– डॉ. वंदना सेन
जन्म लेने के बाद शिशु जो प्रथम भाषा सीखता है उसे उसकी मातृभाषा कहते हैं। मातृभाषा, किसी भी व्यक्ति की सामाजिक एवं भाषाई पहचान होती है। मातृभाषा का शाब्दिक अर्थ है मां से सीखी हुई भाषा। बालक यदि माता-पिता के अनुकरण से किसी भाषा को सीखता है तो वह भाषा ही उसकी मातृभाषा कहलाती है। मातृभाषा हम सभी को उस धरातल से जोड़ती है, जो हमें आगे बढ़ते के लिए आधार प्रदान करती है। इसलिए हम यह भी कह सकते हैं कि मातृभाषा हमें राष्ट्रीयता से जोड़ती है और देश प्रेम की भावना उत्प्रेरित भी करती है। जब हम अपनी स्वयं की भाषा से इतर किसी दूसरी भाषा में शिक्षा प्राप्त करते हैं तो स्वाभाविक रूप से वह हमारा बाहरी आवरण ही होता है। क्योंकि हमारे घर का, आसपास का वातावरण मातृभाषा का ही होता है।
इसका दुष्परिणाम यह भी होता है कि हम घर परिवार और समाज से समरस होने का सामर्थ्य खो देते हैं। हम केवल एक भाषा के तौर पर विकास का मिथ्या आवरण ओढ़ लेते हैं, जबकि सांस्कृतिक विकास की धारा से विमुख हो जाते हैं। इसलिए यह कहा जाना समुचित है कि मातृभाषा जमीनी संस्कार प्रदान करने वाली भाषा है। मातृभाषा से बच्चों का परिचय घर और परिवेश से ही शुरू हो जाता है। इस भाषा में बातचीत करने और चीजों को समझने-समझाने की क्षमता के साथ बच्चे विद्यालय में दाखिल होते हैं। अगर उनकी इस क्षमता का इस्तेमाल पढ़ाई के माध्यम के रूप में मातृभाषा का चुनाव करके किया जाए तो इसके सकारात्मक परिणाम देखने को मिलते हैं।
भारत की मुख्य विशेषता यह है कि यहां विभिन्नता में एकता है। भारत में विभिन्नता का स्वरूप न केवल भौगोलिक है, बल्कि भाषायी तथा सांस्कृतिक भी है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 1652 मातृभाषाएं प्रचलन में हैं, जबकि संविधान द्वारा 22 भाषाओं को राजभाषा की मान्यता प्रदान की गई है। आज का कड़वा सच ये है कि हर 14 दिन में दुनिया में एक भाषा विलुप्त हो रही है। कहीं ऐसा न हो कि विदेशी भाषाओं के मोहजाल में फंसकर हम अपने स्वत्व को ही मिटा दें। ऐसा करके हम अपने अस्तित्व को ही मिटाने का कार्य करेंगे।
यूनेस्को ने भाषायी विविधता को बढ़ावा और संरक्षण देने के लिए 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस घोषित किया था। मातृभाषा ही किसी भी व्यक्ति के शब्द और संप्रेषण कौशल की उद्गम होती है। एक कुशल संप्रेषक अपनी मातृभाषा के प्रति उतना ही संवेदनशील होगा, जितना विषय-वस्तु के प्रति। मातृभाषा व्यक्ति के संस्कारों की परिचायक है। वास्तविकता यह है कि मातृभाषा एक कुशल गुरु की भांति ही मार्ग प्रशस्त करती है। मातृभाषा बालक की प्रवृत्तियों को जगाकर स्वतंत्र रूप से सर्जन की प्रेरणा देती है। मातृभाषा में सरसता और पूर्णता की अनुभूति होती है। मातृभाषा मात्र संवाद ही नहीं, अपितु संस्कृति और संस्कारों की संवाहिका भी है। मातृभाषा सहज रूप में अनुकरण के माध्यम से सीखी जाती है। अन्य भाषाएं भी बौद्धिक प्रयत्न से सीखी जाती हैं। दोनों प्रकार की भाषाओं के सीखने में अंतर यह है कि मातृभाषा तब सीखी जाती है जब बुद्धि अविकसित होती है, अर्थात बुद्धि-विकास के साथ मातृभाषा सीखी जाती है। इससे ही इस संदर्भ में होने वाले परिश्रम का ज्ञान नहीं होता है।
अपनी भाषा को मातृभाषा क्यों कहते हैं, पितृभाषा क्यों नहीं? किसी भी संतान को जन्म देने वाली एक मां ही होती है और उससे ही बच्चे सबसे पहले भाषा को सुनते और बोलते हैं। पाठशाला जाने से पहले तक बच्चे जो भी बोलना सीखते हैं उसमें सबसे ज्यादा योगदान मां का ही होता है। अत: स्वाभाविक है कि इस भाषा को मातृभाषा कहा जाता है। मातृभाषा के गर्भ में उच्च प्रकृति बनाने की शक्ति होती है। मातृभाषा के प्रचार से सदाचार को किसी विचित्र तथा विलक्षण मानसिक प्रभाव के कारण अत्यंत लाभ होता है। मातृभाषा से हम जो सीखते हैं, वह संसार की अन्य किसी भाषा से नहीं सीख सकते। सभी संस्कार एवं व्यवहार इसी के द्वारा हम पाते हैं। इसी भाषा से हम अपनी संस्कृति के साथ जुड़कर उसकी धरोहर को आगे बढ़ाते हैं। अपने जीवन में दूसरों से ज्यादा वो हमेशा हमारा ध्यान रखती है और प्यार करती है जितना कि हम काबिल नहीं होते हैं।
मातृभाषा से बच्चों का परिचय घर और परिवेश से ही शुरू हो जाता है। इस भाषा में बातचीत करने और चीजों को समझने-समझाने की क्षमता के साथ बच्चे विद्यालय में दाखिल होते हैं। अगर उनकी इस क्षमता का इस्तेमाल पढ़ाई के माध्यम के रूप में मातृभाषा का चुनाव करके किया जाए तो इसके सकारात्मक परिणाम देखने को मिलते हैं। हम अक्सर देखते हैं कि बहुत सी बातें अवधी, भोजपुरी, ब्रजभाषा, मगही, मराठी, कोंकणी, बागड़ी और गरासिया आदि भाषाओं (अथवा बोलियों) में कही जाती हैं तो उनका व्यापक असर होता है।
कई बार मातृभाषा को हतोत्साहित करने की प्रवृत्ति विद्यालयों में देखी जाती है। जैसे हिंदी बोलने पर इंग्लिश मीडियम स्कूलों में फाइन लगने वाली घटनाओं के बारे में हमने सुना है। ऐसे ही अवधी या अन्य मातृभाषाओं के गीतों को स्कूलों में गाने से बच्चों को हतोत्साहित किया जाता है। इसका अर्थ है कि हम बच्चों को उनके अपने परिवेश, संस्कृति और उनकी जड़ों से काट देना चाहते हैं। यह प्रक्रिया बड़ी चालाकी के साथ बचपन से ही शुरू हो जाती है और एक दिन हमें अहसास होता है कि हम अपनी ही जड़ों से अजनबी हो गए हैं। इससे बचने का एक ही तरीका है कि हम मातृभाषा में संवाद, चिंतन और विचार-विमर्श को अपने रोजमर्रा की जि़ंदगी में शामिल करें। इसके इस्तेमाल को लेकर किसी भी तरह की हीनभावना का शिकार होने की बजाय ऐसा करने को प्रोत्साहित करें।
(लेखिका, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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