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    जब अपने ही देश को छोड़ने पर मजबूर हो गए थे रोहिंग्या, जानें कहां-कहां जाकर बसे शरणार्थी?

  • August 19, 2022

    नई दिल्ली। 24 अगस्त 2017. म्यांमार (myanmar) के रखाइन प्रांत की 30 पुलिस चौकी और आर्मी पोस्ट पर चरमपंथियों ने हमला कर दिया. इस हमले में सुरक्षाबलों के 12 जवान मारे गए. इन हमलों का आरोप रोहिंग्या मुसलमानों (Rohingya Muslims) पर लगा. आरोप लगा कि इन हमलों को अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी (ARSA) ने अंजाम दिया था. जवाबी कार्रवाई में मोर्चा सेना ने संभाल लिया. रखाइन प्रांत को एक तरह से छावनी में बदल दिया गया और गिन-गिनकर रोहिंग्याओं को निशाना बनाया जाने लगा.

    ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि हमलों का बदला लेने के लिए सेना ने रोहिंग्याओं पर जमकर अत्याचार किया. सेना की जवाबी कार्रवाई में सैकड़ों रोहिंग्या मारे गए, तो कइयों को गिरफ्तार कर लिया गया. हजारों गांव जला दिए गए. ये सब इसलिए किया गया ताकि रोहिंग्या म्यांमार छोड़कर चले जाएं.

    उस समय संयुक्त राष्ट्र समेत(including the United Nations) मानवाधिकारों पर काम करने वाली संस्थाओं ने म्यांमार सेना की आलोचना की. तब म्यांमार में चुनी हुई सरकार थी. आंग सान सू ची यहां की नेता थी. सू ची ने उस समय रोहिंग्या मुसलमानों पर हो रहे अत्याचारों को चरमपंथ के खिलाफ कार्रवाई बताकर उसका बचाव किया था.



    इस कार्रवाई ने लाखों रोहिंग्या मुसलमानों को देश छोड़ने को मजबूर कर दिया. म्यांमार की सेना से बचने के लिए रोहिंग्या समंदर और कठिन रास्ते पार करते हुए बांग्लादेश और पड़ोसी मुल्कों में जाने लगे. समुद्र पार करते समय कई हादसे भी हुए, जिनमें कई रोहिंग्या मुसलमान मारे गए.

    रोहिंग्या मुसलमानों को एक ऐसा समुदाय है, जिसका कोई देश नहीं है. वो सदियों से म्यांमार में तो रहते आ रहे हैं, लेकिन म्यांमार की सरकार उन्हें बांग्लादेशी प्रवासी (Bangladeshi Diaspora) मानती है. चूंकि, म्यांमार एक बौद्ध बहुल देश है, इसलिए वहां रोहिंग्याओं के खिलाफ हिंसा होती रहती है. लेकिन 2017 की हिंसा ने दुनिया के सामने रोहिंग्या शरणार्थियों का संकट खड़ा कर दिया था. उस समय रखाइन प्रांत में सेना ने जो ऑपरेशन चलाया था, उसकी तुलना ‘नरसंहार’ से भी की जाती है.

    कौन हैं रोहिंग्या?
    रखाइन प्रांत म्यांमार के उत्तर-पश्चिम छोर पर बांग्लादेश की सीमा से सटा हुआ है. रोहिंग्या कहते हैं कि वो मुस्लिम कारोबारी के वंशज हैं और 9वीं सदी से यहां रह रहे हैं.

    रोहिंग्या मुसलमान भले ही पीढ़ियों से रखाइन में रह रहे हैं, लेकिन म्यांमार की सरकार ने कभी उन्हें अपना नागरिक माना ही नहीं. इन्हें नागरिकता भी नहीं दी गई. म्यांमार इन्हें बांग्लादेशी प्रवासी मानता है.

    म्यांमार का कहना है कि ये बांग्लादेशी किसान हैं, जो अंग्रेजों के राज में यहां आ बसे थे. बांग्लादेश भी कहता है कि रोहिंग्या उसके नहीं, म्यांमार के हैं. ऐसे में रोहिंग्या एक ऐसा समुदाय बन गया जिसका कोई देश नहीं है.

    कैसे बिगड़नी शुरू हुई हालत?
    म्यांमार को 1948 में अंग्रेजों से आजादी मिली. 1962 में यहां सैन्य तख्तापलट हो गया. रोहिंग्याओं से उनके सारे अधिकार छीन लिए गए. उन्हें विदेशी माना गया.

    1982 में म्यांमार सरकार ने एक नया कानून पास किया. इससे रोहिंग्याओं का नागरिक का दर्जा खत्म हो गया. उनसे कहा गया कि नागरिकता के लिए उन्हें साबित करना होगा कि वो आजादी से पहले से यहां रह रहे हैं, लेकिन ज्यादातर रोहिंग्याओं के पास कोई कागजात थे ही नहीं.

    तब से ही रोहिंग्या मुसलमानों की हालत बिगड़ने लगी. उन्हें भागने को मजबूर कर दिया गया. 1970 के दशक से ही रोहिंग्याओं का पलायन जारी है.

    कहां-कहां बसे हैं रोहिंग्या?
    रोहिंग्याओं की आबादी का सटीक आंकड़ा मौजूद नहीं है. क्योंकि म्यांमार की सरकार इन्हें जनगणना में गिनती ही नहीं थी. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, करीब 11 लाख रोहिंग्या शरणार्थी बांग्लादेश में रहते हैं.

    बांग्लादेश में रोहिंग्या शरणार्थियों के लिए कॉक्स बाजार में कैम्प है. ये दुनिया का सबसे बड़ा कैम्प है. बांग्लादेश में रोहिंग्याओं को बसाने के लिए उन्हें एक निर्जन खाली पड़े द्वीप भासन चार पर जबरन भेजना शुरू कर दिया है. ये निर्जन द्वीप समंदर के बीचोबीच 40 वर्ग किलोमीटर इलाके में है. इस जगह न तो खाने-पीने के संसाधन हैं और न ही रोजगार का कोई खास जरिया है.

    बांग्लादेश के अलावा करीब 40 हजार रोहिंग्या शरणार्थी भारत में रहते हैं. भारत में जम्मू, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, महाराष्ट्र, हैदराबाद और राजस्थान समेत कई हिस्सों में रहते हैं. इसके अलावा थाईलैंड में भी लगभग 92 हजार रोहिंग्या शरणार्थी रहते हैं. इंडोनेशिया और नेपाल समेत दूसरे पड़ोसी देशों में भी रोहिंग्या शरणार्थी रह रहे हैं.

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