– सियाराम पांडेय’शांत’
जीत भले ही किसी राजनीतिक दल की हो लेकिन उस जीत का आधार जनता का उस पर अटूट विश्वास ही होता है। जब किसी नेता की गारंटी राजनीतिक मुद्दों और प्रलोभनों पर भारी पड़ जाए तो समझना चाहिए कि भारत में लोकतंत्र बिल्कुल सही दिशा में जा रहा है। चार राज्यों के चुनाव परिणाम बेहद विस्मयकारी रहे हैं। भाजपा ने राजस्थान और छत्तीसगढ़ जहां कांग्रेस के हाथ से छीन कर अपनी मुट्ठी में कर लिया है, वहीं मध्य प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने की कांग्रेस की हर संभव कोशिशों को पलीता लगा दिया है। तेलंगाना की जीत पर खुश होने का कांग्रेस के पास एक अवसर है और वह यह कह सकती है कि उसने तेलंगाना में भाजपा को पटखनी दी है लेकिन सच तो यह है कि भाजपा तो अभी दक्षिण के इस राज्य में अपना जनाधार ही बढ़ा रही है। उसकी सीटों में कई आठ गुना वृद्धि यह बताने के लिए काफी है कि भाजपा ने तेलंगाना में कुछ खोया नहीं, वरन पाया ही है। तेलंगाना में बीआरएस की हार के पीछे केसीआर और उसके परिवार पर भाजपा के शीर्ष नेताओं के तल्ख हमले भी बहुत हद तक जिम्मेदार हैं। तेलंगाना की सत्ता उसके स्वतंत्र राज्य के गठन के वर्ष 2014 से ही के.चंद्रशेखर राव के हाथ में रही है। ऐसे में उसके हाथ से सत्ता का यूं फिसल जाना अकारण नहीं है।
तेलंगाना में के. चंद्रशेखर राव के परिवारवाद और भ्रष्टाचार से तो जनता में नाराजगी थी ही, सत्ता विरोधी लहर भी उसके खिलाफ थी। कांग्रेस को तो बस अवसर मिल गया। भाजपा के शीर्ष नेताओं के चुनावी भाषणों ने भी राज्य में केसीआर की हालत पतली कर दी। 19 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले इस राज्य में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी आल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन की कुछ खास नहीं कर पाई जबकि यहां की 44 सीटों पर मुस्लिम मतदाता अच्छा-खासा असर डालते रहे हैं। अक्टूबर में तेलंगाना में लक्ष्मी बैराज क्या ढहा, केसीआर की मुसीबतें बढ़ती चली गईं। उनकी बेटी का नाम दिल्ली के शराब घोटाले से भी जुड़ा, इन स्थितियों ने टीआरएस का नाम बदलकर बीआरएस करने और क्षेत्रीय राजनीति की बजाय राष्ट्रीय राजनीति में कदम बढ़ाने का खामियाजा भी केसीआर को इस चुनाव में शिकस्त के रूप में झेलना पड़ा है। यह और बात है कि कांग्रेस ने तेलंगाना में जातिगत जनगणना कराने और दलितों, पिछड़ों की आरक्षण सीमा बढ़ाने जैसी छह गारंटियां भी दीं, जिसमें मुफ्त महिला बस पास, 200 यूनिट मुफ्त बिजली, किसानों और बटाईदारों को 15 हजार रुपये प्रति एकड़ देने जैसे वादे भी शामिल थे।
जनादेश इस बात का प्रमाण है कि मतदाताओं ने कांग्रेस पर भरोसा जताया और उसकी सरकार बनने में सहायक बने लेकिन राजस्थान,मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में उसकी मुफ्त की रेवड़ी बांटने वाली रणनीति काम नहीं आई। इन तीनों ही राज्यों में मतदाताओं ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की गारंटी पर भरोसा जताया और यह समझने में जरा सी भी गलती नहीं कि जब केंद्र और राज्य में एक ही दल की सरकार होती है,तभी विकास का पहिया सरपट दौड़ पाता है। केंद्र और राज्य की सत्ता पर आरूढ़ दो राजनीतिक दलों की खींचतान में विकास का जनाजा अकसर उठता ही रहता है। मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव कांग्रेस से अपनी पार्टी के लिए कुछ सीटें चाहते थे लेकिन कमलनाथ ने अखिलेश-वखिलेश जैसी टिप्पणी कर न केवल अखिलेश यादव के क्रोध का पारा बढ़ा दिया बल्कि अखिलेश यादव को मध्य प्रदेश की 74 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने को भी विवश किया।
