नई दिल्ली। तुर्की (Turkey) के राष्ट्रपति (president) रेसेप तैयप एर्दोगन यूएन पहुंचते ही असली रंग में आ गए। संयुक्त राष्ट्र महासभा (United nation general assembley) में दिए भाषण में तुर्की के राष्ट्रपति ने फिर से कश्मीर का राग अलापा। जबकि वे शंघाई सहयोग संगठन (SCO) की समरकंद में शिखर बैठक (Summit meeting) से इतर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात के लिए बेताबी दिखा रहे थे। लेकिन भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने भी आईना दिखाने में देर नहीं की। उन्होंने तुर्की के विदेश मंत्री मेवलट केवुसोगलु से बातचीत में साइप्रस (Cypres) का मुद्दा छेड़कर सबसे कमजोर नस दबा दी। जयशंकर ने इसे ट्वीट भी कर दिया। उन्होंने दो टूक कहा कि तुर्की संयुक्त राष्ट्र (United nation) के प्रस्ताव के हिसाब से साइप्रस मुद्दे का शांतिपूर्ण (Peacefull) हल निकाले।
बिलबिला उठता है तुर्की
साइप्रस के साथ तुर्की का लंबे वक्त से विवाद चल रहा है। शुरुआत 1974 में तब हुई जब तुर्की ने साइप्रस के उत्तरी हिस्से पर हमला करते हुए अवैध कब्जा कर लिया। तब साइप्रस में सैन्य विद्रोह हुआ था जिसे ग्रीस का समर्थन था। उसी से तुर्की बौखलाया था जिसका ग्रीस के साथ समुद्र क्षेत्र को लेकर पहले से ही विवाद चल रहा था। उत्तरी साइप्रस पर कब्जे के बाद तुर्की ने उसे टर्किश रिपब्लिक ऑफ नॉर्दर्न साइप्रस का नाम दे रखा है। सितंबर 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साइप्रस के राष्ट्रपति राष्ट्रपति निकोस अनास्तासियादेस से मुलाकात में भी तुर्की को साफ संदेश दिया था। मुलाकात में उन्होंने साइप्रस की स्वतंत्रता, संप्रभुता और क्षेत्रीय स्वायत्ता पर खास जोर दिया।
तुर्की ने बड़े हिस्से पर किया कब्जा
भूमध्य सागर में स्थित द्वीपीय देश साइप्रस कभी अंग्रेजों की कॉलोनी था। 1960 में वह ब्रिटेन की गुलामी से आजाद हुआ और वहां 1878 से चले आ रहे ब्रिटिश उपनिवेश का अंत और नए देश का उदय हुआ। नया-नया आजाद मुल्क, किस दिशा में बढ़े इसे लेकर सत्ता-संघर्ष का दौर शुरू हुआ। 15 जुलाई 1974 को साइप्रियट नैशनल गार्ड की अगुआई में तख्तापलट हुआ। निर्वाचित राष्ट्रपति माकरिओस की सरकार को बेदखल कर दिया गया। इसे ग्रीस का समर्थन हासिल था। इससे बौखलाए तुर्की ने सभी अंतरराष्ट्रीय कानूनों और संयुक्त राष्ट्र को ठेंगा दिखाते हुए साइप्रस के उत्तरी हिस्से पर हमला कर दिया। यह हमला दो चरणों में हुआ। दूसरे चरण के दौरान तुर्की ने फेमागुस्ता शहर को अपने कब्जे में ले लिया। साइप्रस के 36 प्रतिशत से ज्यादा क्षेत्र पर तुर्की ने अवैध कब्जा कर लिया।
डेढ़ लाख लोग अपने ही मुल्क में शरणार्थी
तुर्की के हमले की वजह से 162000 ग्रीक-साइप्रियोट अपने ही मुल्क में शरणार्थी बनकर रह गए। 1975 बीतते-बीतते तुर्की ने अपने अवैध कब्जे वाले क्षेत्र से साइप्रस के लोगों को अपने-अपने घरों और संपत्तियों को छोड़कर भागने के मजबूर किया। हालांकि, 20 हजार के करीब ग्रीक-साइप्रियोट अपना घर छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुए। इनमें से ज्यादातर करपासिया प्रायद्वीप के थे। लेकिन तुर्की के अत्याचारों की वजह से धीरे-धीरे उन्हें भी अपना घर छोड़ने को मजबूर होना पड़ा। आज उस इलाके में ग्रीक-साइप्रियोट की तादाद महज 300 बची है।
तुर्की ने हजारों लोगों को गिरफ्तार किया, कई अब भी लापता
साइप्रस संकट में सबसे ज्यादा त्रासद है बड़े पैमाने पर लोगों का लापता होना। तुर्की ने हमले के दौरान और उसके बाद हजारों ग्रीक-साइप्रियोट्स को गिरफ्तार किया। उन्हें यातना गृहों में रखा गया। 2000 से ज्यादा युद्धबंदियों को तुर्की की जेलों में रखा गया। उनमें से कई आज भी लापता हैं। तुर्की के अवैध कब्जे वाले इलाके में सैकड़ों सैनिक और आम नागरिक लापता हो गए, जिनका आजतक पता नहीं चला कि वे जिंदा भी हैं या मर चुके हैं। इनमें बुजुर्ग, महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे।
