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    कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों में दांवपेंच

  • June 29, 2023

    – विकास सक्सेना

    आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को सत्ता से बेदखल करने की रणनीति बनाने के लिए कुछ राजनीतिक दलों की पटना में महाबैठक हो चुकी है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बुलावे पर जुटे 15 दलों के नेताओं ने इस बैठक में विपक्षी एकता के लिए बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने की बात कही है। मगर भाजपा विरोधी दलों के ये दावे बैठक खत्म होने से पहले ही हवा हो गए। दिल्ली में अधिकारियों की नियुक्ति और स्थानांतरण को लेकर लाए गए केंद्र सरकार के अध्यादेश के विरोध का कांग्रेस की ओर से ठोस आश्वासन न मिलने से खफा आम आदमी पार्टी बैठक के बाद आयोजित पत्रकार वार्ता से नदारद रही। बैठक के चंद घंटे बाद ही पश्चिम बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी ने ममता बनर्जी पर तीखे हमले किए तो ममता बनर्जी ने भी एक बार फिर कांग्रेस और माकपा पर भाजपा से मिलीभगत का आरोप मढ़ा।

    बैठक के बाद से हो रही बयानबाजी से स्पष्ट है कि भले ही कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के नेता विपक्षी एकता की बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हों लेकिन उनका असल मकसद एक-दूसरे को विपक्षी एकता में बाधक साबित करके भाजपा का मददगार दिखाना ज्यादा लग रहा है। ताकि भाजपा विरोधी मुस्लिम मतदाताओं पर पकड़ ज्यादा मजबूत की जा सके। लगातार दो आम चुनाव में भाजपा की प्रचंड विजय ने विरोधियों की नींद हराम कर दी है। राजनीतिक विश्लेषकों के साथ-साथ अब तमाम नेता भी सार्वजनिक तौर पर यह स्वीकार करने लगे हैं कि भाजपा के विजय रथ को अकेले रोक पाने के क्षमता किसी भी विपक्षी दल में नहीं है। इसीलिए भाजपा के खिलाफ हर सीट पर विपक्ष का संयुक्त उम्मीदवार उतारने की बात की जा रही है। लेकिन इस विपक्षी मोर्चे की कमान किसके हाथ में होगी इसको लेकर मोदी विरोधियों में गहरे मतभेद हैं। गैर भाजपा दलों में कांग्रेस ही एक मात्र पार्टी है जिसका पूरे भारत में संगठन मौजूद है। इसलिए कांग्रेसियों का मानना है कि विपक्षी एकता की कमान स्वाभाविक तौर पर कांग्रेस को मिलनी चाहिए।


    कर्नाटक विधानसभा चुनाव में शानदार जीत के बाद से कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं का मनोबल काफी बढ़ा हुआ है। उन्हें लगता है कि हिमाचल प्रदेश के बाद कर्नाटक में भाजपा को सत्ता से बेदखल करने के बाद मोदी विरोधी गठबंधन के नेतृत्व को लेकर उसकी दावेदारी मजबूत हुई है। ठीक इसके उलट कर्नाटक के चुनावी नतीजे आते ही तमाम क्षेत्रीय दलों के नेताओं के माथे पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई देने लगी हैं। वे पहले के मुकाबले ज्यादा आक्रामक तरीके से कांग्रेस पर हमलावर हैं। दरअसल लगभग सभी क्षेत्रीय दलों की राजनीति जिस मुस्लिम वोट बैंक पर टिकी हुई है उसमें कांग्रेस की सेंधमारी से ये दल घबराए हुए हैं। बीते 30 साल में जिन राज्यों में भी क्षेत्रीय दलों का विकास हुआ उसकी कीमत कांग्रेस को ही चुकानी पड़ी है। इन दलों ने किसी एक जाति के वोट बैंक को आधार बनाकर उसके साथ मुस्लिम वोटों को जोड़कर सफलता हासिल की है। इस बार खास यह है कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने पहली बार क्षेत्रीय पार्टी जनता दल सेक्युलर के मुस्लिम वोट बैंक में सेंधमारी करने में सफलता हासिल कर ली।

