– डॉ. रमेश ठाकुर
चीन ने अरुणाचल प्रदेश के विभिन्न जगहों का नाम बदलने का एक ऐसा शिफूगा छोड़ा है जिसमें ना आवाज है और न चिंगारियां। फिलहाल यह पहली मर्तबा नहीं हुआ है जब उसने इन जगहों के नाम बदलने की कोशिश की हो। पूर्व में भी वह ऐसी ओछी हरकतें कर भारत को उकसाने का काम किया। उसकी इस गीदड़ भभकी को ज्यादा गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है। पर, सतर्कता बरतनी बेहद जरूरी है। दुश्मन चाहे, कमजोर हो या ताकतवर, हल्के में नहीं लेना चाहिए। केंद्र की खुफिया एजेंसियों और अरुणाचल प्रदेश की लोकल इंटेलिजेंस को पैनी निगरानी उन क्षेत्रों पर रखनी होगी, जिनका नाम बदलने का जिक्र किया है। सैन्य पहरा भी जरूरी है क्योंकि यही वो भाग है जिसपर दुश्मन की कई दर्शकों से नजर है।
चीन ने अपने सरकारी अखबार के जरिए जो ये विवादित बात कही है, उसके परिणाम दूरगामी भी हो सकते हैं। क्योंकि इस बार उनकी बाकायदा मीटिंग में नाम तय किए गए हैं। जैसे विपक्ष सालों से आरोप लगाता आया है कि चीन अरुणाचल प्रदेश के कई हिस्सों में घुस गया है। आज से दो वर्ष पूर्व यानी दिसंबर-2021 में भी चीन ने अरुणाचल के विभिन्न जगहों के नाम बदले का कोरा झूठ बोला था। तब हमारे विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने कहा था कि चाइना ऐसा करके हमें दिव्य भ्रमित करना चाहता है। अपनी नापाक हरकतों से हमारी नजरें हटाना चाहता था। सोचने वाली बात है, हमसे हजारों किलोमीटर दूर पर बैठे लोग पहले से तय हमारे स्थानों के नाम बदलने की बात करता है। इससे उनके दिमाग का दिवालियापन ही कहा जाएगा। ऐसे तो हमारी सरकार भी दिल्ली में बैठकर शंघाई का नाम ‘संघर्ष नगर’ रख देगी, तो क्या उससे उसका नाम संघर्ष नगर हो जाएगा। नाम तो नहीं बदलेगा। पर, उपहास जरूर उड़ेगा, जैसा इस वक्त चीन का उड़ रहा है।
नाम बदलने का नया विवाद दरअसल है क्या? इसे आसान थ्योरी में अगर समझें, तो इसे चीन की नापाक चाल ही कहेंगे। उसने एक बार फिर अरुणाचल प्रदेश को अपना हिस्सा बताकर करीब हमारे 11 अधिकृत स्थानों को अपना नाम दिया है। इसके लिए बाकायदा बीते रविवार को चीनी कैबिनेट की ‘स्टेट काउंसिल मीटिंग’ आयोजित हुई जिसमें ये सभी प्रस्ताव पारित हुए। अरुणाचल प्रदेश के 11 स्थानों को बिंदुवार तरीके से नए नाम रखे गए। क्योंकि इन नामों की पहले से उनके पास सटीक भोगौलिक जानकारियां हैं ही, जिन स्थानों के नाम बदलने की ये घोषणा हुई है उनमें दो रिहायशी इलाके हैं। पांच ऊंचे पर्वतों वाली चोटियां हैं। दो नदियां हैं और दो अन्य क्षेत्र हैं। दोनों नदियों का पानी दोनों ओर गिरता है। फिलहाल हमारे पास ये खबर अभी तक चीन सरकार के मुखपत्र ‘ग्लोबल टाइम्स’ के हवाले से आई है। अधिकृत तौर पर उनकी सरकार ने अभी कोई कोई सूचना नहीं दी है और ना ही ऐसे कोई प्रयास किए गए हैं।
गौरतलब है, चीन ने बाकायदा उन स्थानों के अधीनस्थ प्रशासनिक जिलों की श्रेणी भी सूचीबद्ध की है। जबकि, ऐसी ही एक हिमाकत 2017 में भी की थी, जब उसने अरुणाचल के छह स्थानों को अपना बताया था। भारत सरकार ने हमेशा इन हरकतों का प्रतिवाद किया है और करना भी चाहिए। उनको पता है ये उनका मात्र चिढ़ाने वाला तरीका है। जब, कोई लिखित में चिट्ठी या कब्जे की सीधी कोशिशें होगी तो उसका प्रतिकूल और माकूल उत्तर दिया जाएगा। फिलहाल सरकार ‘वेट एंड वॉच’ की स्थिति में है। बैठक रविवार को हुई थी, दो-तीन दिन बीत जाने के बाद भी कोई सुगबुगाहट नहीं है, इसका मतलब ये है उन्होंने पहले की तरह सुरसुरी ही छोड़ी है।
