नई दिल्ली: वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा है कि पिछले वित्तवर्ष में देश के ऊपर बाहरी कर्ज (External Debt) यानी विदेशी लोन बढ़ गया है. सवाल ये उठता है कि क्या विदेशी लोन बढ़ने से देश की इकॉनमी पर कोई असर पड़ता है और इसका आम आदमी से भी कोई लेना-देना है या नहीं. वैसे तो वित्तमंत्री ने साफ कहा है कि हमारा विदेशी कर्ज अभी कंफर्ट जोन में है और इकॉनमी को लेकर चिंता नहीं है.
दरअसल, मार्च 2023 तक बाहरी कर्ज बढ़कर 624. अरब डॉलर पहुंच गया है. यह देश के विदेशी मुद्रा भंडार से भी ज्यादा है. वहीं, इकॉनमी के अनुपात में देखा जाए तो विदेशी कर्ज 5.3 फीसदी पहुंच गया है. वित्तवर्ष 2021-22 के मुकाबले 2022-23 में बाहरी कर्ज 0.9 फीसदी बढ़ा है, जो करीब 5.6 अरब डॉलर है. अगर मार्च के आखिर तक का रेशियो देखा जाए तो भारत का विदेशी मुद्रा भंडार कुल कर्ज का 92.6 फीसदी था.
वित्तमंत्री ने ‘इंडिया एक्सटर्नल डेब्ट : अ स्टेटस रिपोर्ट 2022-23’ का हवाला देते हुए बताया है कि जीडीपी के मुकाबले देखा जाए तो विदेशी कर्ज का अनुपात नीचे आया है. मार्च के आखिर तक देखा जाए तो जीडीपी के मुकाबले विदेशी कर्ज का अनुपात गिरकर 18.9 फीसदी पर आगया है, जो एक साल पहले तक 20 फीसदी था. कुल विदेशी कर्ज में से 79.4 फीसदी तो लांग टर्म का लोन है, जबकि 20.6 फीसदी शॉर्ट टर्म का लोन होता है.
वित्तमंत्री का कहना है कि अगर दूसरे मिडिल इनकम वाले देखों के मुकाबले देखा जाए तो भारत की स्थिति काफी बेहतर है. हमारे कुल विदेशी कर्ज में शॉर्ट टर्म लोन काफी कम है, जिससे इकॉनमी पर बोझ नहीं आता है. हमारा विदेशी मुद्रा भंडार भी कर्ज के मुकाबले करीब 92 फीसदी है. निर्यात, ग्रॉस नेशनल इनकम के मुकाबले भी विदेशी कर्ज बहुत ज्यादा नहीं है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि महामारी के बाद दुनियाभर में कर्ज की ब्याज दरें बढ़ गई हैं, जिसका असर भारत पर भी पड़ रहा है. कर्ज चुकाने के लिए अब ज्यादा पैसा भी चुकाना पड़ रहा है. एक साल पहले के 5.2 फीसदी के मुकाबले यह बढ़कर 5.3 फीसदी हो गया है. कर्ज का भुगतान 2021-22 में जहां 41.6 अरब डॉलर था, वह 2022-23 में बढ़कर 49.2 अरब डॉलर हो गया है.
अर्थव्यवस्था के मुकाबले विदेशी कर्ज बढ़ता है तो देश की सॉवरेन रेटिंग पर असर पड़ता है. खासतौर से विकासशील अर्थव्यवस्थाओं पर इसका ज्यादा असर पड़ सकता है. अगर विदेशी कर्ज डिफॉल्ट हो गया तो सॉवरेन रेटिंग के साथ और कर्ज मिलने का रास्ता भी बंद हो सकता है. इससे देश की विकास दर भी सुस्त पड़ सकती है.
एक्सटर्नल डेब्ट यानी विदेशी कर्ज को चुकाने में अगर डिफॉल्ट किया गया तो न सिर्फ देश की सॉवरेन रेटिंग पर असर पड़ेगा, बल्कि विदेशी निवेशकों में भी निगेटिव संदेश जाएगा और इनवेस्टमेंट गिर सकता है. इसका असर उद्योगों और प्रोजेक्ट पर भी पड़ेगा, जिससे रोजगार के अवसर कम हो जाएंगे. इसके अलावा कर्ज डिफॉल्ट होने पर उसे चुकाना महंगा हो जाएगा, जिससे सरकारी खजाने पर भी असर पड़ सकता है और सरकार आम आदमी के लिए चलाई जाने वाली योजनाओं में कटौती को मजबूर हो सकती है.
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