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मेहनत इतनी खामोशी से करो कि सफलता शोर मचा दे

May 23, 2023

आज के दौर में सफलता के मंत्र पढ़ाने वालों की कमी नहीं है, लेकिन सफलता का मंत्र तो बाबूजी उस जमाने में दे गए,जब न जेब में पैसा होता था और न पैसे वाले। तंगहाल व्यक्ति के लिए संकल्प ही सबसे बड़ी पूंजी हुआ करता था। बाबूजी का यह सफलतम संकल्प आज के नौजवानों के लिए मार्गदर्शक है। बिना पंूजी कोई बड़ा काम करने के लिए कमर कसकर मैदान में उतर जाना भी बाबूजी ही सीखा गए। वो व्यवहार सीखा गए, वो जीवटता सीखा गए, वो सच्ची लगन से काम करो तो कुछ असंभव नहीं है, ये भी सीखा गए। नरम एवं गरम दोनों मिजाज के जरिए ही उन्होंने अग्रिबाण जैसे शाम के अखबार को चलाया। सुबह झाड़ू लगाने से लेकर अखबार के वितरण तक हर काम में वे कूद पड़ते थे। अखबार के भारी-भरकम खर्च को चलाने के लिए विज्ञापन लेने खुद चले जाना, अखबार की प्रसार संख्या बढ़ाने के लिए रात तक मोर्चे पर डटे रहना, ये शुरुआत का संघर्ष आज के लोगों को शायद ही मालूम हो। देशभर के अखबारों में प्रसार संख्या को लेकर जबरदस्त प्रतिस्पर्धा है, ऐसे दौर में 46 वर्षों से इंदौर के दैनिक अग्निबाण का देश का नंबर वन बने रहना बहुत बड़ी उपलब्धि है, जिसके श्रेय की बात की जाए तो अखबार के दूरदर्शी संस्थापक श्री नरेशचंद्रजी चेलावत याद आते हैं, जो अखबार को बुलंदियों तक ले जाने में रात-दिन जुटे रहते थे। इसके साथ ही मां अहिल्या की नगरी के उन जागरूक पाठकों एवं हर दिन कड़ी परीक्षा में जुटे रहने वाले साथियों को जाता है। 46 वर्ष पूर्व जब अखबार का श्रीगणेश हुआ, तब अखबार की कीमत महज 10 पैसे हुआ करती थी और अखबार को तैयार करने के लिए संसाधन भी कम थे। ऐसे दौर में अखबार शाम 5 बजे निकलकर पाठकों के पास जाता था। धन की कमी के चलते अखबार को समय पर देने के लिए बाबूजी खुद हर काम करने जुट जाते थे। वे जमाने को बताना चाहते थे कि सोच यदि चमकदार हो तो मंजिल तक पहुंचा जा सकता है। पहले खबर लिखना, फिर उन्हें कंपोज करना, फिर प्रिंटिंग तक पहुंचाना और छपाई के बाद अखबार के वितरण में जुट जाना उनकी दैनंदिनी थी। वह जानते थे कि पाठकों को खबरों के अलावा विचार की भी जरूरत होती है। जनता की नब्ज को पढक़र उस आवाज को अखबार में जगह देना सबसे पहले उन्होंने जरूरी समझा। इस दिशा में उन्होंने काम भी किया। उनमें कभी सेठ का भाव नहीं देखा गया। परिवार की तरह चुनिंदा स्टाफ से काम लिया करते थे। स्वयं को काम में झोंकने के बाद आर्थिक व्यवस्थाओं में जुट जाना और हर शनिवार कर्मचारियों को वेतन देना उनके लक्ष्य में शामिल था। अखबार से उन्हें वेतन जितनी आय भी नहीं मिल पाती थी, लेकिन फिर भी वे कर्मचारियों को वेतन की जुगाड़ करके दे दिया करते थे। कहने का मतलब है कि सफलता उसी व्यक्ति के कदम चूमती है, जिसके इरादे बुलंद हों, दूरदृष्टि हो। असफलता में भी हथियार न डाले, हर तकलीफ को चुनौती मानकर कर्म-यज्ञ में समर्पण भाव से आहुति देते रहे। ऐसे हमारे प्रिय बाबूजी भले ही अनंत यात्रा को चले गए, लेकिन वह सीख दे गए कि मेहनत इतनी खामोशी से करो कि सफलता शोर मचा दे। आज अग्निबाण की जो सफलता दिखाई देती है उसके पीछे अंधेरे बहुत रहे हैं, लेकिन संघर्ष रहा, तपस्या रही, अभाव में भी प्रभाव दिखाने का जज्बा रहा। ईमानदारों को प्रोत्साहन और बेईमानों को लताड़, अग्निबाण की नीति रही है, जो संस्थापक बाबूजी की सोच में शामिल थी। कभी किसी को अखबार के नाम पर डराया नहीं और न ही बाबूजी कभी डरे। उनका जीवन खुली किताब की तरह था, लेकिन अल्प आयु में ही वह जिंदगी की जंग हार गए, जबकि कर्म की जंग में वह संघर्ष करते हुए हर दिन उत्तीर्ण हो रहे थे। बाबूजी का अधूरे सफर में ब्रह्मलीन हो जाना आज भी यकीन नहीं होता है। उनका आकर्षण ही ऐसा था कि कभी नौकर -कर्मचारी के रिश्ते क्या होते हैं यह महसूस ही नहीं होने दिया। इंदौर की ऐसी शख्सियत के नाम और कर्म से जन-जन आज भी अग्निबाण की कलम, शब्द, संस्कार और सरोकार के साथ आज भी रूबरू हैं और युगों तक रहेंगे।
मदन सवार
अग्निबाण से तब से लेकर आज तक जुड़े सहयोगी

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