नई दिल्ली । भारत (India) में राजनीतिक पदयात्राओं का इतिहास काफी लम्बा है. असल में जब भी कोई पार्टी या कोई नेता (leader) चुनावी राजनीति में कमज़ोर होता है तो वो इस तरह की पदयात्राओं पर निकल पड़ता है. क्योंकि ऐसी यात्राओं में नेताओं का जनता से सीधा संवाद होता है और वो ज्यादा से ज्यादा इलाकों में अपनी पहुंच बना पाते हैं. यानी आज जो राहुल गांधी कर रहे हैं, वैसी पदयात्राएं पहली भी हमारे देश में हुई हैं. और इनमें कुछ पदयात्राएं तो उनकी दादी इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) और उनके पिता राजीव गांधी (Rajiv Gandhi) द्वारा भी की गई थी.
इमरजेंसी हटने के बाद जब वर्ष 1977 के लोक सभा चुनाव में इंदिरा गांधी बुरी तरह हार गई थीं और ये कहा जाने लगा था कि अब उनका राजनीतिक करियर समाप्त हो जाएगा. तब उन्होंने बिहार के बेलछी जाने का फैसला किया था. उस समय बेलछी में भयानक जातिय संघर्ष हुआ था, जिसमें 14 लोग मारे गए थे. बेलछी की यात्रा से इदिरा गांधी को काफी फायदा हुआ और वर्ष 1980 में वो फिर से चुनाव जीत कर सरकार बनाने में सरकार रही.
बीजेपी ने भी निकाली थी यात्रा
वर्ष 1990 में बीजेपी ने राम मन्दिर को एक बड़ा मुद्दा बना दिया था और इसे लोगों तक पहुंचाने के लिए एक रथयात्रा की शुरुआत की थी, जिसका नेतृत्व लालकृष्ण आडवाणी कर रहे थे.
ये रथयात्रा गुजरात के सोमनाथ से उत्तर प्रदेश के अयोध्या तक प्रस्तावित थी. लेकिन उस समय बिहार में इस रथयात्रा को रोक दिया गया था. और इसके पीछे कानून व्यवस्था को वजह बताया गया था. हालांकि इस रथयात्रा से तब बीजेपी को ज़बरदस्त फायदा हुआ. और उसने 1989 के लोक सभा चुनाव की तुलना में 1991 में 35 सीटें ज्यादा जीती. और 120 सीटों के साथ कांग्रेस के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई.
इसी तरह की एक यात्रा पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने भी की थी. ये बात वर्ष 1983 की है, जब देश में इंदिरा गांधी की सरकार थी. और विपक्ष बहुत कमज़ोर हो गया था.
उस समय चन्द्रशेखर ने कन्याकुमारी से दिल्ली के राजघाट तक 4 हज़ार 260 किलोमीटर की लम्बी पैदल यात्रा की थी. और इस यात्रा के ज़रिए वो देश के लोगों और उनकी समस्याओं को समझना चाहते थे. ताकि वो राष्ट्रीय राजनीतिक के मंच पर कांग्रेस पार्टी को चुनौती दे सकें.
इसके अलावा वर्ष 1985 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी कांग्रेस की संदेश यात्रा निकाली थी. राजीव गांधी उस समय भारत के प्रधानमंत्री थे और उन्होंने 1984 के लोक सभा चुनाव में 400 से ज्यादा सीटें जीती थीं. और इस यात्रा का मकसद कांग्रेस के संगठन और मजबूत करना था.
इसे इतिहास में राजीव गांधी की रेल यात्रा के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि तब राजीव गांधी यात्रा के दौरान ट्रेन की Second Class की बोगी में यात्रा करते थे.
इसके अलावा वर्ष 2007 में जब पश्चिम बंगाल में लेफ्ट की सरकार थी, तब नंदीग्राम की घटना के बाद ममता बनर्जी ने सिंगूर से नंदीग्राम तक पैदल यात्रा की थी. और इसके चार वर्ष बाद 2011 में वो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बन गई थीं.
इसी तरह वर्ष 2013 में चंद्रबाबू नायडू ने भी विपक्ष में होते हुए 1700 किलोमीटर की यात्रा की थी और अगले साल 2014 में वो आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए थे.
फिर आंध्र प्रदेश में 2017 में ही जगन मोहन रेड्डी ने भी 3400 किलोमीटर की यात्रा की थी और 2019 में वो मुख्यमंत्री बन गए थे.
यानी आप देखेंगे तो ये राजनीतिक यात्राएं अक्सर वो पार्टियां और नेता निकालते हैं, जो सत्ता से बाहर होते हैं, और वो इन यात्राओं के ज़रिए वोटों की रेलगाड़ी में सवार होना चाहते हैं.
जैसे महाराष्ट्र में पंढरपुर की धार्मिक यात्रा है. ओडिशा और गुजरात की रथयात्रा है. और श्रावण महीनों में शिवभक्त भी पद यात्रा निकालते हैं. और ये पदयात्राएं धार्मिक होती हैं, जिनका इतिहास काफी पुराना और प्राचीन है.
महात्मा गांधी को जाता है पदयात्राओं की शुरुआत का श्रेय
लेकिन राजनीतिक पदयात्राओं की शुरुआत का श्रेय महात्मा गांधी को दिया जाता है. आप कह सकते हैं कि महात्मा गांधी राजनीतिक पदयात्राओं के Chief Architect थे.
वैसे तो महात्मा गांधी अक्सर पैदल ही चला करते थे, जिससे आम लोगों से उनका सम्पर्क भी होता था और भारत के लोगों में स्वतंत्रता के लिए एक जनचेतना भी जागती थी.
महात्मा गांधी की ऐसी ही एक मशहूर पद यात्रा थी दांडी यात्रा, जिसकी शुरुआत उन्होंने साबरमती से की थी. तब उनके साथ सिर्फ 78 स्वयंसेवक थे और जब 386 किलोमीटर लंबी ये यात्रा 6 अप्रैल 1930 को खत्म हुई, तब महात्मा गांधी के साथ सैकड़ों लोग जुड़ चुके थे.
इस यात्रा का इतना बड़ा असर हुआ था कि एक वर्ष तक पूरे भारत में नमक सत्याग्रह चलता रहा और इसी घटना से सविनय अवज्ञा आंदोलन की बुनियाद पड़ी.
लेकिन आजकल जो पदयात्राएं होती हैं, उनमें AC जैसी तमाम सुविधाएं नेताओं को मिलती हैं. और ये यात्राएं रोडशो जैसी साबित होती हैं.
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