नई दिल्ली (New Delhi)। इक्कीसवीं सदी (twenty first century.) की अयोध्या (Ayodhya) सज रही है। यहां की पावन भूमि भगवान विष्णु (holy land lord vishnu) को सबसे प्रिय है। तभी तो प्रभु राम कहते हैं, अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ। यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ।। अवध के आंगन (Courtyards of Awadh.) में न सिर्फ भगवान श्रीराम (Lord Shri Ram.) ने जन्म लिया, बल्कि पांच जैन तीर्थंकर (Five Jain Tirthankaras also born.) भी पैदा हुए। वहीं, भगवान गौतम बुद्ध को यहां की रज से इतना प्यार था कि उन्होंने पूर्वाराम (बौद्ध संघ मठ) में 16 वर्ष गुजारे। अयोध्या जितनी पवित्र हिंदुओं के लिए है, उतनी ही बौद्ध व जैन धर्मावलंबियों के लिए भी है।
इतिहासकारों के अनुसार, हनुमान गढ़ी के पास जिस दंत धावन कुंड में भगवान राम दातून करने आते थे, बौद्ध ग्रंथों के अनुसार उसी कुंड पर भगवान बुद्ध भी दातून करते थे। बौद्ध ग्रंथों ने अयोध्या को साकेत कहा यानी जो स्वयं से आया। जैन परंपरा के मुताबिक, दो ही शाश्वत तीर्थ बताए। एक अयोध्या व दूसरा सम्मेद शिखर। राम, बुद्ध व प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव (आदिनाथ) के रूप में भगवान विष्णु ने अवतार लिया। ये सब इक्ष्वाकु वंश में अवतरित हुए। इतिहास की प्रोफेसर सुमन शुक्ला ने बताया कि बौद्ध धर्म के अनुसार अयोध्या में भगवान बुद्ध की कई स्मृतियां हैं। अयोध्या की अंजनी वाटिका में ही भगवान बुद्ध ने अपने सूत्र सुनाए थे। वे बरसात में यहीं रहा करते थे।
इन तीर्थंकरों का अयोध्या में जन्म
प्रोफेसर सुमन बताती हैं, 8वीं शताब्दी में आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण लिखा। इसे जैन धर्म का सबसे प्रामाणिक ग्रंथ माना गया। इसमें लिखा है, विश्व की कर्मभूमि का प्रथम नगर अयोध्या है। सभी जैन तीर्थंकर इक्ष्वाकुवंशीय थे। उनमें 24 में पांच तीर्थंकर आदिनाथ, अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ और अनंतनाथ अयोध्या में जन्मे। ऋषभदेव का प्राचीन मंदिर मखदूम शाह जूरन गोरी ने तोड़ा था। अयोध्या भूमि का महत्व जैन धर्मों लिए के जननी समान है। अयोध्या को जैनशास्त्रों में विनीता कहा गया है।
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