– डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे की हत्या पर संसार के नेताओं ने जैसी मार्मिक प्रतिक्रियाएं की हैं, वैसी कम ही की जाती हैं। भारत ने तो शनिवार को राष्ट्रीय शोक दिवस घोषित किया है। अब तक कई विदेशी राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों की हत्या की खबरें आती रही हैं लेकिन आबे की हत्या पर भारत की प्रतिक्रिया असाधारण है। इसके कई कारण हैं। आबे ऐसे पहले जापानी प्रधानमंत्री हैं, जो भारत चार बार आए हैं। उनके दादा प्रधानमंत्री नोबुशुके किशी 1957 में प्रधानमंत्री नेहरू के निमंत्रण पर भारत आए थे।
आबे ने ही पहली बार सुदूर पूर्व या पूर्व एशिया क्षेत्र को भारत-प्रशांत क्षेत्र कहा था। यह बात उन्होंने अपनी 2007 की भारत-यात्रा के दौरान हमारी संसद में भाषण देते हुए कही थी। जब वे दुबारा प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने ही पहल करके इस नई और मौलिक धारणा को अमली जामा पहनाया। अमेरिका, भारत, जापान और आस्ट्रेलिया का जो चौगुटा बना है, वह उन्हीं की देन है।
भारत और जापान के व्यापारिक, सामरिक और सांस्कृतिक संबंध जितने प्रगाढ़ आबे के शासनकाल में बने हैं, पहले कभी नहीं बने। भारत और जापान के रिश्ते कभी तनावपूर्ण नहीं रहे लेकिन घनिष्टता के बीच एक दीवार थी, उसको पोला करने का श्रेय आबे और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों को भी है। शीतयुद्ध काल के दौरान जापान तो अमेरिकी गुट का सक्रिय सदस्य रहा है और भारत को सोवियत गुट का अनौपचारिक साथी माना जाता था। इस संकरी गली से हमारे द्विपक्षीय संबंधों को शिंजो आबे ने ही बाहर निकाला।
जापान के साथ भारत के संबंध घनिष्ट होते जा रहे हैं। जापानी कंपनियों का भारत में निवेश तीव्र गति से बढ़ रहा है। जापान की मदद से ही भारत की सबसे तेज चलने वाली रेल बन रही है। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और आबे के बीच व्यक्तिगत संबंध इतने आत्मीय हो गए थे कि दोनों एक-दूसरे के देशों और शहरों में भी कई बार आए और गए। यों भी आबे जापानी प्रधानमंत्रियों में अभूतपूर्व और विलक्षण थे। उनके दादा प्रधानमंत्री थे तो उनके पिता विदेश मंत्री रहे हैं।
वे स्वयं दो बार प्रधानमंत्री चुने गए। उन्होंने पहली बार 2006 से 2007 तक और दूसरी बार 2012 से 2020 तक प्रधानमंत्री पद को सुशोभित किया था। इतने लंबे समय तक कोई जापानी नेता इस पद पर नहीं रह सका। उनका सबसे बड़ा योगदान जापान को सच्चा स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र बनाने की इच्छा में था। द्वितीय महायुद्ध की ज्यादतियों के कारण जापानी संविधान पर मित्र-राष्ट्रों ने जो सैन्य-बंधन लगाए थे, उन्हें तुड़वाने की सबसे ताकतवर गुहार आबे ने ही लगाई थी।
इस काम में उन्हें पूरी सफलता नहीं मिल पाई लेकिन अन्य राष्ट्रों के साथ सैन्य-सहयोग के कई नए आयाम उन्होंने पहली बार खोल दिए। वे 1904 में बिगड़े जापान-रूसी संबंधों को भी सुधारना चाहते थे। उन्होंने चीन की आक्रामकता के विरुद्ध जबर्दस्त मोर्चेबंदी की लेकिन उसके साथ ही वे चीन और जापान के आपसी संबंधों को मर्यादित बनाए रखने में सफल रहे। ऐसे भारत के परम मित्र को हार्दिक श्रद्धांजलि!
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)
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