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    लोककला के नाम पर अश्लीलता परोसना शर्मनाक

  • January 09, 2024

    – प्रियंका सौरभ

    वर्तमान परिदृश्य में लोककला के नाम पर अश्लीलता परोसी जा रही है, जो कि चिंतनीय व शर्मनाक है। यह न केवल इन परंपरागत शैलियों को धूमिल कर रहा है बल्कि विदेशी/वेस्टर्न के चक्कर में हम अपनी पहचान से दूर होते जा रहे हैं। सोशल मीडिया या यू-ट्यूब, फिल्म हो या टीवी के कार्यक्रम सभी जगह फूहड़ नाच का नंगा प्रदर्शन किए जाने की परंपरा ने जोर पकड़ लिया है। यू-ट्यूब और सोशल मीडिया पर रील्स, गानों, फिल्मों, कार्यक्रमों सबमें अश्लीलता इस कदर घर करती जा रही है कि आप अपने परिवार के साथ देख ही नहीं सकते। और रही सही कसर अब नंगे होकर रील बनाने वालों ने पूरी कर दी है।


    अधिकतर गाने, एलबम और सिनेमा अश्लीलता से भरपूर हैं। आज के लोकगीत सुनने की ही बात कर लें तो उन गानों के हर शब्द में अश्लीलता कूट-कूट कर भरी होता है। जब हम-आप परिवार के साथ मिलकर गाना नहीं सुन सकते तो यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन गानों के सीन का क्या हाल होगा। ऊपर से अश्लीलता का कम्पीटिशन इस कदर होता जा रहा है कि एक से एक हिट एलबम, गाने बनते हैं। अश्लीलता को दिखाने की होड़ इस कदर है कि मत पूछिए। इस बारे में कलाकारों, गायकों से पूछ लिया जाता है तो छूटते ही कहते हैं कि यह तो पब्लिक डिमांड है। जनता यही सब देखना पसंद करती है। ऐसा न परोसें तो गाना हिट ही नहीं होगा।

    अब ऐसे कलाकारों को कौन समझाए कि अश्लीलता की शुरुआत तो फिल्मों व गानों के जरिए ही हमारे समाज में फैली। जिसे रोकने का कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाया गया। ऐसे मजनू कलाकारों के चक्कर में हमारा पूरा समाज दूषित होता जा रहा है। मान-मर्यादा सब छिन्न-भिन्न होती जा रही है। यदि आज भी हम नहीं सचेत हुए तो न जाने हमारे समाज की दशा और दिशा क्या होगी। ऐसा नहीं है कि ऐसे नृत्यों का असर नहीं हो रहा है। पिछले 5-10 सालों में जिस प्रकार के नृत्य व गाने प्रस्तुत किए गए हैं, उसने तो हमारे समाज के ताना-बाना को ही हिलाकर रख दिया है। ये मन को शांत करने के बजाय अशांत कर देते हैं।

    बाजार की लालची और मुनाफाखोर प्रवृत्ति ने एक लोककला की हत्या कर दी और अब उसके नाम पर लोगों को अश्लीलता परोसी जा रही है। इन्टरनेट ने बेशक लोगों तक ज्यादा सूचनाएं पहुंचाई हैं लेकिन इसने ग्रामीण सौंदर्यबोध और मान-मर्यादा को खंडित कर दिया। इन्टरनेट ने हर चीज को अधिक बिकाऊ बनाने के लिए अश्लीलता की सारी हदें पार कर दी। कुल मिलाकर यह आसानी से देखा जा सकता है कि इन्टरनेट के विस्तार और मोनेटाइजेशन ने ऐसी सामग्री को बढ़ावा दिया है जो बहुत ज्यादा देखी जा रही है लेकिन मानवीय संवेदनाओं पर उसने घातक प्रहार किया है। संगीत की शालीनता पर फूहड़पन भारी वातावरण को प्रदूषित कर रहे हैं आशिक मिजाज गीतकारों से देशभर में लम्पटीकरण भरे गीतों के प्रचलन से संस्कृति को गहरी चोट पहुंची है।

    आधुनिकता की चकाचौंध में हमारी संस्कृति व विरासत से जुड़े गीत न जाने कहां गुम से हो गये हैं और प्रचलन बढ़ा उन मद भरे गीतों का, जिनमें से संस्कृति व सौन्दर्य गायब होकर उपहासित हो गई है। लम्पटीकरण के शब्द गीतों में भर आए हैं। वर्तमान में तथाकथित रचनाकारों द्वारा रचित गीतकारों, मजनू गायकों द्वारा गाये हुए गीतों में पाश्चात्य संस्कृति की तर्ज पर नंगापन आ गया है। इन अल्फाजों में गीत गाने वाले गायकों को इतनी भी शर्म नहीं है कि जिस अंदाज में वे अपने शब्दों को व्यक्त कर रहे हैं व अंदाज ‘जिस डाल पर बैठे हैं उसी को काटने’ जैसा है। यही अंदाज संस्कृति पर गहरी चोट कर रहा है।

    लोक गायकों के नाम पर अश्लील लिंक्स से सोशल मीडिया बाजार भरा पड़ा है। कई चैनलों पर भी इस तरह के गीतों का प्रचलन बहुत तेजी से बढ़ा है। गीत बिकवाने की होड़, व्यूज और लाइक्स के जरिए पैसा कमाने की लालसा, इन सबने पहले ही संस्कृति व विरासत धूमिल कर डाली है क्योंकि गीत संगीत ही एक ऐसा माध्यम होता है जो समाज को संदेश का पैगाम देता है। आज ये पैगाम अपनी दिशा बदल चुके हैं। विभिन्न बस स्टेशनों, जीप-कार और बसों में जो गीत बजते हैं उनमें छिछोरापन व लम्पटीकरण का अंदाज साफ झलकता है। इन गीतों का श्रवण विशेषकर युवा वर्ग आनंदपूर्वक करता है।

    कई अवसरों पर शादी-ब्याह आदि उत्सवों में कुछ बुजुर्ग जन भी इस तरह के गीतों पर जमकर ठुमके लगाते हैं। सांस्कृतिक परम्परा पर चिंतन करने वाले लोग इसे लोक संगीत पर गहरी ठेस मानते हैं। आशिकी अंदाज के साथ पाश्चात्य संस्कृति की चपेट में आकर गीत गाने वाले गायक-गायिकाएं, नायक-नायिकायें धीरे-धीरे सांस्कृतिक पहरुओं की नजर का कांटा बनते जा रहे हैं। ऐसा मालूम पड़ता है यदि ऐसे गीतों का दौर अश्लीलता की पराकाष्ठा लांघता रहा तो इस तरह के लोगों का सामाजिक बहिष्कार जरूरी हो सकता है। आज के गानों में बंदूक, दारू, लड़कीबाजी व अश्लीलता का आयाम देखने को मिल रहा है। यह हमारी संस्कृति के लिए और गानों के लिए बहुत ज्यादा हानिकारक है। इस पर रोक लगनी चाहिए।

    (लेखिका, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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