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    स्वराज का बिम्ब और स्वदेशी का संकल्प

  • October 02, 2022

    – गिरीश्वर मिश्र

    सन् 1909 में लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए गांधी जी ने तब तक के अपने सामाजिक-राजनैतिक विचारों को सार रूप में गुजराती में दर्ज किया था जिसे ‘हिंद स्वराज’ शीर्षक से प्रकाशित किया था। उसे बंबई की सरकार ने जब्त कर लिया। फिर जब गांधी जी 1915 में दक्षिण अफ्रीका का कार्य पूरा कर भारत लौटे तब इस पुस्तिका को अंग्रेजी में छपवाया । इस बार सरकार ने विरोध नहीं किया और यह पढ़ने के लिए सब को उपलब्ध हो गई। इसे लेकर देश-विदेश में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की आलोचनाएं होती रहीं। खुद गांधी जी के शब्दों में ‘इसके विचार उनकी आत्मा में गढ़े-जड़े हुए’ से थे। सन् 1938 में सेवाग्राम, वर्धा में आर्यन पथ नामक पत्रिका में अंग्रेजी में इसके प्रकाशन के अवसर पर उन्होंने कहा था कि ‘इसे लिखने के बाद तीस साल मैंने अनेक आंधियों में बिताए हैं, उनमें मुझे इस पुस्तक में फेर बदल करने का कुछ भी कारण नहीं मिला।’ उनका दृढ़ और सुचिंतित विचार था कि अपने समय के वर्चस्वशाली पश्चिम यानी यूरोप और अमेरिका की आधुनिक सभ्यता मनुष्य मात्र के लिए कल्याणप्रद नहीं है।

    इसके विपरीत प्राचीन धर्म-परायण और नीति-प्रधान सभ्यता उन्हें श्रेयस्कर प्रतीत होती थी। इसीलिए उनकी दृष्टि में अंग्रेजों को भारत से हटा देना ही स्वराज के लिए पर्याप्त न था। वे उनके आदर्श और सभ्यता को अंगीकार करने में भलाई नहीं देख रहे थे। उनकी दृष्टि में भारत की आत्मा को बचाना ही मुख्य कर्तव्य है। गांधी जी बड़े स्पष्ट शब्दों में पश्चिमी शिक्षण, विज्ञान और संस्थाओं को ले कर अपनी गम्भीर शंका व्यक्त करते हैं। इसी प्रसंग में वे रेल, न्यायालय और अस्पताल आदि के नुक्स निकालते हैं। अंतत: गांधी जी अपने विश्लेषण में उस आध्यात्मिक स्वराज्य की ओर अग्रसर होते दिखते हैं जो सर्वोदय का आकांक्षी है। स्वराज्य का अर्थ अपने मन का राज्य तो है पर उसका आधार सत्याग्रह, आत्मबल या करना बल है और उस बल को आजमाने के लिए स्वदेशी को पूरी तरह से अपनाने की जरूरत है। ऐसा करना हमारा कर्तव्य है। इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में पहुंच कर युद्ध, हिंसा और असहिष्णुता की समकालीन परिस्थितियां सभ्यता को लेकर गांधी जी के विचारों की ओर ध्यान आकृष्ट कर रही हैं।

    वैसे तो गांधी जी द्वारा प्रस्तावित अहिंसा की सामर्थ्य, यंत्रवाद का विरोध और सत्याग्रह की भूमिका को लेकर विचारकों में मतभेद है तथापि सभी यह स्वीकार करते हैं कि हिंद स्वराज गांधी जी के जीवन और कार्य की मूल संवेदना है। यह भी गौरतलब है कि असहयोग, सविनय कानून भंग और सत्याग्रह ने भारत के स्वतंत्रता-आंदोलन को एक भिन्न चरित्र प्रदान किया था। इतिहास गवाह है कि देश ने स्वराज्य का फल तो स्वीकार किया पर उस सांस्कृतिक आदर्श और जीवन-दृष्टि को अपनाने के प्रति अपेक्षित श्रद्धा नहीं दिखा सका। इसके परिणामस्वरूप गांधी जी के विचार आज के संदर्भ में अप्रासंगिक करार दिए जाने लगे । आज पश्चिमी विज्ञान और यंत्र-प्रणाली में दक्षता का प्राधान्य होने के उसकी अनेक विसंगतियां भी उजागर हो रही हैं। गांधी जी यंत्रों के विस्तार के पीछे श्रम की बचत की जगह धन का लोभ मुख्य कारण मानते थे । इसलिए वह यंत्रों की हदबंदी करना चाहते थे। वह धन के पीछे अंधी दौड़ के खिलाफ थे। इस तथ्य के आलोक में ‘हिंद स्वराज’ मानवीय चैतन्य के स्रोत की तरह है जो भविष्य की राह का संकेत करने वाला है। इस वर्ष अमृत महोत्सव मनाते हुए राष्ट्रपिता के हिंद स्वराज से आलोक प्राप्त करना लाभकर होगा।

