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    अंकगणित के साथ विमर्श के मोर्चे पर भी पिछड़ी कांग्रेस

  • February 19, 2024

    – विकास सक्सेना

    देश के आम चुनाव के लिए सौ दिनों से भी कम समय बचा है, सभी राजनैतिक दल इसके लिए अपने-अपने तरीके से सियासी बिसात बिछा रहे हैं। विपक्षी दलों के कई नेताओं के साथ आने से भाजपा का कुनबा बढ़ रहा है तो विपक्षी गठबंधन बनाकर भाजपा विरोधी विमर्श खड़ा करने की जुगत में लगी कांग्रेस को इस साल की शुरुआत से ही एक के बाद एक झटके लग रहे हैं। केरल, पश्चिम बंगाल, पंजाब और दिल्ली में गठबंधन की संभावना खत्म होने से चुनावी अंकगणित के मामले में कांग्रेस तेजी से पिछड़ ही रही थी। इसी बीच पार्टी ने पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी को राजस्थान से राज्यसभा भेजने का हैरान करने वाला निर्णय लिया है। उत्तर प्रदेश की रायबरेली सीट को छोड़ कर सुरक्षित तरीके से राज्यसभा सांसद बनने के फैसले से विमर्श के मोर्चे पर भी कांग्रेस पिछड़ गई है।


    केंद्र की सत्ता से भाजपा को बेदखल करने के लिए कांग्रेस और कई क्षेत्रीय दलों ने गठबंधन तैयार किया है। इससे उत्साहित मोदी विरोधी दलों के नेता कह रहे थे सामूहिक विपक्ष का उम्मीदवार उतार कर वे आसानी से भाजपा को हरा सकते हैं। अपने दावों को पुष्ट करने के लिए वे पिछले चुनावों में भाजपा को मिले वोट और अन्य दलों को मिले मतों का अंकगणित लगा कर यह समझाने की कोशिश में जुटे हैं कि जो वोट भाजपा को नहीं मिले हैं वे विपक्ष के साझा उम्मीदवार को मिल जाएंगे। इस तरह विपक्षी गठबंधन अजेय दिख रही भाजपा को आसानी से हरा देगा। इसके साथ ही चुनावी रैलियों में प्रमुख क्षेत्रीय नेताओं के एक मंच पर एकजुटता दिखाने से भाजपा विरोधी विमर्श तैयार करना भी आसान होगा। भाजपा के खिलाफ वातावरण तैयार करने के लिए कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने मणिपुर से भारत जोड़ो न्याय यात्रा प्रारम्भ की है। इस यात्रा के पश्चिम बंगाल पहुंचने से पहले ही विपक्षी गठबंधन की प्रमुख नेता ममता बनर्जी ने ऐलान कर दिया कि उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस पश्चिम बंगाल की सभी सीटों पर अकेले चुनाव लड़ेगी। इसी तरह पंजाब में आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री भगवत सिंह मान भी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से समझौता न करने की बात कर ही रहे थे कि अब दिल्ली में भी आम आदमी पार्टी, कांग्रेस को सात में से सिर्फ एक सीट छोड़ने की बात कर रही है।

    विपक्षी गठबंधन के नेताओं और शुभचिंतकों को सबसे ज्यादा उम्मीदें बिहार से थीं। यहां राजद, जदयू, कांग्रेस और वामदलों के महागठबंधन की सरकार भी चल रही थी। यहां मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ही पटना में पहली बैठक आयोजित करके विपक्षी गठबंधन की नींव रखी थी। लेकिन राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा के बिहार पहुंचने से पहले ही नीतीश कुमार एक बार फिर पाला बदल कर राजग में शामिल हो गए हैं। केरल में मुख्य मुकाबला माकपा के नेतृत्व वाले एलडीएफ और कांग्रेस नीत यूडीएफ के बीच होता है यहां भाजपा का जनाधार सीमित है। लोकसभा चुनाव 2019 में राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश की अमेठी सीट के अलावा केरल के वायनाड से भी चुनाव लड़ा था। यहां की 20 में से 19 सीटों पर कांग्रेस गठबंधन ने जीत हासिल की थी। इसको लेकर वामदल काफी चौकन्ने हैं। केरल के कम्युनिस्ट नेता कांग्रेस पर तीखे हमले कर रहे हैं और उन्होंने लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से किसी तरह का समझौता न करने का ऐलान किया है।

