इंदौर। इंदौर (Indore) से करीब 50 किमी दूर गौतमपुरा (Gautampura) में होने वाले इस हिंगोट युद्ध (Hingot war) की परंपरा सैकड़ों वर्ष पुरानी बताई जाती है। इसमें युद्ध लड़ने वालों का मकसद एक दूसरे को नुकसान पहुंचाना नहीं बल्कि खेल की भावना होती हैं। इस बात का कोई भी प्रमाण अभी तक नहीं मिला है कि हिंगोट युद्ध कब से शुरू हुआ और इसने एक परंपरा का रूप ले लिया। मान्यता है कि मुगलों के हमले के जवाब में मराठा सेना इसी तरह से युद्ध करती थी। [relost]
कैसे बनता है हिंगोट
हिंगोट एक जंगली फल है, जिसे खोखला कर बारूद, कोयला और गंधक से भर दिया जाता है। उत्सव के दौरान भाग लेने वाले समूह इसे एक दूसरे के ऊपर फेंकते हैं। पिछले सालों में इस उत्सव के दौरान मौतें भी हो चुकी हैं।
35 लोगों को आई चोटें
स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों ने कहा कि ‘हिंगोट’ उत्सव के दौरान सोमवार को कम से कम 35 लोगों को मामूली चोटें आई हैं। उनकी हालत स्थिर है। डॉक्टरों की एक टीम ने घायलों का उपचार किया। एक व्यक्ति गंभीर रूप से झुलस गया है और उसे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में भर्ती कराया गया है।
जानिए इससे जुड़ी परंपरा के बारे में
कलंगी सेना और तुर्रा सेना के बीच होने वाले हिंगोट युद्ध में कभी भी दोनों दलों के बीच कोई विवाद नहीं हुआ। सबसे खास बात यह है कि इस युद्ध की शुरुआत किसी खेल की तरह गले लगकर होती है। हिंगोट युद्ध में घायल होने वालों की मदद के लिए दोनों दलों के लोग हमेशा मौजूद रहते हैं।
गौतमपुरा और रूणजी गांव के योद्धा
हिंगोट युद्ध में तुर्रा सेना गौतमपुरा के योद्धाओं की होती है और कलंगी सेना रूणजी गांव के योद्धाओं की। दोनों सेनाओं के योद्धा अपने साथ एक थैली लटकाए रहते हैं, जिसमें हिंगोट रखे होते हैं। फिर वे इसे जलाकर दूसरी सेना की ओर फेंक देते हैं। सबसे पहले जिसके हिंगोट खत्म हो जाते हैं वहीं युद्ध जीत जाता है।
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