– सुशील शर्मा
देश में शाहरुख खान और दीपिका पादुकोण पर केंद्रित फिल्म पठान के गीत ‘बेशर्म रंग’ के रिलीज होते ही बवंडर आ गया है। इस गीत को भद्दा और अश्लील कहकर निशाने पर लिया गया है। पठान पर प्रतिबंध लगाने की मांग ने जोर पकड़ लिया है। आधुनिकता की चादर ओढ़ चुका समाज का एक तबका आक्रामक है। सच तो यह है कि फिल्मों और धारावाहिकों में अश्लीलता परोसने का सिलसिला पुराना है। यह धारणा स्थापित की गई है कि सिनेमा अपने दौर के समाज का आईना होता है। और इसी अवधारणा के नाम पर विज्ञापनों तक में नीली फंतासियां तारी हो रही है।
मनोरंजन का यह संसार भी निराला है। अश्लील और द्विअर्थी संवादों को सफलता की गारंटी माना जा रहा है। इनको इससे मतलब नहीं कि यह सब समाज पर कितना दुष्प्रभाव डालता है। इसकी बानगी देखिए यौवन की दहलीज पर पैर रखते ही किशोरियां उन्मुक्त होकर आसमान में उड़ने लगती हैं। फिल्मों की नीली दुनिया का यह असर युवा पीढ़ी को अनैतिक भावनाओं की अंधी सुरंग में ले जा रहा है। बढ़ते यौन अपराध इसकी तसदीक करते हैं। सहजीवन की अवधारणा में हुआ श्रद्धा हत्याकांड इसकी पराकाष्ठा है।
हर कोई जानता है कि जिस्म दिखाऊ वस्त्र पहनने की शिक्षा न ही कोई माता-पिता अपने बच्चों को देता है और न ही कोई गुरु अपने शिष्य को। तब सवाल उठता है कि फिर समाज का परिदृश्य क्यों बिगड़ रहा है। इसका जवाब बहुत तक साफ है। इसके लिए बहुत हद तक बड़ा और छोटा परदा जिम्मेदार हैं। फिल्म पठान का ‘बेशर्म रंग’ सोशल मीडिया में लोक-लाज की परिधि को लांघकर पसंद (लाइक्स) का रिकार्ड तोड़ने की ओर बढ़ रहा है। ऐसी फिल्मों पर सेंसर बोर्ड को गंभीर होने की जरूरत है। अश्लीलता का यह व्यापार बंद होना चाहिए।
समाज का एक हिस्सा सिनेमा और रंगमंच से उम्मीद करता है कि वह कुरीतियों के उन्मूलन में योगदान देगा। हालांकि समाज सुधार की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में भारतीय फिल्मों ने योगदान दिया भी है पर पिछले दो दशकों में इसके प्रति अपेक्षाओं को धक्का लगा है। द्विअर्थी संवाद से अश्लीलता परोसती फिल्मों से सांस्कृतिक मूल्यों का क्षरण हुआ है। इसके बाद आया छोटा परदा। शुरू में इसने पारिवारिक समस्याओं और रिश्तों में उलझन सुलझाने में सकारात्मक भूमिका निभाई। यह सब करते-करते यह भी अश्लीलता में कब तब्दील हो गया, पता ही नहीं चला। परिवारिक धारावाहिकों में नायक-नायिकाओं के निजी पलों का प्रदर्शन तो इस समय अनिवार्य सा हो गया है। सौभाग्य से जिस परदे को समाज सुधार के एक बड़े रहनुमा के तौर पर देखा गया, अब वही पथभ्रष्ट हो गया है।
हालांकि इस संबंध में भारतीय दंड संहिता में साफ है। समाज पर गलत असर डालने पर इसमें कठोर दंड का प्रावधान है। इस संहिता की धारा 292 कहती है कि कोई भी व्यक्ति अश्लील वस्तु जैसे-पुस्तक, कागज, रेखाचित्र, रंगचित्र, आकृति, मूर्ति आदि को नहीं बेच सकता। न ही किराये पर दे सकता है, न ही वितरण कर सकता है, न ही लोक प्रदर्शित कर सकता है। अश्लील विज्ञापन को जानबूझकर पोस्ट नहीं कर सकता। न ही अश्लील माइक्रो वीडियो या फिल्म बना सकता है। इस धारा को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि ऐसा करने वाला व्यक्ति इस धारा के अंतर्गत दोषी होगा। कुछ दिन पहले चर्चित मॉडल उर्फी जावेद के खिलाफ अश्लीलता फैलाने के आरोप में मुंबई में शिकायत दर्ज हुई है। अपनी शिकायत में एडवोकेट अली काशिफ खान ने आरोप लगाया है कि उर्फी जावेद अपनी पोशाक से सार्वजनिक स्थान और सोशल मीडिया पर कथित तौर पर अश्लीलता फैलाती हैं।
अब देखना बाकी है कि इस पर क्या होता है। यह सबको पता है कि भारत में अश्लीलता अपराध है। भारतीय दंड संहिता की धारा 292, 293 और 294 के तहत अश्लीलता फैलाने पर सजा हो सकती है। दोषी पाये जाने पर दो साल की सजा का प्रावधान है। अच्छी बात यह है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस मुद्दे पर बेहद संजीदा हैं। वह ‘बेशर्म रंग’ की कड़ी आलोचना कर चुके हैं। पिछले साल भोजपुरी फिल्मों में दिखाए गए दृश्यों और गानों के सहारे फैलाई जा रही अश्लीलता पर कड़ा रुख अपना चुके हैं। वो ऐसी फिल्मों को अनुदान को देने से इनकार कर कड़ा संदेश दे चुके हैं।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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