– ऋतुपर्ण दवे
इसे व्यवस्था की नाकामी कहें या भ्रष्टाचार का खेल, लेकिन सच्चाई यही है कि इंसान की जान से बेपरवाह लोग, पैसे की हवस के आगे दरिन्दे बन मौत के सौदागर तक बन जाते हैं। कैंसर की नकली दवा बनाने वाले गिरोह के राष्ट्रीय राजधानी में पकड़े जाने के बाद लोग हैरान-परेशान हैं। यूं तो भारत में नकली दवाओं के खेल का सिलसिला लंबे वक्त से जारी है, जो रुकने का नाम नहीं ले रहा। इसका दूसरा पहलू यह भी कि इसे रोकने की खातिर लंबे-चौड़े अमले पर भारी भरकम खर्च और सख्त कानून के बावजूद जारी रहना खुद में बड़ा सवाल है। शासन-प्रशासन के नुमाइंदे नक्कालों से सावधान का राग अलापते रहें तो अटपटा जरूर लगता है।
दिल्ली पुलिस ने हाल ही में तमाम सुबूतों के साथ कैंसर की नकली दवा बनाने वाले जिस गिरोह का पर्दाफाश किया उसमें 12लोग शामिल हैं। दुखद यह कि आरोपितों में दो जाने-माने कैंसर अस्पताल के कर्मचारी हैं। निश्चित रूप से पूरा गैंग सारी तैयारियों से इस काम में जुटा था। पिछले साल विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत मे बिक रही कैंसर और लिवर की नकली दवाओं को लेकर चेताया था। नकली दवाओं के असली निर्माताओं ने भी दावा किया था कि उनके नाम व ब्रान्ड पर भारत में नकली दवाओं का असली खेल चल रहा है। तब कुछ ठोस कार्रवाई होती दिखी नहीं।
शर्मनाक यह भी कि भारत के औषधि महानियंत्रक यानी ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया तक बेसुध रहे कि कैंसर तथा लिवर के नकली इंजेक्शन धड़ल्ले से और खुले आम कैसे बिक रहे हैं। संगठन ने चेताया लेकिन यहां किसे होश आया? यह तो ठीक वैसा ही हुआ जैसे कोरोना के नकली रेमेडिसविर इंजेक्शन ने न जाने कितनों की जान ले ली और जिम्मेदार बेसुध रहे? संगठन की चेतावनी के बाद यह जरूर माना गया था कि देश में कैंसर में इस्तेमाल होने वाला इंजेक्शन एडसेट्रिस के आठ अलग-अलग नाम व प्रकार के नकली उत्पाद सहित लिवर की नकली दवा डिफिटेलियो भारतीय बाजार में मौजूद हैं। सवाल यही कि जानकर भी महकमे ने क्या किया? यकीनन दिल्ली पुलिस ने काबिल-ए-तारीफ काम किया।
दिल्ली में पकड़े गए इस अकेले गिरोह ने दो साल में ही करोड़ों रुपये की दौलत बनाई। पैसों के भूखे इन नरपिशाचों की करतूत रोंगटे खड़े करने वाली हैं। बेहद सुनियोजित तरीकों से अपने काम को अंजाम देता यह गिरोह कैंसर की दवा की खाली शीशी पांच हजार रुपये में खरीदता जिसकी कीमत 2.96 लाख रुपये तक होती। इनमें फ्लूकोनॉजोल जो कि एक एंटी फंगल दवा है जो करीब 100 रुपये में आती है भरता और इंजेक्शन में नकली दवाइयों को मिलाकर बाजारों में सप्लाई करता। यह दवा कीमोथेरेपी में उपयोग होती जो बेअसर होने के साथ जानलेवा भी रही। असली दवा की कीमत हजारों से लेकर लाखों रुपये तक होती। इस अकेले गैंग के पास से 89 लाख रुपये नकद, 18 हजार रुपये के डॉलर और चार करोड़ रुपये की 7 अंतरराष्ट्रीय और 2 भारतीय ब्रांडों की कैंसर की नकली दवाएं बरामद होना ही इनके बड़े नेटवर्क का संकेत है। इसके तार भारत ही नहीं बल्कि चीन और अमेरिका तक फैले हैं।
यकीनन नकली दवा का असली खेल बेहद चिंताजनक है। ऐसे तमाम गिरोहों को बेनकाब कर लोगों की जान से खिलवाड़ रोकने के लिए सख्ती और सतर्कता जरूरी है। नकली दवा की पहचान का भी तरीका है। दवा पर दर्ज क्यूआर कोड स्कैन करते ही दवा का डिटेल मिल जाएगा। कोड नहीं होने पर नकली हो सकती है। कोड से दवा की जानकारी ड्रग विभाग की वेबसाइट पर मिलेगी जो मिलाई जा सकती है जो यहां सबके बस की बात नहीं।
अमेरिकन कैंसर सोसायटी के जाने-माने जर्नल ग्लोबल आंकोलॉजी के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2000 से 2019 के बीच भारत में कैंसर से 1 करोड़ 28 लाख से भी ज्यादा मौतें हुईं। वहीं भारतीय नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम के केवल दो वर्ष के आंकड़े बताते हैं कि 2020 से 2022 के दौरान देश में 23 लाख 67 हजार 990 लोगों की मौत कैंसर के किसी न किसी प्रकार से हुई। भला कैसे पता चलेगा कि इनमें नकली दवा से कितनों की जान गई? शायद कभी नहीं।
बड़ा सवाल यह कि हराम की कमाई के चक्कर में खुलेआम आंखों में धूल झोंकने वाले ये मौत के सौदागर कभी फांसी के फन्दे तक पहुंच पाएंगे? इन्हें नजरअंदाज करने वाले जिम्मेदारों पर भी क्या कभी फंदा कसेगा? यकीनन कैंसर जैसी घातक और दर्दनाक बीमारी झेल रहे किस्मत के मारे अधमरे लोगों की जिंदगी से खेलने वाला हर वो शख्स इस पाप का बराबर भागीदार है जिसे इस घिनौने खेल का पता था।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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