– सियाराम पांडेय ‘शांत’
संवाद और मेल-मिलाप की अपनी ताकत होती है। मिल-बैठकर बड़ी से बड़ी समस्याओं का समाधान किया जा सकता है और बड़े से बड़े तनाव पर शांति की मिट्टी डाली जा सकती है। जर्मनी में विकसित अर्थव्यवस्था वाले देशों के जी-7 समूह के सम्मेलन का समापन हो गया है और इसी के साथ नाटो देशों के सम्मेलन की शुरुआत होने वाली है। जी-7 देशों के सम्मेलन में भारत का झंडा बुलंद कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भारत वापस लौट आए हैं। इस दौरान जहां उन्होंने कई राष्ट्राध्यक्षों और अपने समकक्षों से गर्मजोशी से मुलाकात की, वहीं भारत समेत दुनिया के तमाम देशों को यह संदेश भी दिया कि हमेशा शांति, सहयोग और सकारात्मक वार्ता का पक्ष रहा है और हमेशा रहेगा।
रूस-यूक्रेन की जंग पर जहां जी-देशों के कई देशों ने यूक्रेन का साथ देने की बात कही, वहीं भारत इस मामले में एक बार फिर तटस्थ नजर आया। अलबत्ता उसने कूटनीति और संवाद के जरिये इस समस्या के समाधान की राह सुझाई। जैसा कि माना जा रहा था कि भारत की तटस्थता उसे इससे दूर कर सकती है, उसकी छाया तक इस सम्मेलन में देखने को नहीं मिली। जो बाइडन का दौड़कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मिलना यह साबित करता है कि अपने देश के हितों के प्रति दृढ़ता व्यक्ति को सर्वत्र सम्मान दिलाती है।
बराक ओबामा और डोनाल्ड ट्रंप जैसी उनकी केमिस्ट्री इस सम्मेलन में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के साथ भी नजर आई लेकिन इन सबके बीच प्रधानमंत्री ने भारत के समग्र हित का ध्यान रखने और यहां के उत्पादों की ब्रांडिंग का मौका भी अपने हाथ से जाने नहीं दिया। उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों के कुछ जिलों के खास उत्पाद भी उन्होंने विभिन्न राष्ट्राध्यक्षों और अपने समकक्षों को भेंट किए। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन को वाराणसी की गुलाबी मीनाकारी कलाकृति, जर्मन चांसलर ओलाफ शॉल्ज को मुरादाबाद के कफलिंक और ब्रोच, जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा को निजामाबाद के काली मिट्टी के बर्तन भेंट किए, जबकि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को प्लेटिनम का टी-सेट दिया। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैंक्रो को जरदोजी के डिब्बे में रखी इत्र की शीशियां दीं तो इटली के प्रधानमंत्री मारियो द्रागी को आगरा के संगमरमर का टेबल टॉप भेंट किया। रामायण के साथ इंडोनेशियाई संस्कृति के स्थायी जुड़ाव को देखते हुए इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोको विदोदो को राम दरबार से जुड़े बर्तन भेंट किए। कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो को कश्मीर की रेशमी कालीन भेंट की।
जब व्यक्ति कहीं जाता है तो उसे खाली हाथ नहीं जाना चाहिए। प्रधानमंत्री ने इस भारतीय परंपरा का न केवल निर्वाह किया अपितु अतिथि और आतिथेय की आत्मीयता में विस्तार के तौर-तरीके भी अपनाए। यही नहीं, उन्होंने वैश्विक पटल पर भारतीय विचारों और चिंताओं को मुखरता तो प्रदान की ही, नियम-आधारित विश्व व्यवस्था, क्षेत्रीय अखंडता व संप्रभुता के सम्मान की प्रतिबद्धता पर भी उन्होंने बल दिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जहां कहीं भी जाते हैं, अपने अलहदा काम से चौंकाते जरूर हैं। जी-7 सम्मेलन इसका अपवाद भला कैसे हो सकता था?
हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की अनावश्यक दखलंदाजी के बीच जर्मनी, अर्जेंटीना, कनाडा, फ्रांस, भारत, इंडोनेशिया, इटली, जापान, सेनेगल, दक्षिण अफ्रीका, ब्रिटेन, अमेरिका और यूरोपीय संघ के नेताओं के स्तर पर संयुक्त राष्ट्र चार्टर में निहित सिद्धांतों की रक्षा ,लोकतंत्र के सिद्धांतों और मूल्यों को आगे बढ़ाने के लिए हर देश में मौजूद राष्ट्रीय कानूनों और नियमों के महत्व की स्वीकार्यता पर जोर तो कमोवेश इसी बात का संकेत है। संयुक्त राष्ट्र चार्टर सहित अंतरराष्ट्रीय कानून द्वारा मान्यता प्राप्त शांति, मानवाधिकारों, कानून के शासन, मानव सुरक्षा और लैंगिक समानता की रक्षा के प्रति अपनी दृढ़ता का भी इजहार किया गया। साथ ही लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं और मूल्यों की साहस पूर्ण रक्षा करने वालों की सराहना भी की गई। उत्पीड़न और हिंसा के विरुद्ध खड़े होने और वैश्विक स्तर पर लोकतांत्रिक समाजों के लचीलेपन में सुधार के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग को आगे बढ़ाने का संकल्प भी लिया गया। यूक्रेन और रूस के बीच चल रही जंग और हिंद प्रशांत क्षेत्र में चीन की बदमाशियों के दौर में यह पहल निश्चित तौर पर उम्मीद की लौ जलाने वाली है। दुनिया भर में लोकतंत्र, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव का समर्थन करने तथा जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए समवेत प्रयास करने का संकल्प बेहद मायनेखेज है।
भ्रष्टाचार, अवैध वित्तीय प्रवाह, संगठित अपराध, साइबर अपराध और अन्य अवैध गतिविधियों से लड़ने, मुक्त, निष्पक्ष और भेदभाव नहीं करने वाले, नियम-आधारित और सतत व्यापार की तरफदारी करने, वैश्विक असमानताओं को कम करने का संकल्प सामान्य बात नहीं है। यह और बात है कि सम्मेलनों में इस तरह के संकल्प सामान्य बात है। देखने वाली खास बात है कि उन पर अमल कितना हो पाता है। स्वतंत्रता और विविधता की रक्षा करते हुए सार्वजनिक संवाद और ऑनलाइन व ऑफलाइन सूचना के मुक्त प्रवाह की बात करना तो आसान है लेकिन इसकी आड़ में क्या कुछ होता रहा है और किस तरह अपने लाभ की रोटियां सेंकी जाती रही हैं, यह भी किसी से छिपा नहीं है। सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित सभी नेताओं ने कहा है कि वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा का संकल्प लेते हैं। यह संयुक्त बयान इन आरोपों के बीच आया है कि भारत सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और इसकी वकालत करने वालों की आवाज दबा रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह कहकर कि रूस-यूक्रेन संघर्ष के मद्देनजर ऊर्जा सुरक्षा एक बहुत चुनौतीपूर्ण मुद्दा बन गई है और जब वैश्विक तेल व्यापार की बात आती है तो भारत वह कदम उठाता रहेगा, जिसे वह अपनी ऊर्जा सुरक्षा के हित में श्रेष्ठ समझता है। यह बयान इस बात का संकेत है कि भारत अपने व्यापक हितों से किसी भी परिस्थिति में समझौता नहीं करने जा रहा है। जर्मनी के बाद उन्होंने जिस तरह यूएई के राष्ट्रपति शेख मोहम्मद बिन जायद अल नाहयान से मुलाकात की और पूर्व राष्ट्रपति शेख खलीफा बिन जायद अल नाहयान के निधन पर संवेदना जाहिर की। जिस प्रकार प्रोटोकॉल तोड़कर उनका वहां स्वागत किया गया, उससे भाजपा प्रवक्ता नूपुर शर्मा के बयान से मुस्लिम देशों में नाराजगी का दावा करने वाले भारतीय राजनीतिक दलों का भी मुंह बंद हो गया है। देखा जाए तो इस यात्रा के बहाने प्रधानमंत्री ने एक तीर से कई निशाने साधे हैं। यूएई भारत का न केवल बड़ा भागीदार देश है बल्कि वहां भारत के करीब 34 लाख प्रवासी रहते हैं। ऐसे में उन्होंने एक तरह से वहां जाकर प्रवासी भारतीयों की सुरक्षा भी सुनिश्चित की है। इस सम्मेलन के जरिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक बार फिर यह साबित किया है कि नरेन्द्र मोदी अकारण कुछ नहीं करते। जो कुछ भी करते हैं, सोच-समझकर करते हैं।
(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं)।
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