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    इस बार का आम चुनाव वादों और दावों की जगह गारंटी और भरोसे, प्रभावी नारे भी नदारद

  • April 05, 2024

    नई दिल्ली (New Delhi)। इस बार का आम चुनाव (General election) वादों और दावों (Promises and claims) की जगह गारंटी और भरोसे (guarantees and trusts) का है। हालांकि पहले चरण का मतदान बमुश्किल दो सप्ताह दूर है, इसके बावजूद केंद्रीय मुद्दों (central issues) और प्रभावी नारों के अभाव में चुनाव प्रचार में उफान नहीं दिख रहा। शांत मतदाता न तो गारंटी की ओर भरोसे से देख रहे हैं और न ही भरोसे पर गारंटी देने का संकेत दे रहे हैं। न तो किसी मुद्दा विशेष पर देश में बहस छिड़ी है और न ही कोई ऐसा नारा है, जो लोगों की जुबान पर चढ़ा हो।


    हालांकि भाजपा के नेतृत्व वाले सत्तारूढ़ एनडीए और कांग्रेस के नेतृत्व वाले विपक्षी गठबंधन के साथ कई क्षेत्रीय दल अपने-अपने मुद्दों को केंद्र में लाने की कोशिश जरूर कर रहे हैं। विपक्षी गठबंधन केंद्रीय एजेंसियों के कथित दुरुपयोग, चुनावी बॉन्ड और केंद्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना के मुद्दे को तूल देने की कोशिश कर रहा है। इस क्रम में इनकी चार मार्च को पटना, तो 31 मार्च को राजधानी दिल्ली में बड़ी रैली हो चुकी है। भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और अध्यक्ष जेपी नड्डा लगातार जनसभाएं कर रहे हैं। इनकी कोशिश केंद्रीय योजनाओं के कारण आए सकारात्मक बदलाव और हिंदुत्व से जुड़े राम मंदिर निर्माण, अनुच्छेद-370 का खात्मा, सीएए जैसी उपलब्धियों को मुद्दों के केंद्र में लाने की है।

    मुद्दों को लेकर निरंतरता नहीं, सीट बंटवारे में ही उलझा विपक्ष
    चुनाव प्रचार के उफान पर न आने का सबसे बड़ा कारण मुद्दों को लेकर विपक्ष में निरंतरता प्रदर्शित करने का अभाव है। खासतौर से विपक्षी गठबंधन बनने के बाद भी विपक्ष मैदान में खुलकर उतरने के बदले सीट बंटवारे की गुत्थी सुलझाने में ही उलझा है। भले ही यह गठबंधन दो बार एक मंच पर आने में सफल रहा है, मगर राहुल गांधी, प्रियंका गांधी या कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे मोदी, शाह, नड्डा की तुलना में बहुत कम जनसभाओं को संबोधित कर रहे हैं।

    बीते चुनाव में चढ़ गया था रंग
    2019 का आमचुनाव इस चुनाव से बिल्कुल अलग था। चुनाव की अधिसूचना जारी होने से पूर्व ही सियासी मैदान भ्रष्टाचार बनाम राष्ट्रवाद का रूप ले चुका था। कांग्रेस नेता राहुल गांधी राफेल सौदे में भ्रष्टाचार का आरोप लगा कर चौकीदार चोर है, के नारे लगवा रहे थे, जबकि भाजपा पुलवामा आतंकी हमले के जवाब में पाकिस्तान के खिलाफ हुई एयर स्ट्राइक को मोदी है तो मुमकिन है नारा लगा रही थी। राफेल मामले में पीएम पर व्यक्तिगत हमले को भाजपा गरीब पर हमले से जोड़ रही थी। इन दोनों ही मुद्दों पर तब राष्ट्रव्यापी चर्चा शुरू हो चुकी थी।

    कांग्रेस की पांच न्याय, 25 गारंटी
    घर घर गारंटी अभियान की शुरुआत कर चुकी कांग्रेस पहली नौकरी पक्की, भर्ती भरोसा, पेपर लीक मुक्ति, गिग वर्कर सुरक्षा और युवा रोशनी गारंटी के रूप में अलग-अलग वर्गों को साधने की कोशिश की है। इसके अलावा पार्टी ने महिला, किसान, श्रमिक और हिस्सेदारी न्याय के तहत अलग-अलग वर्गों के लिए कई वादे किए हैं। हालांकि पार्टी का घोषणापत्र अब तक जारी नहीं हुआ है।

    भाजपा का मोदी भरोसा, मोदी गारंटी
    एनडीए के लिए अबकी बार चार सौ पार, तो अपने लिए 370 सीटें जीतने का दावा कर रही भाजपा ने मतदाताओं को साधने के लिए ब्रांड मोदी को हथियार बनाया है। पार्टी युवाओं के विकास, महिलाओं के सशक्तीकरण, किसानों के कल्याण और हाशिये पर पड़े कमजोर लोगों के सशक्तीकरण के लिए मोदी गारंटी दे रही है। जबकि विकसित भारत के निर्माण और देश की तीसरी अर्थव्यवस्था बनाने की गारंटी दे रही है।

    स्थानीय रणनीति दिखाएगी कमाल
    किसी एक मुद्दे को केंद्र में लाने की सत्तारूढ़ और विपक्षी गठबंधन की तमाम कोशिशें सिरे नहीं चढ़ी हैं। विपक्षी गठबंधन के नेता लालू प्रसाद की पीएम मोदी पर व्यक्तिगत टिप्पणी के खिलाफ भाजपा ने मोदी का परिवार अभियान चलाया। भाजपा इंदिरा सरकार के समय तमिलनाडु से सटे कच्चातिवु द्वीप को श्रीलंका को दिए जाने के मुद्दे पर आक्रामक है। वहीं, विपक्षी गठबंधन कभी केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग, कभी चुनावी बॉन्ड में भ्रष्टाचार, तो कभी केंद्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना को मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही है।

    प्रबंधन तय करेगा हार और जीत
    चुनाव विश्लेषकों का मानना है कि चुनाव मुद्दाविहीन रहा, तो हार-जीत तय करने में स्थानीय मुद्दे अहम भूमिका निभाएंगे। जो दल स्थानीय समीकरण साधेगा, चुनाव प्रबंधन बेहतर होगा, वह बाजी मार लेगा। विश्लेषक इसके लिए पांच राज्यों के हालिया विधानसभा चुनाव का उदाहरण देते हैं। कर्नाटक और तेलंगाना में भ्रष्टाचार मुद्दा था, जबकि मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान करीब-करीब मुद्दाविहीन था। इस कारण कर्नाटक व तेलंगाना में सत्ता बदली, जबकि तीन राज्यों में भाजपा ने बेहतर प्रबंधन से बाजी मार ली।

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