अभी कुछ महीने पूर्व की ही बात है जब चीन के इसी सरकारी अखबार के हवाले से ये झूठी खबर प्रकाशित हुई कि उन्होंने गलवान घाटी के आसपास से अपनी फोर्स हटाने का निर्णय ले लिया है। इसके अलावा अन्य क्षेत्रों से भी सेना हटाएंगे। दरअसल, ये उनका कोरा झूठ था, भारत सरकार को भ्रमित करने का ताकि इसके बाद भारत अपनी सेना हटाए और हम चुपके से रात के अंधेरे में धावा बोल दें। देखिए ये बदला हुआ भारत है, अब यहां रात में भी चौकन्ने रहते हैं। हिंदुस्तान 1962 के मुकाबले 2023 में बहुत मजबूत खड़ा है। भारत की सरकार भी कठोर है जिसे चीन भलीभांति जानता और समझता भी है। वरना, अभी तक तो कोई ना कोई गड़बड़ी कर चुका होता। कुछ हरकतें की भी जिसका उन्हें उनकी ही भाषा में जवाब भी मिला।
चीन को लग रहा है, उनके इस निर्णय पर भारत सरकार में खलबली मचेगी लेकिन ऐसा हुआ बिल्कुल भी नहीं। क्योंकि केंद्र सरकार चीनी मसले पर कोई जल्दबाजी नहीं दिखाना चाहता। केंद्र सरकार अरुणाचल क्षेत्र पर आंच तक नहीं आने देना चाहती। 2017 में जब निर्वासित तिब्बती बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा की अरुणाचल यात्रा हुई तब भी चीन ने हंगामा काटा था। चीन ने भारत सरकार पर खूब दबाव बनाया था ताकि भारत उनकी यात्रा रोक दें। यात्रा रोकने के बजाय भारत ने उलटे दलाई लामा की कड़ी सुरक्षा-व्यवस्था में यात्रा को होने दिया और उन्हें राजकीय अतिथि के रूप में प्रोटोकॉल भी दिया। इससे चीन और आगबबूला हो गया। अंदर ही अंदर मन मसोसकर रह गया। उसी दौरान उनके विदेश उप-मंत्री का भारत दौरा था, उन्हें खुन्नस में आकर निरस्त कर दिया।
बहरहाल, केंद्र सरकार चीन की प्रत्येक चाल को कुचलती आई है। नापाक हरकत करने का जरा भी मौका नहीं दे रही है। यही वजह है चीन जो भी कुछ कर रहा है, शंघाई में ही बैठकर। उसे पता है, मैदान में आकर उसे मुंह की ही खानी पड़ेगी। चीन ने भारत के खिलाफ नेपाल और पाकिस्तान को भी उकसा कर देख लिया, उससे भी कोई फायदा नहीं हुआ। तालिबानियों से भी मदद मांग ली, उन्होंने भी खाली हाथ लौटा दिया। कुल मिलाकर वह चारों तरफ से अब अकेला पड़ गया है। नेपाल की सत्ता में चीन का बढ़ता कदम आने वाले समय में नेपालियों के लिए ही भारी पड़ने वाला है। उनके साथ मिलकर हमें परेशान करने की फिराक में था। वहां भी उनकी दाल नहीं गली।
बहरहाल, भारत-चीन सीमा विवाद की एबीसीडी समझने की जरूरत है। 3500 किमी लंबी सीमा है जो तीन सेक्टरों में विभाजित है। अव्वल, पश्चिमी सेक्टर जो जम्मू-कश्मीर में 1597 क्षेत्रफल में फैला है। जहां, चीन का दखल नहीं है। दूसरा, मध्य सेक्टर है जो हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की साझा सीमाओं से सटा हुआ है जिसकी अधिकृत लंबाई 545 किमी है। यहां, भी उसकी ज्यादा कोई दखलंदाजी सीधे तौर पर नहीं है।
तीसरा, क्षेत्र जो पूर्व क्षेत्र है वो अरुणाचल प्रदेश से सटा है, बारीक-सा हिस्सा सिक्किम से लगा है जिसकी लंबाई 1346 किमी है, जिसे वह कब्जाना चाहता है। जबकि, अक्साई क्षेत्र ऐसा है जिसे भारत अपना हिस्सा मानता है, जो कभी हमारा हुआ भी करता था। जिसे चीन ने 1962 युद्ध के बाद कब्जा लिया था। तभी से ये भाग उसके कब्जे में है।
वहीं, पूर्वी सेक्टर जो अरुणाचल प्रदेश में आता है, उसके पूरे भूभाग को चीन अपना बताता है, उस क्षेत्र में जितने भी भारतीय गांव-कस्बे बसे हैं उनका नाम बदल रहा है। नया विवाद यहीं से शुरू हुआ है। जबकि, ऐसी हरकतें वो एकाध दफे नहीं, बल्कि बीते एक दशक में पांचवीं बार कर चुका है। आगे भी करेगा, ऐसे में हिंदुस्तान सरकार को भी करीब 600 किमी में फैले अक्साई क्षेत्र के नामों को बदलकर अपने नाम दे देने चाहिए, क्योंकि उस क्षेत्र का पुराना नक्शा आज भी भारत सरकार के पास सुरक्षित है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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