    स्मरणीय है कि भारत के लिए अंग्रेजरहित अंग्रेजी-राज्य का विकल्प गांधी जी को स्वीकार्य नहीं था । वे पार्लियामेंटरी व्यवस्था में भी अनेक खामियां देख रहे थे। इन सब के मूल में पश्चिमी सभ्यता की जांच-परख करते हुए वे कहते हैं कि यह सभ्यता बाहरी (दुनिया) की खोज और शरीर के सुख में ही धन्यता-सार्थकता और पुरुषार्थ मानती है। इस विचार का खंडन करने के बाद गांधी जी कहते हैं कि इसमें नीति या धर्म नहीं है। शरीर-सुख का निरंतर संधान करना ही इसका एकमेव प्राप्तव्य और अभीष्ट हो गया है। कलियुग के दौर की यह शैतानी सभ्यता दूसरों का नाश करने वाली और खुद नाशवान है। गांधी जी के विचार में पश्चिमी देशों का समाज स्वभाव से अच्छे दिल का होने पर भी सभ्यता के रोग में फंसे हुए हैं।

    भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना को लेकर गांधी जी का आत्मालोचन जिस निष्कर्ष की ओर ले जाता है वह विचारणीय है। वह कहते हैं कि हिंदुस्तान अंग्रेजों के पास गया नहीं वरन हम भारतीयों ने अंग्रेजों को दे दिया और जैसे हमने दिया वैसे ही हम हिंदुस्तान को उनके पास रहने भी देते हैं। उनके बने रहने में भारतीय ही मददगार हैं। अंग्रेज चालबाजी कर के रिझाते हैं और रिझा कर काम लेते हैं। हम आपस में झगड़ कर उन्हें बढ़ावा देते हैं। गांधी जी की तजबीज है कि हिंदुस्तान की समस्या है कि वह धर्म-भ्रष्ट होता जा रहा है । वे धर्मों के अंदर के धर्म की बात करते हैं और कहते हैं कि हम ईश्वर से विमुख होते जा रहे हैं। वे धर्म के नाम पर होने वाली ठगी और पाखंड उनके अनुसार हमें दुनियावी लोभ की हद बांधनी चाहिए और धार्मिक लोभ को खुला छोड़ देना चाहिए ताकि मनुष्य मात्र और सृष्टि से हमारा संबंध विचार में बना रहे। सही तौर पर धर्म को समझ कर उसकी रक्षा कर के ही पाखंड से मुक्ति मिल सकेगी न कि उससे मुंह मोड़ लेने से। तभी सौहार्द आएगा और लोग निर्भय हो कर जीवन जी सकेंगे। आज नैतिकता के तीव्र क्षरण के दौर में ये विचार हृदय को छूने वाले हैं।

