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    देश में परिवार पर आधारित पार्टियां में संकट; सियासी दल कई चुनौतियों में उलझें

  • February 08, 2024

    नई दिल्‍ली (New Dehli)। देश में परिवार आधारित पार्टियां संकट (family based parties crisis)में हैं। इनमें से कई दलों के सामने वजूद बचाने (save existence)की भी चुनौती (challenge)है। महाराष्ट्र में शिवसेना के बाद राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) को तगड़ा झटका (heavy blow)लगा है। बिहार में लोक जनशक्ति पार्टी दो हिस्सों में बंट चुकी है और झारखंड में जेएमएम के सामने भी कई मुश्किलें हैं। यह संकट सिर्फ इन राज्यों तक सीमित नहीं है। उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब के कई सियासी परिवार भी चुनौतियों से जूझ रहे हैं।

    एनसीपी में चल रही वर्चस्व की लड़ाई में परिवारवाद बड़ा मुद्दा है। ऐसा नहीं है कि एनसीपी में पहली बार बगावत हुई है। इससे पहले भी कई बार पार्टी नेता अलग हुए हैं पर परिवार के अंदर चल रही वर्चस्व की लड़ाई एनसीपी पर भारी पड़ी। हालांकि, सुप्रिया सुले कहती हैं कि कार्यकर्ता शरद पवार के साथ हैं और वह फिर से पार्टी का निर्माण करेंगे।


    कई पार्टियों में मतभेद

    इससे पहले शिवसेना भी अंदरूनी बगावत की वजह से दो हिस्सों में बंट चुकी है। बिहार में लोक जनशक्ति पार्टी के अंदर भी ठीक इसी तरह झगड़ा हुआ और पार्टी के दो हिस्से हो गए। हालांकि, वजूद बचाए रखने की लड़ाई में लोजपा के दोनों हिस्से एनडीए का हिस्सा हैं। झारखंड में पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के बाद जेएमएम भी संकट में है।

    यादव और बादल परिवार के सामने भी सियासी संकट

    उत्तर प्रदेश की सियासत में अहम भूमिका निभाने वाला यादव परिवार भी सियासी संकट से जूझ रहा है। समाजवादी पार्टी की कमान संभालने के बाद अखिलेश यादव को लगातार दो विधानसभा और दो लोकसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। पंजाब में बादल परिवार भी मुश्किलों का सामना कर रहा है। पार्टी के मुखिया प्रकाश सिंह बादल एक दशक तक मुख्यमंत्री रहे, पर 2022 के विधानसभा चुनाव में सुखबीर सिंह बादल अपनी परंपरागत सीट जलालाबाद से हार गए।

    संस्थापक का करिश्मा कम होने पर खड़ी होती मुश्किल

    परिवार आधारित सियासी पार्टियों पर आए इस संकट को राजनीतिक जानकार परिवार के अंदर वर्चस्व की लड़ाई और शुरुआती नेता के करिश्में से जोड़ते हैं। महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय (एमडीयू) के राजनीतिक शास्त्र के प्रोफेसर राजेंद्र शर्मा मानते हैं कि यह पार्टियां सस्थापक नेता के करिश्मे पर अस्तित्व में आती हैं। चौधरी देवीलाल, लालू प्रसाद यादव, शरद पवार, बाला साहेब ठाकरे, प्रकाश सिंह बादल और शीबू सोरेन इसकी मिसाल हैं।

    राजेंद्र शर्मा कहते हैं कि नेता का करिश्मा कम होने पर परिवार और पार्टी के अंदर वर्चस्व की लड़ाई शुरू हो जाती है। पार्टी एकजुट रहती है, तो भी दूसरी पीढ़ी में वह करिश्मा नहीं रहता। यहीं से पार्टियों के सामने संकट की शुरुआत होती है। ऐसे में इन पार्टियों के सामने बड़ी चुनौती है। इससे पार पाने के लिए परिवार आधारित पार्टियों को कड़ी मेहनत करते हुए विधानसभा और लोकसभा चुनाव में खुद को सिद्ध करना होगा।

    जेएमएम में छिड़ सकती वर्चस्व की लड़ाई

    राजनीतिक जानकार मानते हैं कि झारखंड मुक्ति मोर्चा के सामने सबसे बड़ी चुनौती खुद को एकजुट रखना है क्योंकि, हेमंत सोरेन के जेल जाने के बाद सोरेन परिवार में वर्चस्व की लड़ाई जोर पकड़ सकती है। ऐसे में झारखंड के मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन के लिए हेमंत की गैरमौजूदगी में पार्टी का नेतृत्व करना आसान नहीं होगा। हालांकि, उनके लिए राहत की बात यह है कि जेएमएम मुखिया शिबू सोरेन जरूरत पड़ने पर पार्टी के मामलों में हस्तक्षेप करते हैं।

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