डेस्क: हिंदू धर्म में गणेश जी प्रथम पूजनीय देव माने गए हैं, जिनका पूजन हर शुभ व मांगलिक अवसरों पर सबसे पहले किया जाता है. लेकिन, क्या आप जानते हैं कि भगवान शिव व पार्वती के विवाह में भी सबसे पहले गणेश जी की ही पूजा हुई थी? जो गणेश जी खुद शिव पार्वती के पुत्र हैं, उनके अपने माता-पिता के विवाह से पहले उत्पन्न और पूजन के सवाल पर आप भी चौंक गए होंगे. पर यकीन मानिए ये हकीकत है, जिसका जिक्र हिंदू धर्म के सबसे प्रमाणिक ग्रंथों में एक गोस्वामी तुलसीदास के रामचरित मानस में भी हुआ है. इसमें भगवान गणेश के शिव-पार्वती के विवाह से पहले पैदा होने के संशय को भी दूर किया गया है.
इन पंक्तियों में गणेश पूजन का जिक्र
रामचरित मानस के बालकाण्ड में शिव व पार्वती के विवाह का उल्लेख है. इसमें बताया गया है कि किस तरह से सती ने पिता दक्ष के घर अपना शरीर त्याग कर अगले जन्म में तपस्या कर भगवान शिव को प्राप्त किया और किस तरह उनका विवाह संपन्न हुआ. विवाह के इसी प्रसंग में तुलसीदास जी लिखते हैं कि ‘मुनि अनुशासन गनपति हि पूजेहु शंभु भवानि’ यानी विवाह के समय ब्रह्मवेत्ता मुनियों के कहने पर भगवान शिव और पार्वती ने गणपति की पूजा की. इससे ही ये सवाल उठा कि शिव-पार्वती के विवाह से पहले ही गणेश जी का अस्तित्व कैसे सामने आया?
यूं दूर किया संशय
रामचरितमानस में शिव व पार्वती द्वारा गणेशजी के पूजन की पंक्ति के साथ ही तुलसीदास जी गणेशजी के शिव-पार्वती से पहले जन्म का संशय भी दूर कर देते हैं. वे लिखते हैं कि ‘कोउ सुनि संशय करै जनि सुर अनादि जिय जानि’ यानी वे लिखते हैं कि शिव-पार्वती के विवाह में गणेश पूजन की बात सुनकर कोई भी संशय नहीं करे, क्योंकि वे तो अज, अनादि व अनंत है अर्थात भगवान गणेश जी लीला से ही भगवान शिव व पार्वती के पुत्र हैं. वैसे वे वो देव हैं, जिनका आदि और अंत नहीं है.
गणेश पुराण भी दूर करता है भ्रम
ज्योतिषाचार्य के अनुसार, इस संबंध गणेश पुराण व अन्य ग्रंथ भी भ्रम दूर करते हैं. गणेश पुराण के अनुसार गणेशजी का एक ही अवतार नहीं है, बल्कि वे प्रत्येक कल्प में अवतरित होते हैं. गणेश पुराण के अनुसार मां पार्वती भी गणेश जी का पूजन कर कहती है कि ‘मम त्वं पुत्रतां याहि’ यानी आप मेरे पुत्र होवो. इससे भी साफ है कि वे अनादि है और पार्वती जी की इच्छा पर उनके पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए. अन्य पुराणों में भी इस बात का भी जिक्र है कि गणेश जी प्रत्येक सतयुग में आठ, त्रेतायुग में छह, द्वापर युग में चार तथा कलियुग में दो भुजा रूप में अवतरित होते हैं. जो उनके आदि व अंत रहित होने का प्रमाण देता है.
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