    गांधी जी अंग्रेजों की इस सीख का कि भारत में एक राष्ट्र नहीं था जम कर प्रतिकार करते हैं। उनके शब्दों में यह बात बिल्कुल बेबुनियाद है । वे कहते हैं जब अंग्रेज हिंदुस्तान में नहीं थे तब हम एक राष्ट्र थे, हमारे विचार एक थे, हमारा रहन-सहन एक था। तभी तो अंग्रेजों ने यहाँ एक-राज्य कायम किया। भेद तो हमारे बीच बाद में उन्होंने पैदा किया । गांधी जी आगे कहते हैं कि भगवान ने मनुष्य की हद उसके शरीर की बनावट से ही बांध दी, लेकिन मनुष्य ने उस बनावट की हद को लांघने के उपाय ढूंढ निकाले। मनुष्य को अक्ल इसलिए दी गयी है की उसकी मदद से वह भगवान को पहचाने । पर मनुष्य ने उसका उपयोग भगवान को भूलने में किया। गांधी जी विभिन्न धर्मावलम्बियों में राष्ट्र की दृष्टि से कोई भेद नहीं देखते। उनका विश्वास था की हिंदुस्तान में चाहे जिस धर्म के आदमी रह सकते हैं; उससे यह एक-राष्ट्र मिटने वाला नहीं है। हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई, जो इस देश को अपना वतन मान कर बस चुके हैं एक-देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं, और उन्हें एक दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा। विभिन्न धर्म एक ही जगह पहुंचने के अलग-अलग रास्ते हैं। सभी को अपने धर्म का स्वरूप समझ कर उसका आचरण करना चाहिए।

    गांधी जी हिंदुस्तान की सभ्यता के कायल हैं। उनके हिसाब से- ‘सभ्यता वह आचरण है जिससे आदमी अपना फर्ज अदा करता है। फर्ज अदा करने के मानी हैं नीति का पालन करना। नीति के पालन का मतलब है अपने मन और इंद्रियों को बस में रखना। ऐसा करते हुए हम अपने को (अपनी असलियात को) पहचानते हैं। यही सभ्यता है।’ गांधी जी समाज की कुरीतियों से भी वाकिफ हैं और उन्हें दूर करने में देश को सक्षम मानते हैं। उनके शब्दों में किसी भी सभ्यता के मातहत सभी लोग सम्पूर्णता तक नहीं पहुंच पाए हैं। हिंदुस्तान की सभ्यता का झुकाव नीति को मजबूत करने की ओर है। पश्चिम की सभ्यता का झुकाव अनीति को मजबूत करने की ओर है। यों समझ कर, ऐसी श्रद्धा रख कर, हिंदुस्तान के हितचिंतकों को चाहिए कि वे हिंदुस्तान की सभ्यता से, बच्चा जैसे अपनी मां से चिपटा रहता है वैसे, चिपट रहे।

    गांधी जी स्वराज्य पाने के लिए सत्याग्रह का प्रस्ताव करते हैं जिसके मूल में सत्य, ब्रह्मचर्य और अभय का बल है और जो ऐसी दुधारी तलवार है जिसे चलाने वाला और जिस पर चलाई जाती है, दोनों ही सुखी होते हैं। वे मानते हैं कि मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी। गांधी जी के अनुसार अंग्रेजी शिक्षा ने राष्ट्र को गुलाम बनाया है। इस शिक्षा से दंभ, राग और जुल्म आदि बढ़े हैं। इस शिक्षा को पाकर लोगों ने प्रजा को ठगने में, उसे परेशान करने में कुछ भी उठा नहीं रखा है। वह कहते हैं की सच्ची शिक्षा से बुद्धि, शुद्ध, शांत और न्यायदर्शी होती है। व्यक्ति का मन कुदरती कानूनों से भरा होता है और उसकी इंद्रियां उसके बस में होती हैं, जिसके मन की भावनाएं बिल्कुल शुद्ध हैं, जिसे नीच कामों से नफरत है और जो दूसरों को अपने जैसा मानता है। गांधी जी कहते हैं की हमें अपनी सभी भाषाओं को उज्ज्वल-शानदार बनाना चाहिए।

    गांधी जी की स्वराज्य की संकल्पना समग्रतावादी है जिसमें आचरण के स्तर पर स्वदेशी और आत्मनिर्भर होने का आह्वान प्रमुख है। इसकी कार्ययोजना को अमल में लाने की अपेक्षा करती है। उसके विराट लक्ष्य की ओर देश की यात्रा जारी है। महात्मा गांधी के स्वराज का बिम्ब इस यात्रा के लिए प्रकाश स्तंभ की भांति है।

    (लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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