महापौर केसरी दंगल पर विशेष
इंदौर पहलवानों का गढ़ रहा है और कभी यहां कुश्ती अपने पूरे शबाब पर थी, जिसे देखने के लिए दूरदराज से लोग आते थे। आधुनिक होते शहर में ये परंपरा लुप्त होते जा रही है, लेकिन शहर के अखाड़ों ने ही इस परंपरा को जिंदा रखा है। सरकारी कुश्ती का इतिहास भी बहुत पुराना है, जब 1983 में भाजपा का महापौर (Mayor of BJP) चुना गया था। उस समय प्रदेश में कांगे्रस की सरकार थी और 19 साल से चुनाव नहीं हुए थे। चुनाव हुए और राजेन्द्र धारकर महापौर (Rajendra Dharkar Mayor) बने। मुझे सार्वजनिक संबंध समिति का अध्यक्ष बनाया गया जो अब सामान्य प्रशासन के नाम से जानी जाती है। समिति का अध्यक्ष होने के नाते और कुश्ती प्रेमियों की मांग होने पर हमने महापौर कुश्ती करवाने की ठानी, लेकिन ये काम कोई आसान नहीं था। 1984 में हमने शहर के बड़े पहलवानों के साथ मिलकर रूपरेखा बनाना शुरू की। तय हुआ कि देखने वालों से 1 रुपए इंट्री फीस ली जाएगी और लडऩे वाले पहलवानों से 10 रुपए में फार्म भरवाया जाएगा। फार्म में भी हमने ऐसी शर्तें रखी कि बाद में कोई बवाल न हो। उस समय कलेक्टर अजीत जोगी और एसपी रामलाल वर्मा हुआ करते थे। एसपी को जब हमने पुलिस की व्यवस्था के लिए कहा तो उन्होंने हाथ खड़े कर दिए और कहा कि व्यवस्था आपके हाथ में रहेगी। हम सुरक्षा व्यवस्था कर देंगे, लेकिन हिन्दू-मुस्लिम पहलवानों के बीच कुश्ती मत करवाना। नहीं तो हम अनुमति नहीं देंगे। हमने भी कह दिया कि अगर ड्रा में नाम आ गया तो फिर हम कुछ नहीं कर सकते। खैर कुश्ती की तारीख तय हुई। पुलिस विभाग के राधेश्याम आर्य, राजेन्द्र मिश्रा और भाजपा नेता मुन्नू इक्का पहलवान को निर्णायक बनाया गया। मालूम पड़ा कि वहां की मिट्टी कडक़ है, जिससे पहलवान चोटिल हो जाएंगे तो मिट्टी में 15 दिन में 4 टैंकर छांछ और 5 टंकी तेल डलवाया गया। बाहर से मजदूरों को बुलाकर मिट्टी को पलटाकर नरम बनाया गया। आखिर वो घड़ी आ गई, जिसके लिए सारी मशक्कत की थी। जिस दिन शुरूआत हुई, उस दिन सुबह 1 बजे से लाइन लग गई तो हमें इंट्री फ्री करना पड़ी। 700 जोड़ पहलवानों के बीच कुश्ती होना थी, जिसके लिए कई जिलों के 1400 पहलवान इंदौर आए थे। छोटा नेहरू स्टेडियम में मेला-सा लग गया था। आयोजन 10 दिन तक चला। हमने एक नियम बनाया था कि प्रत्येक कुश्ती जितने वाले पहलवान को 50 और हारने वाले को 25 रुपए देंगे। आखिर में एक कुश्ती ऐसी फंसी कि अकरम और घनश्याम नामक पहलवान आमने-सामने हो गए। दोनों ओर से धार्मिक नारेबाजी होने लगी। ये देख हमारे साथ-साथ पुलिस की भी सांसें फूल गईं, लेकिन अकरम समय पर नहीं पहुंच सका और घनश्याम को जीत दे दी गई। आखरी कुश्ती घनश्याम और रमेश यादव के बीच हुई। दोनों में कड़ा मुकाबला हुआ और आखिर में रमेश की जीत हुई, जिसे महापौर धारकर ने नगर निगम में स्थायी नौकरी दी और 11 हजार रुपए का नकद ईनाम भी दिया। हारने वाले को 7 हजार रुपए दिए। जब कुश्ती समाप्त हुई, तब हमने भी चैन की सांस ली और तब मालूम पड़ा कि पहलवानों का आयोजन कराना कितनी टेढ़ी खीर होता है।
(जैसा गोपीकृष्ण नेमा ने संजीव मालवीय को बताया)
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