यह स्थिति भी कांग्रेस की उम्मीदों की राह का बड़ा रोड़ा बनी। ‘इंडिया’ गठबंधन में अपनी विशेषता बताने-जताने के राहुल गांधी के सपनों पर भी पानी फिर गया है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का अपना कोई आधार नहीं है और यहां लोकसभा की चुनावी वैतरणी पार करने के लिए उसे समाजवादी पार्टी की नौका पर ही सवार होना पड़ेगा और दूध का जला मट्ठा भी फूंक कर पीता है। अखिलेश यादव भले ही मध्य प्रदेश की सियासी जंग हार गए हों लेकिन वैचारिक रूप से वे कांग्रेस को शिकस्त देने में सफल हो गए हैं। अखिलेश मजबूरी में भी कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में उतनी सीटें तो देने से रहे जो राहुल के प्रधानमंत्री बनने की जरूरत पूरी कर सके। ममता बनर्जी का भी कांग्रेस के साथ पश्चिम बंगाल में कुछ ऐसा ही रवैया रहने वाला है। मध्य प्रदेश में कांग्रेस को कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की अंदरूनी कलह से भी बड़ा नुकसान हुआ है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के प्रति दोनों नेताओं के स्तर पर बोले गए अपशब्दों ने भी मध्य प्रदेश में खासकर चंबल परिक्षेत्र में कांग्रेस का बेड़ा गर्क करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है।
प्रधानमंत्री मोदी के प्रति अपशब्दों का प्रयोग भी कदाचित मतदाताओं को रास नहीं आया। राजस्थान में भी सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच की राजनीतिक जंग कांग्रेस का पत्ता साफ करने में मील का पत्थर साबित हुई। सचिन पायलट की नाराजगी और बगावत को तो कुछ वर्ष पहले कांग्रेस ने थाम जरूर लिया लेकिन दोनों नेताओं और उनके समर्थकों के मनोमालिन्य को दूर करने की दिशा में कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व कुछ खास नहीं कर सका। इसका नुकसान यह हुआ कि कांग्रेस का राज बदल गया लेकिन राजस्थान की हर पांच साल में सरकार बदलने का रिवाज यथावत कायम रही। भाजपा को पता था कि राजस्थान में मुख्यमंत्री को चेहरा घोषित करना उसके लिए भारी पड़ सकता है। इसलिए उसने कमल को ही सीएम चेहरा माना और यह उसके लिए बेहद फायदेमंद रहा। राजस्थान लाल डायरी के झमेले में जो एक बार कांग्रेस उलझी तो उससे उबर नहीं पाई। कई मौके आए जब भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सचिन पायलट और उनके समर्थक समय-समय पर गहलोत सरकार को घेरते रहे। यह भी उनकी पराजय का एक बड़ा कारण रहा। पेपर लीक मामले में वैसे पहले से ही गहलोत सरकार आलोचना के घेरे में थी। रही बात जीत-हार की तो कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी तो पहले ही कह चुके थे कि राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सरकार जा रही है। हालांकि यह जीभ के फिसल जाने का मामला था लेकिन कभी-कभी जिह्वा पर सरस्वती का निवास होता है। मौजूदा चुनाव नतीजे तो इसी ओर इशारा करते हैं।