वियना समझौते की तुर्की ने उड़ाई धज्जी
2 अगस्त 1975 को तुर्की और साइप्रस के बीच वियना में समझौता हुआ। उसके मुताबिक, तुर्की को अपने अवैध कब्जे वाले इलाके में लोगों को शिक्षा, स्वास्थ्य, अपने मजहब को मानने की आजादी समेत सामान्य जीवन जीने में मददगार हर बुनियादी सुविधा मुहैया कराना था। लेकिन बातचीत की टेबल पर समझौते की बात करने वाले तुर्की की मंशा तो अलग ही थी। वियना समझौते का खुलेआम उल्लंघन करते हुए उसने उत्तरी साइप्रस में अपने अत्याचार जारी रखे और वहां के लोगों को सामूहिक पलायन के लिए मजबूर किया। साथ ही साथ उसने उत्तरी साइप्रस की डिमॉग्रफी को बदलने के लिए 1,60,000 से ज्यादा तुर्कों को वहां बसा दिया। वहां की सांस्कृतिक विरासत को तहस-नहस कर डाला। जगहों के पुराने मामों को बदल दिया। ईसाइयों को भगा दिया और पूरे इलाके का आखिरकार ‘तुर्कीकरण’ कर डाला।
उत्तरी साइप्रस का नाम बदला
धीरे-धीरे अपने अवैध कब्जे वाले क्षेत्र के ‘तुर्कीकरण’ के बाद 15 नवंबर 1983 को तुर्की ने एकतरफा फैसला करते हुए उस क्षेत्र को टर्किश रिपब्लिक ऑफ नॉर्दर्न साइप्रस नाम दे दिया। अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने तुर्की की इस दादागीरी की कड़ी निंदा की। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने अपने प्रस्ताव संख्या 541 (1983) में तुर्की के इस कदम को अवैध ठहराते हुए उसे कड़ी फटकार लगाई और अपने अनैतिक कदम को पीछे खींचने की अपील की। सुरक्षा परिषद ने सभी देशों से साइप्रस की संप्रभुता, स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करने की अपील की। साथ ही कहा कि रिपब्लिक ऑफ साइप्रस के अलावा किसी भी अन्य देश या सरकार को मान्यता न दी जाए।
1984 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव संख्या 550 पास किया जिसमें 1983 के रिजोलूशन 541 में कही बातों को और जोर देते हुए दोहराया गया। यूएनएससी ने तुर्की के अवैध कब्जे को नामंजूर बताते हुए कहा कि उत्तरी साइप्रस की डिमॉग्रफी को बदलने की कोशिश नहीं होनी चाहिए।
भारत ने दिया जोर का झटका
1974 से ही साइप्रस और तुर्की के बीच यह विवाद चलता आ रहा है। भारत इस विवाद का संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के अनुरूप शांतिपूर्ण समाधान की मांग करता रहा है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने अमेरिका में तुर्की के विदेश मंत्री के साथ मुलाकात में भारत के इसी रुख पर जोर दिया। इसके अलावा उन्होंने लीबिया की विदेश मंत्री नजला एल्मैंगोश से वहां के उथल-पुथल पर बातचीत करके भी तुर्की को सख्त संदेश दिया।
दरअसल, लीबिया में भी तुर्की लगातार दखल दे रहा है। वह लीबिया के हथियारबंद विद्रोही गुटों का खुलकर साथ देते हुए वहां एक तरह से अपनी कठपुतली सरकार बैठाने की नापाक कोशिश कर रहा है। राजधानी त्रिपोली में वह अपनी सेना भी तैनात कर रखा है। लीबिया के एक एयरबेस पर भी तुर्की का नियंत्रण है। पिछले महीने भी भारत ने लीबिया पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव को ‘खुल्लम-खुल्ला धता बताने’ और उसका लिहाज नहीं करने को लेकर तुर्की की कड़ी आलोचना की थी। संयुक्त राष्ट्र में भारत की राजदूत रुचिरा कंबोज ने जोर देकर कहा था लीबिया की संप्रभुता, एकता और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा की जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि यूएनएससी प्रस्ताव का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन गंभीर चिंता का विषय है।
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