नई दिल्ली (New Delhi)। अगर सरकार (Government) ने संसदीय समिति की रिपोर्ट (Parliamentary committee report) को स्वीकार किया तो भविष्य में विवाहेतर संबंध और समलैंगिकता (Extramarital affairs and homosexuality) एक बार फिर से भारतीय न्याय संहिता (दंडनीय अपराध) (Indian Judicial Code (punishable offences)) के दायरे में आ जाएंगे। संसद की गृह मामलों की संसदीय स्थायी समिति ने शादी जैसी पवित्र संस्था, संस्कृति और गौरवशाली परंपरा (Culture and glorious tradition) को बचाने का हवाला देते हुए इन दोनों मामलों को फिर से दंडनीय अपराध की श्रेणी में शामिल करने की सिफारिश की है।
विवाहेतर संबंध समाज के लिए घातक
गौरतलब है कि पांच साल पूर्व सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) की पांच सदस्यीय पीठ ने दोनों मामलों को दंडनीय अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था। मंगलवार को केंद्र को भेजे प्रस्ताव में समिति ने कहा है कि विवाहेतर संबंध को स्वीकार करना समाज के लिए घातक होगा। समिति ने कहा है कि इस मामले में लैंगिक समानता के सिद्धांत का पालन करते हुए इसे गंभीर अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। समिति ने कहा, विवाहेतर संबंध के मामले में शामिल महिला और पुरुष दोनों को समान रूप से जिम्मेदार मानते हुए कठोर सजा का प्रावधान किया जाना चाहिए।
नए सिरे से चर्चा क्यों?
समलैंगिकता को भी समिति ने अपराध की श्रेणी में रखने की सिफारिश की है। पूर्व नौकरशाह बृजलाल की अध्यक्षता वाली कमेटी ने कहा है कि इस प्रवृत्ति को कानूनी संरक्षण से मिलने वाली सामाजिक स्वीकार्यता के गंभीर परिणाम होंगे। नए सिरे से चर्चा क्यों? दरअसल संसद के बीते सत्र में गृह मंत्री अमित शाह ने आपराधिक न्याय प्रणाली को मजबूत करने के लिए तीन विधेयक पेश किए थे। न्याय प्रणाली में व्यापक सुधार और त्वरित न्याय की अवधारणा से जुड़े इस विधेयक को विचार के लिए संसद की गृह मामले की स्थायी समिति को भेज दिया गया था। इन तीनों विधेयकों को शीतकालीन सत्र में पेश किए जाने की संभावना है।
क्या है मामला?
दरअसल पांच साल पूर्व 2018 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली पीठ ने अपने फैसले में विवाहेतर संबंध और समलैंगिकता को दंडनीय अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था। पीठ ने इसे तर्कहीन, अक्षम्य और मनमाना करार दिया था। विवाहेतर संबंध के संदर्भ में पीठ का कहना था कि यह तलाक का आधार तो हो सकता है, मगर दंडनीय अपराध का नहीं। पीठ ने तर्क दिया था कि यह 163 साल पुराना उस औपनिवेशिक काल के कानून को संरक्षण देता है जिसमें पति ही पत्नी का स्वामी की अवधारणा को मजबूत बनाता है।
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