– डॉ. विपिन कुमार
हमारी हिन्दी दुनिया की सबसे सरल और सहज भाषाओं में से एक है। हिन्दी की मूल भाषा संस्कृत है। वह दुनिया की सबसे प्राचीन भाषा है। उसे ‘देव भाषा’ का भी दर्जा हासिल है। आज संपूर्ण विश्व में हिन्दी बोलने और समझने वालों की संख्या 80 करोड़ से भी अधिक है और यह चीनी के बाद सबसे बड़ी भाषा मानी जाती है। लेकिन, इस विषय में यदि हिंदी शोध संस्थान, देहरादून के महानिदेशक डॉक्टर जयंती प्रसाद नौटियाल की ‘शोध अध्ययन – 2021’ की मानें, तो आज हिन्दी विश्व की सबसे बड़ी भाषा बन चुकी है और उनका यह शोध केंद्रीय हिन्दी निदेशालय, भारत सरकार,आगरा द्वारा नियुक्त भाषा विशेषज्ञों द्वारा पूर्णतः प्रमाणित भी है।
हिन्दी ने अपना यह स्वरूप कई सदियों के पश्चात हासिल किया है। इसकी लिपि देवनागिरी है, जो कई अन्य देशज भाषाओं में भी सहायक है। यही कारण है कि हिन्दी हमारी राष्ट्रीय एकता, अखंडता और अस्मिता की प्रतीक है। यह हमारे आदर्शों, संस्कृतियों और परम्पराओं की एक महान संवाहिका है। इसके बिना हमारे अस्तित्व की कोई पहचान नहीं है। भारतीय संविधान में हिन्दी को संघ की भाषा का दर्जा हासिल है और वर्तमान समय में यह वैश्विक मंच पर एक वैज्ञानिक भाषा के रूप में तेजी से अपनी पहचान स्थापित कर रही है। हिन्दी की वैश्विक स्तर पर निरंतर बढ़ती लोकप्रियता और महत्व से इस क्षेत्र में रोजगार सृजन की भी असीम संभावनाएं बढ़ी हैं। गौरतलब है कि हिन्दी को हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ में हाल ही में अरबी, चीनी, अंग्रेजी, रूस, स्पेनिश और फ्रेंच के साथ आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता मिल गई है।
इससे स्पष्ट है कि अब संयुक्त राष्ट्र संघ के समस्त कार्यों और उसके उद्देश्यों की जानकारी हिन्दी में उपलब्ध होगी और इससे हिन्दी के वैश्विक प्रसार को एक नया वैश्विक आयाम मिलेगा। हालांकि, हिन्दी के लिए इस उपलब्धि को हासिल करना कई मुश्किलों से भरा रहा है। क्योंकि, संयुक्त राष्ट्र संघ के संस्थापक सदस्यों में रहने के बावजूद भारत दशकों तक हिन्दी को आधिकारिक भाषा का स्थान दिलाने के लिए जूझता रहा। इस कड़ी में, पहली कोशिश 1975 में हुई जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अध्यक्षता में पहला विश्व हिंदी सम्मेलन आयोजित किया गया और इस दौरान मॉरीशस ने हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दिलाने का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव को रूस समेत सम्मेलन में हिस्सा लेने वाले सभी देशों ने अपना समर्थन दिया।
इसके बाद हर अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलनों में इसे संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा के रूप में मान्यता देने की मांग उठी और इस दिशा में हमारे राजनीतिक वर्ग ने भी अपनी बीती गलतियों को भुलाकर अपनी मजबूत इच्छाशक्ति दिखाई। इस दिशा में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के योगदानों का स्मरण करना बेहद जरूरी है, जिन्होंने 1978 में एक विदेश मंत्री के तौर पर संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपना भाषण हिन्दी देकर हिन्दी को वैश्विक आयाम देने के लिए एक नया आधार तैयार कर दिया। बाद के वर्षों में श्याम नंदन मिश्र, पीवी नरसिंह राव और राजनाथ सिंह जैसे राजनेता उनकी राह पर चले और हिन्दी को एक नई प्रबलता प्रदान की।