    कर्नाटक विधानसभा चुनाव में सांप्रदायिक मुद्दे काफी उफान पर थे। कांग्रेस ने मुस्लिमों को भरोसा दिया कि प्रदेश में उनकी सरकार बनने पर कक्षाओं में भी हिजाब पहनने की इजाजत दे दी जाएगी। धोखे से धर्मांतरण के खिलाफ भाजपा सरकार ने जो सख्त कानून बनाया है उसे खत्म कर दिया जाएगा और मुस्लिमों का आरक्षण फिर से बहाल कर दिया जाएगा। भारत को मुस्लिम राष्ट्र बनाने की योजना पर काम कर रहे कट्टरपंथी संगठन पीएफआई पर केंद्र सरकार द्वारा लगाए गए प्रतिबंध के एवज में बजरंग दल जैसे संगठनों पर प्रतिबंध का भरोसा दिया गया। इस तरह के वायदों के बाद मुस्लिमों का बड़ा वर्ग कांग्रेस के पाले में आ गया। इसका नतीजा निकला कि वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव में 18.36 प्रतिशत मत हासिल करके कर्नाटक विधानसभा की कुल 224 सीटों में से 37 सीटों पर जीत दर्ज कराने वाली जेडीएस 13.29 प्रतिशत मतों के साथ 19 सीटों पर सिमट कर रह गई। इसका सीधा लाभ कांग्रेस को हुआ। उसका मत प्रतिशत 38.04 से बढ़कर 42.88 हो गया। उसकी सीटें भी 78 से बढ़कर 135 हो गईं। हालांकि विधानसभा चुनाव 2018 में 36.22 प्रतिशत वोट लेकर 104 सीटों पर जीत हासिल करने वाली भाजपा 2023 में हुए विधानसभा चुनावों में भी लगभग 36 प्रतिशत वोट लेने में कामयाब रही लेकिन मुस्लिम वोटों का जेडीएस के खेमे से निकलकर कांग्रेस के पाले में ध्रुवीकरण होने से उसकी सीटें घटकर महज 66 रह गईं।

    पश्चिम बंगाल के सागरदिघी विधानसभा उपचुनाव ने भी क्षेत्रीय दलों को सकते में डाल दिया था। दरअसल 60 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम आबादी वाला सागरदिघी विधानसभा क्षेत्र पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में आता है। कांग्रेस के पश्चिम बंगाल प्रदेश अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी का यह गृह जिला है। इस क्षेत्र में ममता बनर्जी का खासा प्रभाव भी है। इसीलिए वर्ष 2011 के बाद से लगातार यहां से तृणमूल कांग्रेस का प्रत्याशी विजयी होता रहा है। विधानसभा चुनाव 2021 में भी सुब्रत साहा ने इस सीट पर 50 हजार से अधिक मतों से जीत हासिल की थी। उन्हें प्रदेश सरकार में मंत्री भी बनाया गया था। लेकिन उनका निधन हो जाने के कारण इस साल फरवरी के अंत में इस सीट पर उपचुनाव कराया गया। इसमें कांग्रेस उम्मीदवार वायरन विश्वास ने तृणमूल कांग्रेस के देवाशीष बंदोपाध्याय को लगभग 23 हजार वोटों से पराजित कर दिया। मुस्लिम बहुल सीट पर मिली करारी हार से ममता बनर्जी को गहरा झटका लगा। इस हार का बदला लेने के लिए टीएमसी ने कांग्रेस के इकलौते विधायक वायरन विश्वास को तीन महीने के भीतर ही तोड़कर टीएमसी में शामिल कर लिया है।

    अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद से कांग्रेस से छिटके मुस्लिम मतदाता पश्चिम बंगाल के सागरदिघी उपचुनाव और कर्नाटक विधानसभा चुनावों में फिर से कांग्रेस की ओर झुकते दिखाई दे रहे हैं। मुस्लिम मतदाताओं की सोच में आए इस बदलाव से क्षेत्रीय दलों के नेताओं में घबराहट है। विपक्षी एकता के नाम पर वे कांग्रेस को अपने राज्यों में चुनाव लड़ने से रोकना चाहते हैं। इसीलिए कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे आते ही ममता बनर्जी ने कांग्रेस बधाई दी और साथ ही सुझाव भी दे दिया कि वह सिर्फ उन 200 लोकसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे और जिन राज्यों में क्षेत्रीय दल मजबूत हैं वहां वह उनका समर्थन करे। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और सपा मुखिया अखिलेश यादव ने भी उनके इस सुझाव का पुरजोर समर्थन किया है। आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल भी चाहते हैं कि कांग्रेस दिल्ली और पंजाब में अपनी दावेदारी छोड़ दे। भारत राष्ट्र समिति के अध्यक्ष के चंद्रशेखर राव भी कांग्रेस को तेलंगाना से दूर रखना चाहते हैं।

    विपक्षी एकता को लेकर हो रही सारी कोशिशों की आड़ में कांग्रेस और क्षेत्रीय दल एक दूसरे को मोदी की बी टीम साबित करने में जुटे हुए हैं। इस सारी कवायद का एकमात्र उद्देश्य सिर्फ भाजपा को हराने वाले दल के उम्मीदवार को वोट देने की मंशा रखने वाले मुस्लिम मतदाताओं की नजर में खुद को असली मोदी विरोधी साबित करना है ताकि इस बड़े वोट बैंक को एकमुश्त अपने खेमे में रोका जा सके।

    (लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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