    उत्तर प्रदेश में बसपा सुप्रीमो मायावती के गठबंधन में शामिल न होने की घोषणा से ही विपक्षी एकता की बातें औचित्यहीन लग रही थीं लेकिन रालोद नेता जयंत चौधरी के राजग में शामिल होने के बाद तो विपक्षी कुनबा बुरी तरह बिखर चुका है। सपा और कांग्रेस के तमाम कार्यकर्ता पार्टी नेताओं के राममंदिर विरोधी बयानों से असहज महसूस कर रहे हैं। हिन्दू धर्म, भगवान राम और रामचरित मानस के खिलाफ लगातार अनर्गल बयानबाजी कर रहे सपा के राष्ट्रीय महासचिव स्वामी प्रसाद मौर्य ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। उनकी शिकायत है कि उनके बयानों को पार्टी की तरफ से समर्थन नहीं मिल रहा है जबकि सपा नेताओं का एक वर्ग उनके बयानों से नाराज है और उनके खिलाफ कार्रवाई चाहता है। राज्यसभा चुनाव में टिकट वितरण को लेकर अपना दल (कमेराबादी) की विधायक पल्लवी पटेल ने भी बगावत कर दी है। उन्होंने सपा पर पीडीए (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) की उपेक्षा का आरोप लगाते हुए राज्यसभा चुनाव में सपा के उम्मीदवार को वोट न देने की घोषणा की है।

    लगातार दो लोकसभा चुनावों में अकेले अपने दम पर पूर्ण बहुमत के आंकड़े से अधिक सीटें जीत भाजपा ने देश की राजनीति की दिशा को बदल दिया है। एक समय था जब हर चुनाव से पहले सत्ता विरोधी रुझान की चर्चा आम हुआ करती थी। राजनैतिक विश्लेषक इसी आधार पर चुनावी नतीजों का आकलन किया करते थे। लेकिन वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों के मुकाबले 2019 के चुनावों में अधिक सीटें जीतकर भाजपा ने इस मिथक को तोड़ दिया। भाजपा के लगातार बढ़ते जनाधार से कांग्रेस और तमाम क्षेत्रीय दलों को अपना राजनैतिक अस्तित्व खतरे में नजर आने लगा है। खासतौर से केंद्र सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनाए गए सख्त रवैये और केंद्रीय जांच एजेंसियों प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई और आयकर विभाग की कार्रवाइयों से भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे राजनेता और नौकरशाह भयाक्रांत हैं। हालांकि विपक्षी नेता लगातार आरोप लगा रहे हैं कि केंद्र सरकार जांच एजेंसियों को राजनैतिक हथियार की तरह प्रयोग कर ही रही है, लेकिन हकीकत यह है कि जांच एजेंसियों ने छापे मारकर नोटों के पहाड़ बरामद किए हैं। और इन संस्थाओं ने जिन नेताओं को गिरफ्तार किया है उन्हें न्यायालय से भी राहत नहीं मिल रही है। ऐसे में वे लोगों को इस बात के लिए संतुष्ट नहीं कर पा रहे हैं कि वे निर्दोष हैं और उनका बेवजह उत्पीड़न किया जा रहा है।

    लोकसभा चुनाव में भाजपा को पछाड़ने के लिए विपक्षी दलों के रणनीतिकार दो स्तरों पर प्रयास कर रहे थे। एक तरफ वे भाजपा के खिलाफ पड़े वोटों को एक खेमे में दिखाकर अंकगणित के हिसाब से विपक्षी गठबंधन को मजबूत दिखाने की कोशिश कर रहे थे। दूसरी ओर अलग अलग राज्यों के प्रमुख क्षेत्रीय नेताओं को एक मंच पर लाकर भाजपा विरोधी लहर का विमर्श खड़ा करने की जुगत में लगे थे। ताकि देश की जनता को यह विश्वास दिलाया जा सके कि चारों तरफ भाजपा और मोदी के खिलाफ माहौल बन रहा है। लेकिन पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, केरल में पी बिजयन, पंजाब और दिल्ली में केजरीवाल की बेरुखी और बिहार में नीतीश कुमार, उप्र में जयंत चौधरी और महाराष्ट्र में अशोक चव्हाण के पाला बदलने से विपक्षी गठबंधन की चूलें हिल गई हैं। अब सोनिया गांधी के राजस्थान के रास्ते राज्यसभा जाने से भाजपा और उसके समर्थकों को यह विमर्श खड़ा करने में आसानी होगी कि कांग्रेस की नेता हार के डर से जनता की अदालत में जाने के बजाय सुरक्षित रास्ते से राज्यसभा में जा रही हैं।

    राममय वातावरण के बीच उत्तर प्रदेश के साथ पूरे देश में भाजपा की चुनावी संभावनाएं और भी बेहतर हुई हैं। रामलला मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह का बहिष्कार करने से कांग्रेस और दूसरे भाजपा विरोधी दलों के तमाम कार्यकर्ताओं में पहले से ही नाराजगी और निराशा है। ऐसे में सोनिया गांधी को चुनावी समर से दूर रखने का फैसला कार्यकर्ताओं के मनोबल को तोड़ सकता है। टूटे मनोबल वाले कार्यकर्ताओं के दम पर चुनाव जीत पाना संभव नहीं है।

    (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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