गौरतलब है कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता न देने के दो मुख्य कारण थे। पहली वजह कार्यविधि की नियमावली 51 में संशोधन और दो तिहाई देशों का समर्थन हासिल करने की चुनौती थी, तो दूसरी वजह आधिकारिक दर्जा मिलने के बाद हिन्दी में होने वाले कामकाज के खर्च उठाना था। जैसा कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे देश ने कई आर्थिक संकटों का सामना किया है और इसी वजह से किसी भी सरकार के लिए इस खर्च का उठाना संभव नहीं था।
दूसरी ओर, मॉरीशस, सुरीनाम, त्रिनिडाड एवं टोबैगो, नेपाल और फिजी जैसे देशों में भले ही हिन्दी बोली और समझी जाती हो, लेकिन वे आर्थिक और राजनीतिक रूप से भारत की मदद करने में सक्षम नहीं थे। लेकिन 2014 में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही देश में आर्थिक विकास के साथ ही, सामाजिक और सांस्कृतिक सुरक्षा को लेकर एक नए विमर्श ने जन्म ले लिया और उन्होंने हिन्दी को बढ़ावा देने के लिए आरंभ से ही कई प्रयास किए। यह उनके ही प्रयासों का नतीजा है कि साल 2018 में संयुक्त राष्ट्र में ‘हिंदी @ यूएन’ परियोजना की शुरुआत हुई, जिसका उद्देश्य संघ की तमाम सूचनाओं को दुनियाभर में फैले हिन्दी भाषी लोगों तक पहुंचाना और उनमें वैश्विक समस्याओं से जुड़े विमर्श को बढ़ावा देना था।
इस कड़ी में, भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र को 8 लाख अमेरिकी डॉलर का सहयोग भी किया। और अब हिन्दी संयुक्त राष्ट्र संघ की सातवीं आधिकारिक भाषा बन चुकी है। आज संपूर्ण विश्व में 6500 से भी अधिक भाषाएं बोली जाती है और हिन्दी का यह विशाल दायरा यह भारतीय के लिए गर्व और स्वाभिमान का विषय है। हमने आजादी के अमृत काल में खुद को विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति के रूप में स्थापित करने के लिए ‘पंच प्रण’ का संकल्प लिया है। ऐसे में हिन्दी को लेकर हमारी महत्वाकांक्षाएं भी बढ़ जाती है। क्योंकि यह देश की अतीत और आधुनिक प्रगति के बीच सबसे महान कड़ी है। इसलिए हमें देश में तेजी से बढ़ रहे अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों की संख्या पर अंकुश लगाने के लिए और हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के उत्थान और विकास के लिए गाँधीवादी आंदोलन को देना होगा। क्योंकि सदियों पहले लॉर्ड मैकाले द्वारा देश पर थोपी गई यह शिक्षा व्यवस्था हमारे आदर्शों और मूल्यों को धूमिल कर रही है और एक ऐसे पाश्चात्य प्रभाव का निर्माण कर रही है, जो अंदर से बिल्कुल खोखला है।
अंग्रेजी को अंगीकार कर हम चाहे जितनी भी आर्थिक प्रगति कर लें, लेकिन सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता हमें अपनी भाषाओं से ही हासिल हो सकती है। यदि हमें प्रधानमंत्री के ‘रिफॉर्म’, ‘परफॉर्म’, ‘ट्रांसफॉर्म’ के संकल्पों को सिद्ध करना है, तो हमें यह करना ही होगा और मैं इसे लेकर पूरी तरह आशान्वित हूं कि साल 2035 यानी मैकाले शिक्षा पद्धति के 200 वर्ष पूरे होने तक हमें अंग्रेजियत से पूरी तरह से मुक्ति मिल जाएगी।
(लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं। )
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