कार्यकर्ताओं की पीड़ा-पैराशूट से उतरने वाले हमेशा हवा में ही रहते हैं, उन्हें न हमारी चिंता और न ही जनता की
अगले दो-चार दिनों में पता चल जाएगा कि भाजपा का महापौर प्रत्याशी कौन होगा। तमाम दावों के बीच संघ से आने वालों के नाम खूब जोर-शोर से चलाए जा रहे हैं, जो कभी कार्यकर्ताओं के बीच नहीं पहुंचे। उन लोगों के नाम सबसे ऊपर आ रहे हैं, जिन्हें शहर का आम आदमी तो क्या भाजपा का कार्यकर्ता तक नहीं जानता। ऐसे में ये लोकतंत्र के सजग प्रहरी बनेंगे, इसकी क्या गारंटी है? जिन्होंने शुरू से राजनीति की और लोगों के बीच रहे, ऐसे लोगों को भाजपा द्वारा दरकिनार करना उन कार्यकर्ताओं को रास नहीं आ रहा है, जो भाजपा में शुरू से दरी उठाते आ रहे हैं। पैराशूट में बांधकर उतारने के लिए जो ढुंढाई की जा रही है वह हमेशा हवा में ही घूमता रहेगा, ये चिंता कार्यकर्ताओं को सता रही है। इसमें कोई शक नहीं कि इंदौर जैसे विकासशील शहर को एक यूथ आईकॉन के रूप में टेक्नोलॉजी के साथ-साथ सुनियोजित विकास करने वाला चाहिए। भले ही पैराशूट से उतरने वाले इसका माद्दा रखते हो, लेकिन कार्यकर्ताओं के बीच वे कैसे बैठ पाएंगे, इसको लेकर शहर की राजनीति गर्म है। भाजपा के बड़े नेताओं ने अपने पत्ते छिपाकर रख रखे हैं और इन पत्तों के बीच से कौन उम्मीदवार निकलेगा, इसको लेकर अभी तक संशय की स्थिति बनी हुई है। भले ही ये नाम पार्टी में नए नहीं हो, लेकिन आम लोगों ने तो पहले इन्हें कभी नहीं सुना। भाजपाइयों की पीड़ा है कि अगर जब नए लोगों को पैराशूट से लाना ही है तो हम धूप में अपने बाल क्यों सफेद कर रहे हैं? विपक्ष में आते हैं तो डंडे क्यों खा रहे हैं और फिर जिस पार्टी में सेंव-परमल खाकर चुनाव लड़ा जाता था, उस पार्टी में एसी में बैठने वालों को लाकर भाजपा आखिर क्या संदेश देना चाहती है? जिस तरह से डॉ. निशांत खरे, पुष्यमित्र भार्गव, विकास दवे जैसे नाम तेजी से चल पड़े, उसमें कोई शक नहीं कि ये भाजपा के झंडाबरदार नहीं हैं या इन्होंने संगठन का काम नहीं किया, लेकिन दीनदयालजी के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचने के सिद्धांत को भी ये साबित नहीं कर पाए। यानी नीचे की राजनीति इन्होंने नहीं की, जिससे कार्यकर्ता इन्हें पहचानें। डॉ. खरे कोरोना काल से नजर आ रहे हैं और भार्गव शुरू से संघ से जुडक़र काम करते रहे हैं, लेकिन अब न्याय के मंदिर में अपनी सेवा दे रहे हैं। दवे नाम अच्छा है, लेकिन एक साहित्यकार के तौर पर वे फिट बैठते हैं। लोकतंत्र की अंतिम कड़ी यानी नगर निगम में नगर सरकार का नेतृत्व करना, इनके लिए चुनौती ही साबित होगा। कार्यकर्ताओं का भी कहना है कि जिन्होंने कभी कार्यकर्ताओं के साथ दरी नहीं बिछाई, आंदोलन में खड़े नहीं हुए, सेंव-परमल नहीं खाए, उन्हेंक्या मालूम कि राजनीति में कार्यकर्ताओं की चिंता कैसे रहेगी, क्योंकि लोकतंत्र में लोक यानी लोगों का ही महत्व है। योजनाएं तो अफसर बनाते हैं और साकार भी उन्हें ही करना है। जनप्रतिनिधि का रोल उसमें अहम होता है, ताकि कोई गड़बड़ी न हो और आम लोगों का ध्यान उसमें रखा जाए। दूसरी ओर रमेश मेंदोला, गौरव रणदिवे, के नाम भी तेजी से चले हैं। भोपाल में हुई बैठक में इनके नामों को लेकर मंथन हुआ है। मेंदोला पहचान के मोहताज नहीं है और शहर का बच्चा-बच्चा उन्हें दादा दयालु के नाम से जानता है। फिर राजनीति में उनका कोई तोड़ नहीं है और चुनाव जितने के सारे जोड़तोड़ उन्हें आते हैं। शुक्ला के सामने वे उतरे तो जीत ऐतिहासिक हो सकती है। रणदिवे भी नगर अध्यक्ष के रूप में कार्यकर्ताओं में खासे लोकप्रिय हो गए हैं। एक युवा नेतृत्व के रूप में उनकी छवि बनती जा रही है। इसके अलावा संगठन के पास अनुभवी नामों में गोपीकृष्ण नेमा, मधु वर्मा, सुदर्शन गुप्ता और जीतू जिराती जैसे नाम हैं, लेकिन इन नामों को दूसरी पंक्ति में रखा गया है। संगठन के कर्ताधर्ता और संघ की पसंद इंदौर के पहले नागरिक के प्रत्याशी के रूप में सामने आएगी, लेकिन जनता और कार्यकर्ता उसे ही पसंद करेंगे जो उसके बीच का होगा न कि पैराशूट से आया व्यक्ति।
-संजीव मालवीय
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