नई दिल्ली (New Delhi)। विधि आयोग (Law Commission) ने यौन संबंध (sexual relations) में ‘सहमति की आयु’ (Age of Consent) को मौजूदा 18 साल से कम नहीं करने की सलाह दी है. लॉ कमीशन ने 16-18 साल के बच्चों के “मौन सहमति” वाले मामलों (“Tacit Consent” Cases) में सजा के लिए न्यायिक विवेक (Judicial discretion) लागू करने के लिए यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम 2012 (पोक्सो) में संशोधन का भी सुझाव दिया है. कानून मंत्रालय को अपनी रिपोर्ट में कर्नाटक हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रितुराज अवस्थी (Justice Rituraj Awasthi) की अध्यक्षता वाले आयोग ने कहा कि ऐसे मामलों को पोक्सो के तहत समान गंभीरता से नहीं निपटा जाना चाहिए. एक रिपोर्ट के मुताबिक आयोग ने अदालतों को इन मामलों पर फैसला लेने में सावधानी बरतने की सलाह दी है।
लॉ कमीशन की रिपोर्ट में अदालतों का हवाला देते हुए कहा गया है कि किशोर प्रेम को नियंत्रित नहीं किया जा सकता है और इस तरह के सहमतिपूर्ण कृत्यों में आपराधिक इरादा नहीं मौजूद हो सकता है. लॉ कमीशन ने कहा है कि ‘सहमति की उम्र में कोई भी कमी बाल विवाह के खिलाफ सदियों पुरानी लड़ाई पर नकारात्मक असर डालेगी. इससे नाबालिग लड़कियों को वश में करने, वैवाहिक बलात्कार और तस्करी सहित अन्य तरह के दुर्व्यवहार से बचने का रास्ता मिल सकता है।’
लॉ कमीशन की रिपोर्ट में इस बात पर रोशनी डाली गई है कि परामर्श के दौरान नाबालिगों से जुड़े सहमति से बने रोमांटिक संबंधों से जुड़े पेचीदा मुद्दे को कैसे हल किया जाए. इस पर व्यापक मतभेद थे. मगर पोक्सो एक्ट के इस पहलू पर विचार में एकमतता थी कि यह उन्हीं बच्चों के खिलाफ काम कर रहा है जिनकी रक्षा के प्रयास के लिए इसे बनाया गया था. इसमें कहा गया है कि “यौन गतिविधि का पूरी तरह से अपराधीकरण करके उन युवा लड़कों और लड़कियों को जेल में डाल दिया जा रहा है, जो यौन जिज्ञासा की जरूरत के कारण ऐसी गतिविधियों में शामिल होते हैं. जबकि इसका उद्देश्य बच्चों की सुरक्षा करना है।
लॉ कमीशन ने पोक्सो अधिनियम में संशोधन और किशोर न्याय अधिनियम में संबंधित बदलावों की सिफारिश की है, ताकि उन मामलों में समस्याओं को हल किया जा सके, जहां 16 से 18 साल की उम्र के बच्चे की ओर से कानून में सहमति नहीं बल्कि मौन स्वीकृति होती है. लॉ कमीशन की राय है कि सहमति सुनिश्चित करने में विशेष अदालत की विवेकाधीन शक्ति और विवेक का प्रयोग किया जाना है, तो इसे सीमित और निर्देशित किया जाना चाहिए ताकि दुरुपयोग को रोका जा सके. सजा सुनाते समय अदालत जिन मुद्दों पर विचार कर सकती है, उनमें अभियुक्त और बच्चे के बीच उम्र का अंतर तीन साल से अधिक न होना शामिल है. जिसमें अभियुक्त का कोई आपराधिक इतिहास नहीं है और अभियुक्त का अपराध के बाद अच्छा आचरण रहा है।
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