गया है। 1971 की भारत-पाक लड़ाई और बांग्लादेश के गठन के चलते इंदिरा गांधी को देशवासियों ने सिर चढ़ाया।
इस सर्वेक्षण रिपोर्ट में ऑटोक्रेसी को पसंद करने वाले लोगों की 12 प्रतिशत बढ़ोतरी से साफ समझ में आ जाना चाहिए कि लोग परिणाम पर नहीं जाते, आलोचना-प्रत्यालोचना को भी खारिज कर देते हैं जब कोई निर्णय लेने में हिचकता नहीं है। नरेन्द्र मोदी के पक्ष में यही बात जाती है। नरेन्द्र मोदी पर विपक्ष तानाशाही और जुमलेबाज जैसे आरोप लगाते हैं पर 2014 और 2019 के चुनाव परिणाम तो विपक्ष के आरोपों को सिरे से नकार रहे हैं। 370, राम मंदिर, तीन तलाक, पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक जैसे बोल्ड निर्णय और विदेशी नेताओं के बीच बॉस की भूमिका को देशवासी अपना गौरव समझने लगे हैं। दरअसल इस तरह के अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। यही कारण है कि यह चुनाव भी मोदी बनाम विपक्ष के बीच लड़ा जा रहा है। लोकसभा के पिछले दो चुनाव भी मोदी के नाम से ही लड़े गए और जनता ने भारी बहुमत देकर सब कुछ साफ कर दिया। कुछ समय पहले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव भी भाजपा ने क्षेत्रीय क्षत्रपों के स्थान पर मोदी की गारंटी के नाम से लड़े। परिणाम सामने हैं।
दरअसल डेमोक्रेसी के नए रूप ऑटोक्रेसी में एक ही चेहरा-एक ही नाम पर लड़ा जाता है। इस लोकसभा चुनाव में भी यही हालात है। कहने को भले ही यह कहा जा रहा है कि 2024 के चुनाव की दशा और दिशा नरेन्द्र मोदी, अमित शाह, राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, शरद पवार, एमके स्टालिन, तेजस्वी यादव, असदुद्दीन औवेसी तय करने वाले हैं। मगर जमीनी हकीकत तो यह है कि 2024 का चुनाव एक ही चेहरा-एक ही नाम नरेन्द्र मोदी के इर्द-गिर्द है। नरेन्द्र मोदी बनाम समूचा विपक्ष चुनाव आकार ले चुका है। पहले चरण की 102 लोकसभा सीटों के लिए 19 अप्रैल को मतदान होना है। अब राजनीतिक दलों को यह समझ लेना होगा कि आमजन को मुखर और निर्णय लेने की क्षमता वाला नेता चाहिए। सत्ता में आना है तो आमजन तक यह संदेश जाना जरूरी है। आज विपक्ष में ऐसा कोई नेता नजर नहीं आ रहा।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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