– डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा अभी तो केरल में ही चल रही है। राहुल गांधी इसका नेतृत्व कर रहे हैं। इस यात्रा के दौरान भीड़-भाड़ भी ठीक-ठाक ही है। सवाल यह भी है कि देश के जिन अन्य प्रांतों से यह गुजरेगी, क्या वहां भी इसमें वैसा ही उत्साह दिखाई पड़ेगा, जैसा कि केरल में दिखाई पड़ रहा है? केरल में कांग्रेस ही प्रमुख विरोधी दल है और खुद राहुल वहीं से लोकसभा सदस्य हैं। केरल में कांग्रेस की सरकार कई बार बन चुकी है। उसकी टक्कर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से हुआ करती है लेकिन इस यात्रा के दौरान सारा जोर भाजपा के विरुद्ध है जबकि केरल में भाजपा की उपस्थिति नगण्य है। दक्षिण के जिन अन्य राज्यों में भी यह यात्रा जाएगी, क्या कांग्रेस का निशाना भाजपा पर ही रहेगा?
यदि भाजपा को सत्तामुक्त करना ही इस यात्रा का लक्ष्य गुजरात में होना चाहिए। मगर गांधी और सरदार पटेल के गुजरात में भी कांग्रेस की जड़ें हिल रही हैं। वहां अरविंद केजरीवाल की आप के नगाड़े बजने लगे हैं। जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकारें हैं, वे राज्य तो राहुल के लिए भीड़ जुटाने में जमीन-आसमान एक कर देंगे लेकिन जिन राज्यों में गैरकांग्रेसी सरकारें हैं, वहां यदि कांग्रेस कुछ जलवा दिखा सके तो माना जाएगा कि भारत जुड़े न जुड़े, कांग्रेस तो कम से कम जुड़ी रहेगी। इस भारत-जोड़ो यात्रा की नौटंकी में आत्म प्रचार और कांग्रेस बचाओ के अलावा क्या है? इस यात्रा के दौरान भारत के लोगों को कौन सा संदेश मिल रहा है? भाजपा सरकार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की निंदा के अलावा कांग्रेसी नेता क्या कर रहे हैं?
यह काम तो वे दिल्ली में बैठे-बैठे करते ही रहते हैं। उनके पास न तो कोई नया संदेश है, न अभियान है और न ही भारत के नव-निर्माण का कोई नक्शा है। जिन शहरों और गांवों से यह यात्रा गुजर रही है, उनके लोगों को कुछ नए संकल्प लेने की प्रेरणा क्या कांग्रेस के नेता दे रहे हैं? वे खुद ही संकल्पहीन हैं। वे लोगों को नए संकल्पों की प्रेरणा कैसे दे सकते हैं? इस यात्रा के दौरान यदि राहुल लाखों लोगों से ये संकल्प करवाते कि वे रिश्वत नहीं लेंगे, मिलावटखोरी नहीं करेंगे, सांप्रदायिकता नहीं फैलाएंगे, मादक-द्रव्यों का सेवन नहीं करेंगे, अपने हस्ताक्षर स्वभाषा में करेंगे आदि तो राहुल के साथ लगे उपनाम गांधी को वे थोड़ा बहुत सार्थक जरूर कर सकते थे। यदि यह ‘भारत जोड़ो यात्रा’ सिर्फ कांग्रेस बचाओ यात्रा बनकर रह गई तो यह भारतीय लोकतंत्र के लिए अशुभ ही होगा।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)
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