– श्रमण डॉ. पुष्पेन्द्र
कुलों को धारण करने वाले कुलकर कहलाते हैं, जिन्हें ‘मनु’ भी कह कहते हैं। अंतिम कुलकर नाभिराय थे, जिन्हें तिलोयपणत्ती में भी मनु कहा गया है। इसके अनंतर श्लाका पुरुषों का उल्लेख आता है। उसमें 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलभद्र, 9 नारायण और 9 प्रति नारायण इस तरह कुल 63 शलाका पुरुष हुए हैं। नौ बलदेवों में ‘राम’ का उल्लेख है। प्रागैतिहासिक काल में राम को पुरुषोत्तम कहा गया है। वे असाधारण व्यक्तित्व के धनी थे। वे “नरत्त्व” से “नारायणत्व”की ओर अग्रसर हुए, उन्हें परम प्रतापी, धर्मज्ञ, कर्तव्य परायण, पितृ आज्ञाकारी, मातृशक्ति के प्रति आस्थावंत, गम्भीर, धीर-वीर एवं नैतिक गुणों से परिपूर्ण परिलक्षित किया गया है।
प्राकृत में रचित अनेक काव्यों में ‘राम’ को “पद्म” भी कहा गया है। विमलसूरि ने “पउमचरियं” नामक ग्रन्थ की प्राकृत में रचना की है। यह काव्य पौराणिक है, इसमें ‘राम’ के चरित्र की यथार्थवादिता के भी दर्शन होते हैं। इसमें प्राकृतिक घटनाओं, मानवीय मूल्यों, धार्मिक वातावरण, सामाजिक रीतियां एवं रूपात्मक विवरण है। इसमें परम प्रतापी पुरुषों के जीवनवृत्त आदि भी का समावेश है।
जैन रामकथा पैराणिक कथा है, इसमें लोकतत्व, कालतत्व, वंश परंपरा आदि भी विद्यमान है। जैन रामकथा में राम, लक्ष्मण, भरत आदि के चित्रण के साथ रावण, जटायु आदि के पूर्वजन्मों की कथाएं भी विद्यमान हैं। राम शलाका पुरुष हैं। पुरुषोत्तम हैं व पद्म सदृश होने से इन्हें ‘पद्म’ भी कहा गया है। चरित्र एवं पुराण काव्यों में राम को ‘पद्म’ उल्लेखित किया गया है।
इसी प्रचलित ‘पद्म’ शब्द के आधार पर आचार्य रविषेण ने “पद्मपुराण” लिखा। सोमदेव भट्टारक, धर्म कीर्ति भट्टारक ने संस्कृत भाषा में एवं महाकवि स्वयंभू ने अपभ्रंश में ‘राम’ का चित्रण किया है। कवि रइधू, चन्द्रकीर्ति एवं ब्रह्मजिनदास ने भी अपभ्रंश में “पउमचरीउं” ग्रन्थ की रचनाओं में “राम” के लौकिक व धार्मिक स्वभाव का बड़ा ही मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है।
“पुरुषोत्तम श्रीराम” जैन धर्म के बींसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत काल में हुए। जो सहस्रों वर्षों का काल माना जाता है। “राम” भरतखण्ड के साकेत में उत्पन्न हुए, जिसे अयोध्या भी कहा गया है। अयोध्या, चित्रकूट, दसपुर, दण्डकवन, किष्किन्धा आदि स्थान जंबूद्वीप के अन्तर्गत “भरत खण्ड” में विद्यमान थे। भरतखण्ड को “भरतक्षेत्र” भी कहा जाता है। भरतक्षेत्र के उत्तर में हिमवान पर्वत और मध्य में विजयारध पर्वत होने का उल्लेख मिलता है और ‘राम’ का सबंध भरतक्षेत्र से रहा है जो कि अपने आप अतुलनीय है।
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव इक्ष्वाकु वंश के थे। इक्ष्वाकु वंश की इसी पृष्ठभूमि से ‘सूर्यवंश” का उद्भव हुआ है। इसीलिए राम सूर्यवंशी कहलाए। श्रीराम आठवें बलदेव हैं जिसे तिलोयपणत्ती में भी देखा व समझा जा सकता है। वस्तुतः राम पुरुषोत्तम हैं। वे अन्याय एवं अत्याचारों को जड़ मूल से समाप्त करने के लिए जन्म लेते हैं। वे उत्तमोत्तम कर्म करने वाले महापुरुष रहे हैं। वस्तुतः राम अपने युग के पुरुषोतम थे और आज भी पुरुषोत्तम राम बने हुए हैं तथा जनमानस को भी पुरुषार्थ पुरुषोत्तम बनने का सफल संदेश दे रहे हैं।
राम अयोध्यापति दशरथ के पुत्र थे। वैदिक, जैन एवं बौद्ध परंपरा में ‘राम’ के विविध आदर्श हैं। जो हजारों वर्षों से जन मानस को चेतना का पाठ पढ़ा रहे हैं। ‘राम’ के चरित्र में आत्मस्वरूप की उत्कृष्ट स्थिति है, जो कि वर्तमान समय में आत्मस्वरूप की ओर अग्रसर करती है। ‘राम’ के नाम में विश्वव्यापकत्व का रहस्य है। जो उन्हें कालजयी बनाता है प्रत्येक युग के विचारकों ने राम-चरित’ को विकसित किया है। जहां वैदिक परम्परा में भगवान विष्णु का अवतार माना है, वहीं जैन मनीषियों व साहित्यकारों ने राम के विश्वव्यापी व्यक्तित्व की दृष्टि से ‘शलाका पुरुष’ में स्थान दिया है। ये राम प्रत्येक भारतीय भाषा के पटल पर विद्यमान रहे हैं। इसलिए प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, कन्नड़, मराठी, गुजराती, राजस्थानी एवं हिंदी काव्यकारों ने उन्हें आदर्शरूप के आधार पर ही प्रस्तुत किया है।
अतः कहा जा सकता है कि राम जन-जन को आचार-विचार के दृष्टिकोण देने वाले पुरुषोत्तम भी रहे हैं। वे साधना के शिखर थे, विपत्तियों में भी सौम्य बने रहने वाले पुरुष नहीं, अपितु जनमानस की आस्था के ‘परमसेतु’ रहे हैं। उनके जीवन का प्रमुख व परम लक्ष्य प्राणि मात्र के कल्याण के लिए निहित रहा है। उनका समग्र जीवन दर्शन व्यावहारिक साधना से लेकर चरम लक्ष्य की ओर ले जाने वाला रहा है। जीव दया, करुणा, मृदुता, ऋजुता, तपस्या, संयम, ब्रह्मचर्य एवं सत्यानुभूति भव-मवान्तर से हटाती है और यही जन-जन के राम को पुरुषोत्तम बनाने में सहायक सिद्ध हुई है।
(लेखक, प्रसिद्ध जैन संत हैं।)
©2024 Agnibaan , All Rights Reserved