इन नतीजों से कांग्रेस के लोग ही विचलित होंगे, ऐसा नहीं है। लालू प्रसाद यादव के कुनबे और नीतीश कुमार की त्योरियों पर भी बल पड़ना स्वाभाविक है। जातिगत जनगणना कराकर राजनीतिक लीड लेने वाले नीतीश और लालू को लगा होगा कि वे पिछड़ों के बेताज बादशाह हो जाएंगे। कांग्रेस और सपा का शीर्ष नेतृत्व भी उनकी बिछाई पिच पर खेलने लगा था। जिसकी जितनी आबादी, उतनी उसकी भागीदारी का राग देश के हर उस राज्य में आलापा जाने लगा था जहां गैर भाजपा सरकारें हैं लेकिन इसकी काट में प्रधानमंत्री मोदी ने गरीब-किसान-महिला और युवा को ही सबसे बड़ी जाति माना और उनके समग्र उत्थान की दिशा में बढ़ते रहे, तीन राज्यों में भाजपा के पक्ष में आए चुनाव नतीजे उसी सोच की परिणिति है।
इन चुनावों में जातीय जनगणना का मुद्दा भी कुछ खास असर डालने में विफल साबित हुआ है, ऐसे में नीतीश-लालू और उन जैसी सोच के दूसरे नेताओं को वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में कुछ और तरकीब निकालनी होगी। वैसे भी हिंदी बहुल राज्यों में राहुल गांधी की मोहब्बत की दुकान नहीं चल पाई। लोगों ने विकास को तरजीह दी। पीएम मोदी की गारंटी पर यकीन किया। जातिगत आरक्षण के सहारे सामाजिक ताने-बाने को छेड़ने वालों को मुंहतोड़ जवाब दिया। काठ की हांड़ी अग्नि का ताप एक बार झेल ले, इतना ही काफी है। विपक्ष बार-बार एक ही प्रयोग दोहराने की जो भूल कर रहा है, मौजूदा चुनाव परिणाम उसका सटीक जवाब हैं।
यह भी उतना ही सच है कि वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव में आदिवासी वर्ग भाजपा से छिटक गया था। मध्य प्रदेश में भाजपा अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित 35 सीटों में से 18 पर तो जीत गई थी, लेकिन अनुसूचित जनजाति के लिए सुरक्षित 47 सीटों में से महज 16 पर जीत हासिल कर सकी थी। छत्तीसगढ़ में अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित 10 सीटों में केवल 2 और अनुसूचित जनजाति के लिए सुरक्षित 29 सीटों में से महज 3 पर ही जीत हासिल कर पाई थी। वर्ष 2018 का चुनाव गवाह है कि राजस्थान में भी भाजपा एससी के लिए सुरक्षित 34 सीटों में से 22 सीटें हार गई थी जबकि एसटी के लिए सुरक्षित 25 सीटों में 14 पर उसे पराजय का सामना करना पड़ा था। इन तीनों ही राज्यों में भाजपा के सत्ता से बाहर होने की यह भी प्रमुख वजह रही, लेकिन 2023 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अपने प्रतिद्वंद्वियों की तमाम कोशिशों को न केवल पलीता लगाया बल्कि दलित, आदिवासी मतों के भरोसे मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जीत भी हासिल की। इसके लिए उसने पहले दलित वर्ग के रामनाथ कोविंद को जहां राष्ट्रपति बनाया, वहीं आदिवासी समाज से आने वाली द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाया। यह उसकी सोची-समझी रणनीति थी, जिसका उसे इन चुनावों में लाभ भी मिला है।
मोदी सरकार की जन कल्याणकारी योजनाओं और राज्यों की सरकारों की भी विकास योजनाओं ने बड़ी तादाद में भाजपा का समर्थक वर्ग तैयार किया। महिलाओं ने जिस तरह खुलकर भाजपा का साथ दिया, उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि भाजपा जिस तरह सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास की नीति पर काम कर रही है, वहीं भारत के अन्य राजनीतिक दल हिंदुओं की आस्था पर प्रहार करने और सनातन धर्म की आलोचना में अपनी शक्ति जाया कर रहे हैं। ऐसे में उन्हें अपनी रणनीति बदलनी होगी। किस काम को कब करना है, जब तक इस रणनीति पर वे काम नहीं करेंगे, तब तक वे भाजपा का विजय रथ रोकने में कामयाब नहीं हो सकेंगे।
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